सोमवार, 28 जुलाई 2014

वर्षा-मंगल : एक पाठकीय समीक्षा // सौरभ पाण्डेय

अनुभूति के मंच से इस मंच की समृद्ध परिपाटी के अनुरूप ऋतु-सुलभ काव्य-आयोजन संभव होगा, इसका भान अवश्य था. वर्षा-मंगल का आयोजन इस मंच की उसी समृद्ध परंपरा के निर्वहन का संयोग बन कर आया.

प्रकृति और पूर्णिमा वर्मन - एक-दूसरे की समानान्तर, किन्तु परस्पर अन्योन्याश्रय इकाइयाँ ! अप्रच्छन्न ! अनुभूति के पटल पर आयोजनों की आसन्न रेखाएँ इन दोनों इकाइयों के संतुष्ट होने का कारण बनती रहती हैं. यही इस पटल की परिपाटी है. इस बार भी आयोजनों की आसन्न रेखाओं से संभव हुए मिलन-विन्दु विभिन्न मनोदशाओं की तमाम रचनाओं द्वारा संभव हो पाये कई-कई आयामों के मुखर होने का साक्षी बने. यह हुआ पिछले सोमवार इक्कीस जुलाई को. जब ’वर्षा-मंगल’ के आयोजन में गीतों के, नवगीतों के मेघों से रचनाओं की झमाझम बारिश हुई. कुल उन्चालिस रचनाकारों की रससिक्त रचनाएँ ! भिन्न-भिन्न मनोदशाओं को रुपायित करती रचनाएँ ! रचनाएँ भी ऐसी कि पटल मह-मह कर उठा ! वरिष्ठ-नवोदित का तो जैसे भेद ही मिट गया !

सभी एकसार आप्लावित ! सभी एकसार तृप्त ! सभी एकसार उन्मन ! सही भी है, जब रचनाएँ प्रतिष्ठित होती हैं, तो रचनाकार भी प्रतिष्ठित होता है ! इस कुल में आनन्दमग्न होता है तो पाठक !

वर्षा ऋतु से भारतीय जनमानस का बड़ा ही विशिष्ट सम्बन्ध रहा भी है. यहाँ परस्पर बिगाड़ है, तो परस्पर मनुहार भी है. संयोग की अद्भुत उत्फुल्लता है, तो वियोग की असह्य टीस भी है. भाव-संतृप्ति की सुखद अनुभूति है, तो असहज निर्ममता से असंतुष्ट यथार्थ भी है. इस संदर्भ में डॉ. राजेन्द्र गौतम ने अपनी पुस्तक 'नवगीत : उद्भव और विकास' में कहा भी हैं - 'नवगीत में हुए ऋतु-वर्णन मे ग्रीष्म के पश्चात् सर्वाधिक स्थान वर्षा को मिला है. वर्षापरक गीतों के दो स्वर हैं. एक में वर्षा के सौंदर्य, उल्लास, आवेग की अभिव्यक्ति हैं, दूसरा स्वर आतंक का, ध्वंस का है'

दैहिक-मानसिक दशाओं और अनुभूतियों के ऐसे द्वन्द्व-विन्दुओं के सापेक्ष पटल के इस आयोजन को देखना महती तोषदायी रहा. हिन्दी साहित्य के आधुनिक कालिदासों ने पावस ऋतु का सुंदर-सरस चित्रण किया भी ! तो कई तुलसीदास भी रचनारत रहे, जिनकी भावदशाओं की सान्द्र-अभिव्यक्ति हेतु वर्षा की ऋतु माध्यम हुआ करती है.

