सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

नींद कागज की तरह- यश मालवीय / निर्मल शुक्ल


भाषा की सुदृढ़ सम्प्रेषण भूमि पर बौद्धिक संवेदनशीलता से तरल आकार प्रदान करने वाले समर्थ गीतकार यश मालवीय आज के साहित्यिक परिदृष्य में लोकानुभूति के सधे संवाहक हैं।

यश मालवीय नवगीतयुग की प्रारम्भिक कड़ियों में विशिश्ट कहे जाने वाले कवि उमाकान्त मालवीय के सुपुत्र हैं। इन्हें विरासत में गीत का युगबोध प्राप्त हुआ है। अपने पिता से वाहिक रूप में प्राप्त हुई संवेदनशीलता एवं प्रयोगधर्मी बहुआयामी  सर्जनाशक्ति उन्हीं की तरह इन्हें भी अपनी पहचान बनाने में सहायक रही है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मैं समझता हूँ कि यश मालवीय एक संधिकाल के कवि हैं। वरिष्ठ कवियों की लम्बी फेहरिस्त के बाद नवगीत में नई पौध के आगमन के पहले के कवि कहे जा सकते हैं। नवगीत के इतिहास में जहाँ पहली कड़ी समाप्त होती है और दूसरी कड़ी प्रारम्भ होती है, वहीं पर इस महत्वपूर्ण विलक्षण गीतकार को रखा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समकालीन परिदृष्य में यश मालवीय के सृजन में विमुक्त का स्पष्ट चिंतन है। यही कारण है कि पाठकों द्वारा सहज स्वीकार किये जाते हैं।

गीत के प्रति चिंतनशील मस्तिष्क निरंतर अंतश्चेतना में नए विम्ब, नई प्रतीक योजना में व्यस्त दिखता है। यश मालवीय अपने नवीनतम गीत-संग्रह ‘नींद कागज की तरह’ के द्वारा वस्तुगत एवं शिल्पगत दोनों दृष्टियों को परिवर्तन की रचनाधर्मिता की नैनो तकनीक का दर्शन कराते हुए कहता है कि-
नवगीत के कविबोध और समग्रता में गीत के संसार के विस्तार ने समकालीन कविता के बरअक्स हिन्दी नवगीत को पूरे घत्व के साथ सम्भव बनाया है। जिस तरह ग़ज़ल महबूबा की जुल्फों के पेंचोखम से मुक्त हुई है, गीत भी छायावाद की विशाल छाया से बाहर आया है। उसके कथ्य का आसमान और अधिक विस्तृत हुआ है। शिल्प के स्तर पर भी उसने नई जमीनें तोड़ी हैं। व्यष्टि से समष्टि की ओर प्रयाण किया है। आम आदमी के दुखदर्द से बावस्ता हुआ है। आज का युगबोध खुरदुरी मगर र्प्याप्त अर्थभरी भंगिमाएँ और तेवर लेकर उसकी मारक एवं चुटीली भावाभिव्यक्ति में शामिल हुआ है। वह सामान्य आदमी की बोली-बानी में उजागर हुआ है। उसने संवाद की मुद्रा अपनाई है। केवल किताबी भर रह जाने से उसने गुरेज किया है। जरूरत पड़ी तो उसने अंग्रेजी, अरबी, फारसी और उर्दू का निस्संकोच इस्तेमाल कर अपनी हिन्दी को और अर्थवान बनाया है। लोकभाष और देशज शब्दों को पूरी सलाहियत के साथ बरता है। इसे बरतने में या सर्जनात्मक बर्ताव में कहीं भी उसकी लय खण्डित नहीं हुई है। 

प्रस्तुत संग्रह के गीतों की सृजन प्रक्रिया से गुजरते हुए कवि और कविता को पृथक-पृथक रखा जाना सम्भव नहीं। संवेदना, अनुभूति हॅंसते-मुस्कराते, कभी अवसाद पूर्ण भावभंगिमाओं में तो कहीं साधारण मुद्रा में वार्तालाप करती प्रतीत होती है। उनके गीतों के बीच से चलकर एक आश्वस्ति होती है। अपनी तमाम यथार्थबोधी चेतना के बीच ये गीत नवीन से अनुप्राणित हैं। समाज को उबारने के लिए दर्पण दिखाते हुए उनकी चेतना और प्रेरणा प्रतिबिम्बित करते हैं। समाज की गन्तव्यहीन यात्रा में समाधान हेतु प्रेरक संकेतों में यश मालवीय की रचनायें आधुनिक जीवन की हिमायती और पक्षधर हैं। 