प्रस्तुतियों में एक ओर जहाँ अश्विनी कुमार विष्णु चिर-नवयौवना उन्मुक्त ’बदली’ के निर्बन्ध रतिकेल पर ठिठोली करते हुए पूछते हैं - किस-किस को / सौंपती निशानी / बदल जायें गहने साँझ और सवेरे / तेरे ही क्योंकर सयानी / किसको दी नथनी / कहाँ गयी हँसली ! तो वहीं राजेन्द्र गौतम ने रसिकप्रिया के संयोग-क्षणों के उर्वर वातावरण का रोचक विन्यास खींचा है - रोम-रोम रोमांचित / तंद्रिल, विश्लथ, कम्पित / हास-सुधा-उर-सिंचित / हुए अधर-पुट कुंचित / दल के दल शतदल के / आनन पर आन फिरें / जब कुंतल-मेघ घिरे / घन कुंतल-मेघ घिरे ! वातावरण ऐसा उर्वर हो, तो जगदीश पंकज की बदलियाँ फिर कैसे न इठलाती आतीं ? आयीं वो ! और, क्या खूब आयीं ! श्रावणी शृंगारिका का रूप धरे.. खुली घनी केशराशि लहराती हुईं ! इस कमनीय भाव-दर्शन से स्वयं सावन भी बचा रहा होगा क्या ? शुभ-शुभ कहें, साहब ! - आ गयीं बौछार / खिड़की खोल कर अब / छू दिये जो अंग / मदमाने लगे हैं / तोड़कर अँगड़ाइयों की वर्जनायें / मेह, हर्षित देह / सहलाने लगे हैं / बाल, वृद्धों में पुलक / पावस-परस से / लाज से सिमटी नवेली / नैन शरमाते हुए.. !

यह अवश्य है, कि ऐसी उत्प्रेरक भाव-भूमि में कथ-कथनी के कई-कई मनके बिखरे-छितराये पड़े होते हैं. कई तत्पर उन्हें बीनने को आतुर होते भी हैं. किन्तु, ऐसे किसी शब्द-चितेरे के संप्रेषण में इन क्षणों को गूँथने का अनुभवी अभ्यास भी तो हो. आचार्य संजीव सलिल से बढ़कर अभ्यासी कौन हो सकता है ! आचार्यजी के भाव-उकेर को ही हम देखें, जिनका उद्दण्ड सावन आतुर हुआ इस बार यों ’घर’ आया है - आतुर मनभावन सावन घर आया / रोके रुका न छली-बली !.. सावन की कारगुजारियों पर आचार्य सलिल की फुसफुसाहट यहीं नहीं रुकतीं. अभिव्यक्तियाँ यदि सरस-सप्रवाह हुईं तो त्वरणसधी श्ंखलाओं में गुँथी हुई बहने ही लग जाती है ! - कोशिश के दादुर टर्राये / मेहनत मोर झूम नाचे / कथा सफलता-नारायण की- / बादल पंडित नित बाँचे / ढोल मँजीरा टिमकी / आल्हा-कजरी गली-गली / .... शुभ हो आचार्य सलिल, शुभ हो !

देह ही तो बाह्यकर्ण का भौतिक स्वरूप है. इसकी अपनी चाहनाएँ होती हैं. तदनुरूप, इसकी अपनी भाषा होती है. इसके अपने इंगित हुआ करते हैं. सम्पूरक इकाइयों के विभव की आवृतियाँ जब उच्चांकों की प्रखरता जीने लगती हैं, तो प्रभावी नम वातावरण भी अत्यंत आवेशित हो उठता है. आदि शंकर के अविनाशी शब्दों को स्वर देता हुआ - विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ! शस्य-श्यामला धरा का गदराया-गर्वीला स्वरूप और भी तीखा हुआ अत्यंत संप्रेष्य हो उठाता है. भला ऐसे में गगन अपनी समस्त ऊर्जा को इस आवृति के समानुपाती कैसे न बना डाले ? उसकी धमनियों के पारद-प्रवाह का कारण बनी सूर्य की तपिश उत्प्रेरक का ही तो कार्य कर रही है ! इन क्षणों में बाह्यकर्ण ही जगती के अंतःकर्ण को संचालित करने लगता है. इन भावों को शाब्दिक करते हुए पल्लव सस्वर गा उठते हैं - आज धरा पर / झुका गगन है, पुनर्मिलन को आतुर मन है / क्षितिज कसा ज्यों बाहुपाश हो / आवेशित दोनों का तन है / .. / सूर्य निकट आता है / ज्यों-ज्यों, विरह तपिश बढ़ती जाती है / दृष्टि कशिश पारे के कण सी - ऊर्ध्वमुखी चढ़ती जाती है / पर नभ को सब ज्ञात धरा का ध्वंस / यही तो जीवन धन है ! .. यही तो जीवन-धन है ! अद्भुत ! सही है, उत्कट भावों के मद्धिम ताप से चित्त-वृत्ति के निरोध की चाँदी पिघलती है ! संचित अक्षय-ऊर्जा का पारद बहता है ! कामायनी के प्रसाद जब ’कर्म का भोग, भोग का कर्म’ कहते हैं, तो इन्हीं उद्दात क्षणों की ही तो व्याख्या कर रहे होते हैं !

प्रभाव का सिद्धांत कब, कहाँ-कहाँ नहीं असर करता ! वातावरण इतना सुरम्य हो तो अल्हड़ के पाँव भी चपल पुतलियाँ हो जाते हैं ! इन्हीं बिम्बों को शाब्दिक करते हैं, ठाकुर प्रसाद सिंह, जिन्होंने ’मदमदायी’ हवा को देख लिया है ! देखा भी है तो कहाँ ? पिछवारे बँसवारी में ! चोरी-चोरी दिखी ! छुपी-छुपी दिखी ! - पिछवारे की बँसवारी में फँसा हवा का हलका अंचल / खिंच-खिंच पड़ते बाँस कि रह-रह बज-बज उठते पत्ते चंचल / चरनी पर बाँधे बैलों की तड़पन बन घण्टियाँ बज रहीं / यह उमस से भरी रात यह हाँफ रहा / छोटा-सा आँगन ..!

आज स्वप्निल प्रतीत होते ऐसे जीवन को जीया हुआ मन, जहाँ चरनियाँ आज भी बैलों की उपस्थिति से मुग्ध हैं, इस दृश्य के खिंचते ही नम हो जाता है ! स्वप्न में बसे गाँवों की दैनन्दिनियों को पलटना अब तो कठोर कलेजा मांगता है. सरल नहीं है न इनको बाँचना, आँखों की कोर नरम हो जाती हैं. ऐसी नरमाइयाँ मेघों के आने की प्रतीक्षा नहीं करतीं. बस, झिहर पड़ती हैं. ठाकुर प्रसाद सिंह के रोमिल बिम्ब स्वप्नजीवी रचनाकारों को, पाठकों को भरपूर सहलाते हैं. ऐसे ही स्वप्नजीवी रचनाकार हैं चन्द्र प्रकाश पाण्डेय. प्रथम प्रयास तथा प्रिय अनुभूति को हृदय-क्रोड़ में बसाये विह्वल हो गाते हैं - मौसम के ओ पहले बादल / आना भी तुम / फिर आना कल /.. / कोर-कोर पुतरी है नाचे / शब्द-शब्द सुधियों के बाँचे / आज विरह ने गीत मिलन के / फूल-फूल मन विजन सवाँचे / बूँद-बूँद यह प्यास / हुई खुद गंगाजल !

उर्ध्वगामी मन देह-भावों से अभिसिंचित हुआ, लसर-पसर होने के बावजूद, और ओजस्वी हो उठता है ! ठठाया हँसता ! निर्दोष ! निर्विकार ! यही सान्द्र भावों की संतृप्ति की सनातन परिणति है ! कुमार रवीन्द्र से ही सुनें न हम - नागचंपा हँस रहा है / खूब जी भर वह नहाया / किसी मछुए ने उमग कर / रागबरखा अभी गाया ! /

संयोग के पलों की कलाएँ एकधार तो चलतीं नहीं. मदांध मन एक पल देही में सनता-घुटता है, तो ठीक दूसरे पल देह-विरत चैतन्य हुआ पारखी अन्वेषक-सा व्यवहार करने लगता है - पाँत बगुलों की / अभी जो गयी उड़कर / उसे दिखता दूर से / जलभरा पोखर / उसी पोखर में / नहा कर आयी हैं सारी दिशाएँ / घन कुंतल-मेघ घिरे..