आज के उलझे हुए जीवन की तरह उसमें उलझाव भी है और युगीन जटिल सन्दर्भों को सहज रूप से व्यक्त करते हुए इन्हें पूरी पठनीयता और सम्पेषणीयता के साथ प्रस्तुत किया गया है-
चलो डुबोकर बिस्कुट थोड़ी चाय पियें
खिली धूप में बैठें दो पल साथ जियें
बादल वाले गीत दरमियाँ खोलें भी
तहे हुए किस्से कहानियाँ खोलें भी
बातों की तुरपन खोलें
कुछ बुनें सियें।

हमें पता है कुआँ 
कहाँ कब खाई है
लिखते जाना भी तो एक लड़ाई है
सब कुछ मिलता सम्वेदन के घर जाकर
शब्द बता देते हैं धीरे से आकर
ढाल कहाँ है
कैसी कहाँ चढ़ाई है। 

यश मालीवय कृत नवीनतम गीत संग्रह ‘नींद कागज की तरह’ में उन्होंने अपने ६५ गीतों को सुरूचिपूर्ण ढंग से संकलित किया है। इस कृति का आभ्यांतर ‘नींद कागज की तरह’-नींद एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से आज के समय में जीवनमूल्यों के क्षरण को समझाते हुए, उस पर चिन्तित होते हुए संवेदनशील होकर उसका प्रतिबिम्ब दिखाया गया है। एक चिन्तनशील मस्तिष्क  पाठक को कवि की मनःप्रतीति से दो चार कराते देखा जा सकता है। यही कवि का रचना संसार है, जो गीतों की प्रभावशक्ति की बहुत बड़ी सफलता है, देखें-
याद आए नींद में ही काम कितने
मुँह चिढ़ाने लगे टूटे हुए सपने
हर सुबह जैसे लगे
ऊॅंची पहाड़ी
बहुत नीली, बहुत गहरी
बहुत गाढ़ी
नींद कागज की तरह सौ बार फाड़ी   

इसी क्रम में, आज जीवन की आपधापी में मॅंहगाई का स्वर, लाचारी का ज्वर, कठिन समय में जीवन की विकृतियों का कठोर सच बोल रहा है-
चिढ़ा रहा मुँह चावल, साधो!
अरहर आँख दिखाए
हमें ले रहे अपनी जद में
महँगाई के साए
हर अनुपात शर्म सा 
चुभता है तुतली बानी में
है सिमेण्ट बालू सा रिश्ता 
दूध और पानी में
रोता है भविष्य बच्चे सा
भूखा ही सो जाए
चूल्हे चढ़ी पतीली खुलकर
फूट फूट कर रोई
महँगी गैस रसोई साधो!
कठिन जिंदगी, गीला आटा
गुम रोटी के सपने
एक व्यवस्था आत्मघात की
मन में लगी पनपने
घर आई लक्ष्मी ने
आँसू की माला पोई 

इस  विषम स्थिति में चिंता और क्षोभ व्यक्त हुआ है, देखें-
थहा न पाती भूख
कि पत्थर हुई फूल की थाली
खाने को बस बची रह गई
माँ बहनों की गाली

होली दीवाली भी घर में
सेंध लगाने आए

घने पेड़ की छाया भी है
काँटेदार, कॅंटीली
उसका क्या जो मुखिया की है
आँखें गीली-गीली

गीला सा आटा परात में
सौ सौ नाच नचाए

घर बाहर भी इससे अधिक मार्मिक अभिव्यक्ति क्या होगी। मूल्यों के क्षरण के वास्तविक रूप का चित्रांकन है यह प्रकल्पना। इतना ही नहीं कृति में कवि के अंतरंग स्निग्ध चित्र भी मिलेंगे-
भरी बरसात में भी
दिल दहकते हैं
तुम्हारे साथ 
काँटे भी महकते हैं
तुम्हारी रोशनी हो
तो अॅंधेरा क्या
तुम्हारे सामने
खिलता सवेरा क्या
तुम्हारे गीत पर
प्याले बहकते हैं

कवि एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज के सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक संवेदनशील है। अपने इसी स्वभाव के कारण वह सामाजिक, सांस्कृतिक जीवनमूल्यों का साक्षात करता है। आगे बढ़कर वह पाठकवृन्द अथवा सुधी समाज को एक दिशा देने का सद्प्रयास करता है। इसी में उसकी रचनाधर्मिता का प्रयोजन, उद्देष्य और नैतिक बोध स्पष्ट होता है। 

यश का कवि घर, समाज में रहकर मात्र भोक्ता बन कर नहीं अपितु औचित्य स्थापन के प्रति पग बढ़ाते हुए अपना साहित्यकार धर्म का निर्वाह करता है। इसी परिप्रेक्ष्य में अथवा यों कहें भावभूमि पर कवि की कलम चली है। 