किन्तु, संतृप्ति आवृतियों में क्यों जीती है ? ’परम’ की प्राप्ति हेतु अग्रसरित पौरुष को मिला यह कोई श्राप है क्या ? उसकी संतृप्ति ’अनहद’ की अनुभूत झंकार के साथ ’तरस’ की लहरों के आलोड़न पर पुनर्मार्गी क्यों हो जाया करती है ? धनन्जय सिंह की स्वीकारोक्ति तो यही कहती है - आज यहाँ, कल वहाँ बरसता है बादल / अपनेपन के लिए तरसता है बादल / .. / कभी-कभी वह धरती का मन खूब भिगोता है / लगता जैसे मन के रीतेपन पर रोता है / कभी खीज कर गरज-गरज कर ओले बरसाता / आमन्त्रण पाता धरती का, प्यार नहीं पाता / कभी क्षुब्ध, तो कभी / सरसता है बादल !

समर्पण के अत्युच्च पलों में सर्वस्व लुटा देने के पश्चात, पुनः तृषा की ऐसी प्रबल धार में उभ-चुभ होना, दैहिकता की भावदशा के सतत प्रवहमान रहने की संभावना ही है. किन्तु, यह तृषा कजरी की ओट से आह टेरती उस नायिका के लिए भी असह्य है जिसने पुनर्मिलन की अपेक्षाएँ जिला रखी हैं. ऐसे वायव्य तोष से अनमनायी नायिका की भावनाओं को क्या ही सुन्दरता से शब्दबद्ध करते हैं, ओमप्रकाश यती - झूले की डोरी को / इठलाती गोरी को / साजन के आने की आस जब नहीं रही / सावन की रिम-झिम के गीत कहीं खो गये / .. / छूटा जब अपना तो / टूटा जब सपना तो / बाहों के घेरे में सिर्फ़ हवा रह गयी / साँसों की धड़कन के गीत कहीं खो गये ! संयोग के क्षणों के बाद पुनः घनीभूत होने लगे छूँछेपन को ओमप्रकाश यती के सार्थक शब्द मिले हैं.

संसार अंतःकर्ण के अवयवों के सापेक्ष हुआ मानवीय प्रकटीकरण है. विशेषकर, वृत्तियाँ किसी स्वरूप के रुपायित होने का कारण होती हैं. परन्तु यह भी सत्य है, कि संसार के भौतिक स्वरूप में ही हरतरह की प्रवृतियाँ आधार पाती हैं. सकारात्मक भी, नकारात्मक भी. इन्हीं के सम्मिलित प्रभाव से जगत चलता है. प्रकृति की संज्ञाओं का अंतर्निहित भाव चाहे जो हो, सापेक्ष दृश्य को ही मानव अपनी इन्द्रियों द्वारा भान करता है. धरा जिस रंग में दिखती है, वही भावुक हृदय का अनुमोदन हुआ करता है. इस परिप्रेक्ष्य में अनिल कुमार वर्मा वर्षा ऋतु में धरा के शृंगारिक स्वरूप का सुन्दर वर्णन करते हैं - ओढ़े चुनर धानी / सतरंगी गोट जडी / चौथी की दुल्हन सी / धरती है सजी खड़ी / ढूँढ रही कोई वह / पहली मुस्कान / अंतस में गूँज रही / पपिहे की तान.