यही सुसंस्कार यश मालवीय की गीत रचनाओं में मिलते रहे हैं। वे सुख के साथ-साथ दुखों पर अपनी सम्वेदना दर्शाते हुए कहते हैं-
सिर्फ सुखों का नहीं
दुखों का भी अपना घनत्व होता है
हाहाकर भले कैसा हो
मन में सन्नाटे बोता है
दुख की भी गरिमा होती है
आँसू होते हैं चमकीले
बहुत पास से छू लेते हैं
आकर बादल गीले गीले
जान न पातीं दीवारें भी
कब कोई कितना रोता है

जीवन की विसंगतियों के साथ-साथ प्रकृति, मौसम आदि भी कवि के अंतरंग को छूते हैं। शीत का मौसम-
भूली बिसरी चोट दुखाने
मौसम बदला है
भारी बक्से से, सर्दी का
कपड़ा निकला है
देह हमारी और पिता की
सदरी बोल रही
नेप्थलीन वाली यादों की
खुश्बू डोल रही
माँ का शाल, लक्ष्मी के
काँधे पर फिसला है

एक बिम्ब और-
ढीठ सर्दी को जरा सा मुँह चिढ़ाने
धूप में बैठें
चलो दाढ़ी बनाएँ

बसन्त का चित्र भी-
फिर बसन्त आने को है
सूनापन गाने को है

या फिर-
भूली बिसरी चोट दुखाने
फिर बसन्त आया
घाव लगाने, घाव सुखाने
फिर बसन्त आया

यश मालवीय आशावादी किन्तु विद्रोही हैं। नैराश्य को सिर्फ जाना ही नहीं भोग भी लिया है, क्योंकि जीवन सुन्दर-असुन्दर, गुण-दोष, सुख-दुख, अच्छे-बुरे का समावेश है, किन्तु जीवन की सार्थकता इसी बात पर निहित है कि इस मायाजाल में जीकर भी इंसान दिल से ढूँढ सके-
 अनबीती सी तिथियाँ होने दो
चोटों को स्मृतियाँ होने दो
जख्म याद बन जायेंगे
तो नहीं पिरायेंगे
आँखों के जल में ही
मन का दिया सिरायेंगे
रचना की स्थितियाँ होने दो
चुप चुप सी आहुतियाँ होने दो

यश की कविता में गहरी काव्यात्मकता है। मंच हॅंसोड़ और फूहड़ काव्यात्मकता से भिन्न विरोधाभासों को गम्भीरता से उकेरने वाले यश मालवीय गहरे मानवीय सरोकारों और चिन्ताओं के कवि हैं। उन्हें अप्रियता, कुरूपता, विसंगति मथती है, उद्वेलित करती है-
आँसू और खुशी की 
कोई नदी उबलती देखी
अस्पताल के आगे से 
बारात निकलती देखी
एक आँख का हॅंसना देखा
एक आँख का रोना
शादी वाला कार्ड
पत्र का कटा हुआ सा कोना

एक मोमबत्ती साँसों की 
जली पिघलती देखी

यश के गीतों की विषयवस्तु और शिल्प दोनों अनुभूति और अभिव्यक्ति में एक सन्तुलन है। भाषा खड़ी बोली, मृसण प्रसारमयी है। भाषा के प्रवाह में देशज व कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्द सहज आकर्षण हैं। समग्र कृति के अनुशीलन के पश्चात मैं यह कहना चाहता हूँ कि गीत के सशक्त हस्ताक्षर यश मालवीय की इस कृति में उनकी गवेशणात्मक दृष्टि समय और समाज के अच्छे पारखी रूप का परिचय 
मिलता है। 
बाँधता है घड़ी 
लेकिन
वक्त का बीमार है
ये हमारे दौर का फनकार है

हैं कई चेहरे कि जिनमें
एक भी अपना नहीं है
आग ठण्डी है, किसी भी
आग में तपना नहीं है

बंद दरवाजे सरीखा
या कि चुप दीवार है
ये हमारे दौर का फनकार है

इसमें सन्देह नहीं कि कवि की चेतना इन नाना विसंगतियों के मध्य सुभासित, सुभाषित चित्त की उर्वर भूमि खोजती है, जहाँ पर सुसंस्कृति के बीज पुनः बोये जा सकें। जिसका परिणाम अच्छा हो। ‘नींद कागज की तरह’ गीत संकलन सर्वथा निर्दोष और सप्रयोजनीय है। गीत- नवगीत संग्रह - नींद कागज की तरह, रचनाकार- यश मालवीय, प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा - निर्मल शुक्ल।