प्रकृति के इस सापेक्ष स्वरूप पर कल्पना रामानी अपने भावों को शब्दबद्ध करती जाती हैं. और जैसे-जैसे रूप निखरता जाता है, वो उसका अनुभव करना चाहती हैं - बरखा रानी ! नाम तुम्हारे / निस दिन मैंने छन्द रचे / रंग-रंग के भाव भरे / सुख-दुख केआखर चंद रचे / .. / पाला बदल-बदल कर मौसम / रहा लुढ़कता इधर-उधर / कहीं घटा घनघोर कहीं पर / राह देखते रहे शहर / कहीं प्यास तो कहीं बाढ़के / सूखे-भीगे बन्द रचे

स्वातंत्र्योत्तर पद्य-विधाओं में नवगीत मुख्य रूप से उभर कर आया है. आजके परिवेश की लयबद्ध प्रस्तुति नवगीत की प्रमुख विशेषता है. यथार्थ-प्रस्तुति जहाँ वायव्य भावनाओं को अन्यथा मान लेती है, वहीं पद्य निवेदन के क्रम में भी बिना लाग-लपेट प्रस्तुति की हामी है. आमजन की मनोदशाओं और भावनाओं को पढ़ने की कवायद के पूर्व नवगीतकार उसके पेट के ’स्टेटस’ की चिंता करता है. आमजन की आकाशीय आकांक्षाओं को शब्दबद्ध करने के पूर्व नवगीतकार उसकी जिजीविषा से प्रभावित होता है. नवगीतकारों ने वर्षा ऋतु की सकारात्मक और नकाक्रात्मक दोंनो तरह की सोच को स्वर दिया है. धरातल का जीवन कई अर्थों में विशिष्ट हुआ करता है. छोटी-छोटी खुशियाँ जहाँ आमजन को आह्लादित करती हैं, तो छोटे-छोटे दुख, छोटी-छोटी समस्याएँ इनके लिए अवसाद का कारण हुआ करती हैं. दैनिक जीवन के सुख-दुखों को गाता नवगीतकार बारिश को आह्लाद और कोप दोनों को विषय बनाता है. इन संदर्भों में इस आयोजन के गीतकार भारतेन्दु मिश्र को सुनना उचित होगा, जो शहर और कस्बों की नारकीय दशा से क्षुब्ध हैं - दिन ये बरसात के / कीचड़ के बदबू के / रपटीली रात के / ../ माटी की गन्ध / गयी डूब किसी नाले में / माचिस भी सील गयी / रखे-रखे आले में / आँधी के, पानी के दुर्दिन सौगात के.

इसी स्वर में रजनी मोरवाल भी बोलती हैं - आ गयी वर्षा सड़क / भरने लगी है / .. / झुग्गियाँ चुपचाप / प्लास्टिक को लपेटे / गठरियों-सी देह / कोने में समेटे / शहर की रफ़्तार से / डरने लगी है. शहर आबादियों के बोझ तले पिस रहा है. ऐसे में बरसात किसी भयावह फेनोमेना से कम नहीं. कृष्ण नन्दन मौर्य ने बरसातके दिनों में प्रशासकीय लापरवाही और उस कारण फैल गयी अव्यवस्था की भयावहता को क्या खूब शब्दबद्ध किया है - भीड़ फर्राटा / घिसटती जाम में / खास भी कुछ आ फँसे आम में / इक लहर बारिश क्या आयी / पालिका की पोल सारी कह गयी

शहर स्वप्नों के पूरे होने का यूटोपियन संसार मात्र नहीं है, बल्कि यहाँ स्वप्नों को लगातार धूसरित होता हुआ देखना एकचुभती हुई सच्चाई है. विद्यानन्दन राजीव ने इस विन्दु को विह्वल शब्द दिये हैं - टूटा छप्पर ओसारे का / छत में पड़ी दरार / फेंक गयी गठरी भर चिंता / बारिश की बौछार / .. / पहले-पहले काले बादल / लाये नहीं उमंग / काम-काज के बिना / बहुत पहले से मुट्ठी तंग / किस्मत का छाजन रिसता है / क्या इसका उपचार !

यहीं, इसी क्रम में, योगेन्द्र वर्मा व्योम तो क्षोभ से भर उठते हैं - गली मुहल्लों की सड़को पर / भरा हुआ पानी / चोक नालियों के संग मिलकर / करता शैतानी / ऐसे में तो वाहन भी / इतराकर चलते हैं.

दिन में तो संसार चलायमान दिखता भी है. रात सही कहिये, परीक्षा लेती हुई आती है. इसी तथ्य को प्रदीप शुक्ल ने बाँधा है- रात भर ड्यूटी, पड़ा घर पर / सुबह का काम होगा / भारी बारिश से / सड़क पर / रास्ता जाम होगा / अपशकुन काली घटाएँ / शहर के माथे पे आकर / रम गयी हैं !

देखा जाय तो आमजन के लिए वर्षा ही नहीं कोई ऋतु परिस्थितिजन्य अनुभूतियों का पिटारा खोलती है. इसी प्रवाह में सुमित्रा नन्दन पंत ने कहा था - मैं नहीं चाहता चिर सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख ! समत्व के इस भाव से समाद्रित महेन्द्र भटनागर को सुनें - छा गये सारे गगन पर / नव घने घन मिल मनोहर / दे रहे हैं त्रस्त भू को / आज तो शत-शत दुआएँ. आभार-भाव से आप्लावित हैं, सुरेन्द्र सुकुमार भी, जो मनुष्य द्वारा की गयी तमाम लापरवाहियों को गिनाते हुए नत-मस्तक हो जाते हैं - माना पर्यावरण बिगाड़ा / धरती खोदी जंगल काटा / और अधिक दौलत पाने को / हमने तेरा तन-मन बाँटा / हमको फिर भी क्षमा कर दिया / खुशियों से आँगन भर डाला / तुमको बहुत शुक्रिया बादल !

जब जीवन संसृत होता हुआ निरंतर बढ़ता जाता है, तो ही कोमल भावनाएँ आधार पाती हैं. शहरी व्यवहार का कितना सटीक दृश्य उभरा है रामशंकर वर्मा की पंक्तियों में - रेन कोटों छतरियों बरसातियों की / देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से हाइ-वे तक / बज उठे प्रणय के शत शंख / आधुनिकाएँ व्यस्त प्रेमालाप में / डाल बाहें बाँह में फिरती फुदकती / संग हैं महबूब !

चेतना के इन्हीं क्षणों को मान देती हुई दिनेश प्रभात की पंक्तियाँ विशेष अर्थ साझा करती हैं - झीलों को कुछ चैन मिला है / भक्तों को उज्जैन मिला है / बूँद-बूँद से घर भर देगा / मेघों का ये दल / .. / प्यार भरा उनको खत लिखना / हरदम एक पिता-सा दिखना / फिर पानी ऊपर लौटेगा / आज नहीं तो कल ! दिनेश प्रभात के ही स्वर में अपने स्वर मिलाते हैं बनज कुमार बनज - मुस्कानें छा जातीं पर्वत के शिखरों से घाटी तक / मौन न रहते कंकर-पत्थर / गीत सुनाती माटी तक / मस्जिद को अजान मिल जाती / मन्दिर को वन्दन मिल जाता / राज तिलक होता फूलों का

लेकिन जिस दशा ने ध्यानाकृष्ट किया है वह बेटियों की उपस्थिति ! सावन में बेटियाँ नैहर आती हैं. हर साल आने वाली बदलियों को मिला ज्योतिर्मयी पंत का सम्बोधन हृदय आर्द्र कर देता है - वर्ष बाद बेटी ज्यों आती / धरती माँ को गले लगाती / गीला हो जाता है आँचल / सौंधी माटी घर महकाती / हुलस-हुलस कर वृक्ष झूमते / जुले पड़ते जब / शाखों पर

वर्षा प्रभावी तब ही है जब यह दाघ का पूरक है. ग्रामीण अंचल हो, या, कस्बाई इलाका हो, या शहरी जीवन हो, जीवन को तरंगित आर्द्रता ही करती है. आर्द्रता की आवश्यकता पर यशोधरा राठौर प्रकाश डालती हैं. बादल भी मनुहार चाहता है - प्यासी धरती तुम्हें पुकारे / बादल आना जी / .. / धूल गर्द में लोट रही है / नन्हीं सी गौरैया / सूखी नदी, किनारे सूखे / तुम्हें पुकारे प्यासी नैया / फूल पत्तियों की आँखों में / बस हरियाना जी.
वहीं, पूर्णिमा वर्मन का विन्यास बिल्डिंगों में जीती इकाइयों की भावनाओं को शब्द देता है - खिड़की पर बूँदें अटकी हैं / सुधियाँ दूर तलक भटकी हैं / आँगन के पानी में तिरती नावें चलीं मगर अटकी हैं / पार उतरना कठिन नहीं है / दोहरायेंगी ये मन-मन ..
मन-मन दुहराना अपने आप को संयत करने, स्वयं को आश्वस्त करने से है.

दैनिक जीवन में तारी हुई झुंझलाहट के वशीभूत अथवा वैचारिक निहितार्थ के वशीभूत, कुछ रचनाकार वर्षा और आसमान से झुंझलाये दीखे. धर्मेन्द्र सिंह सज्जन को सुनना रोचक होगा - मेघ श्वेत-श्याम कह रहे / आसमां अधेड़ हो गया / .. / कोशिशें हजार कीं मगर / रेत पर बरस न सका / जब चली जिधर चली हवा / मेघ साथ ले गयी सदा..
तो, संध्या सिंह ने मेघों को भुलक्कड़ हरकारा मान लिया है - मौसम बिगड़ैल हुआ तो / बैठ गया तूफ़ानों पर / हरियाली के लिए मेघ थे / बरस गये चट्टानों पर .. अद्भुत !

आयोजन की प्रस्तुतियों में वर्षा का ऐसा विविध स्वरूप उभर कर आया है कि पाठक-मन भर उठता है. किन्तु, सच यही है कि वर्षा ऋतु पारस्परिक अनुभूतियों के जीवंत हो जाने का नरम माध्यम है. दग्ध सम्बन्धों पर उम्मीदों के फाहे रखते मेघों के औदार्य को कोई वियोगी कैसे नकार सकता है ! ऋतु की प्रासंगिकता को इन्हीं संदर्भों में सस्वर करने का प्रयास किया है मैंने, यानि इन पंक्तियों के लेखक ने - बिन तुम्हारे क्या भला हूँ / मैं सदा से जानता हूँ / बारिशों में बूँद की है क्या महत्ता / मानता हूँ / भरे हुए वृक्षों-तालों के / तृप्त स्वरों में मुझको सुन / आकुल हुई नदी बन थामों / बाँह-कलाई / आ जाओ !

इस सफल आयोजन ने गीत-नवगीत के कई पहलुओं को समक्ष किया है. प्रतिभागी कई रचनाकार हैं जिनके अमूल्य सहयोग को अनदेखा करना आयोजन के स्वरूप को ही अनदेखा करने के बराबर होगा. पवन प्रताप सिंह, बृजेश द्विवेदी अमन, मनोज जैन मधुर, महेन्द्र वर्मा, राम वल्लभ आचार्य, शशि पाधा, शशि पुरवार, सुरेन्द्र पाल वैद्य, हरिवल्लभ शर्मा, त्रिलोक सिंह ठकुरेला की रचनाओं ने सरस वातावरण बनाया है. इन कवियों की रचनाओं को हृदय से मान देते हुए इनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ.


एक सफल आयोजन के लिए अनुभूति की सम्पादिका पूर्णिमा वर्मन तथा उनकी समस्त टीम को सादर धन्यवाद !


--सौरभ पाण्डेय,
नैनी, इलाहाबाद