tag:blogger.com,1999:blog-35290907848003673402024-03-05T10:12:08.141+04:00अभिव्यक्ति अनुभूतिसूचना और समीक्षापूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.comBlogger31125tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-81799542878526268212021-10-20T23:23:00.021+04:002022-01-11T00:07:00.351+04:00पूर्णिमा वर्मन की नन्ही बाल कहानियाँ और शिक्षण में उनका उपयोग<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjySxnYUICy4BGoa_GxCKkoBsHSx2J0jqq10hyPcpByQ-oznwvL0roSvxX7Q0dbWic4iDFUjbgSw2klFRm4_maebzXKzyADhxQbE0dh_2IHHgBkCCRGYvVucVyGWSG3A-qoYHAEIUB_X2o/s650/001bhalu_titlil_aur_phool.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="406" data-original-width="650" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjySxnYUICy4BGoa_GxCKkoBsHSx2J0jqq10hyPcpByQ-oznwvL0roSvxX7Q0dbWic4iDFUjbgSw2klFRm4_maebzXKzyADhxQbE0dh_2IHHgBkCCRGYvVucVyGWSG3A-qoYHAEIUB_X2o/s320/001bhalu_titlil_aur_phool.jpg" width="320" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">प्रवासी भारतीय बाल साहित्यकारों में पूर्णिमा वर्मन का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। पूर्णिमा जी संयुक्त अरब अमीरात के शारजाह नामक नगर में निवास करती हैं। <span style="text-align: justify;">वर्ष १९९५ वेब पर नियमित रूप से उपस्थित वे 'अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ नामक वेब पत्रिकाएँ निकाल रही हैं, जो अंतरजाल पर हिंदी में नियमित प्रकाशित होनेवाली पहली वेब पत्रिकाएँ हैं। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने न केवल भारतीय, बल्कि प्रवासी एवं विदेशी हिंदी साहित्यकारों को एक साझा मंच प्रदान किया है। हिंदी के प्रति उनकी अमूल्य सेवाओं के लिए उन्हें भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान समेत विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित किया जा चुका है। पूर्णिमा जी ने कहानी, कविता, नवगीत, साहित्यिक निबंध, स्तंभ लेखन, हास्य-व्यंग्य आदि विविध विधाओं में लेखन किया है। उन्होंने बच्चों के लिए भी सुंदर कहानियाँ-कविताएँ रची हैं। ख़ासतौर पर शिशुओं के लिए लिखी उनकी नन्ही कहानियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। </span></div><p style="text-align: justify;">शिशुओं के लिए रचनाएँ लिखना अत्यंत कठिन साधना है। शिशुओं का भाषा ज्ञान अत्यंत अल्प होता है। आस-पास के वातावरण एवं घटनाओं के कारण-कार्य संबंध के प्रति उनकी समझ सीमित होती है। अतः उनके मानसिक समझ के दायरे और भाषा की सीमा़ को आत्मसात किए बिना अच्छी शिशु कहानियाँ लिखा जाना संभव नहीं है। कहना न होगा कि पूर्णिमा जी की कहानियाँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। पूर्णिमा जी ने शिशुओं के लिए लगभग पाँच दर्जन रचनाएँ लिखी हैं। वेब पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ (http://www.abhivyakti-hindi.org) में प्रकाशित इन कहानियों में ‘भालू, तितली और फूल’(20.08.12), ‘मछलीघर’(03.09.12), ‘धमाचौकड़ी’(17.09.12), ‘चित्रकला’(01.10.12), ‘सुलेख’(15.10.12), ‘पुस्तकालय’(29.10.12), ‘दीपावली’(12.11.12), ‘फूलों से बातें’(26.11.12), ‘फिसलपट्टी’(03.12.12), ‘आसमान की सैर’(10.12.12), ‘संगीत की धुन’(17.12.12), ‘सर्कस’(10.12.13), ‘जादू वाली शाम’(31.12.12), ‘बागबानी’(07.01.13), ‘बर्फ का पुतला’(14.01.13), ‘शुभ रात्रि’(21.01.13), ‘खेल का मैदान’(28.01.13), ‘टेलिविजन’(04.02.13), ‘तितलियाँ’(11.02.13), ‘हवाई जहाज’(--.02.13), ‘पत्र’(25.02.13), ‘लैपटॉप’(04.03.13), ‘उड़ने वाली भेड़’(11.03.13), ‘कागज के हवाई जहाज’(18.03.13), ‘होली’(25.03.13), ‘चरखीवाले झूले’(01.04.13), ‘तरणताल’(08.04.13), ‘वाटर-पार्क’(15.04.13), ‘राम नवमी’(22.04.13), ‘गाँव की सैर’(29.04.13), ‘खाने का समय’(06.05.13), ‘चित्रकारी’(13.05.13), ‘सपना’(20.05.13) आदि के नाम लिए जा सकते हैं।</p><p style="text-align: justify;">उनकी एक कहानी है ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/001bhalu_titli_aur_phool.htm" target="_blank">भालू, तितली और फूल</a>’। कहानी का आरंभ कुछ यों होता है-‘‘नेहा लड़की है, छोटी-सी। भालू खिलौना है, बड़ा-सा। भालू नेहा का दोस्त है। नेहा और भालू साथ-साथ रहते हैं।’’ (अभिव्यक्ति, 20 अगस्त 2012) कहानी का आरंभ बेहद सरल वाक्यों से होता है। शब्द ऐसे कि शिशु उन्हें आसानी से पढ़ और समझ ले। बच्चों को मनोरंजन उपलब्ध कराने के साथ ही लेखिका उन तथ्यों का समावेश करना नहीं भूलती, जो बच्चे की समझ को और साफ कर सकें और उसके अध्ययन में मददगार बन सकें। इन पंक्तियों के आरंभ में ही लेखिका बच्चों को ‘आकृति और स्थान’ का परिचय देने की कोशिश करती है, जो गणित-शिक्षण की पहली सीढ़ी है। संख्या ज्ञान देने से पूर्व बालक को अंदर-बाहर, छोटा-बड़ा, ऊपर-नीचे, पास-दूर इत्यादि की जानकारी दी जानी आवश्यक है। वस्तुतः ‘‘हमारे आस-पास की दुनिया, जिसे हम लगतार अनुभव करते हैं, वह बहुत ही अस्पष्ट और धुंधली-सी हो जाएगी, यदि हम उसे आकृतियों और स्थानिक संबंधों में स्वयं संगठित करते हुए न चलें। आकृतियों और स्थानिक संबंधों के कारण ही हम अलग-अलग वस्तुओं को देख पाते हैं और उनकी विभिन्न विशेषताओं को भी समझ पाते हैं। अनुभवों को इस तरह से समझने की क्षमता को ही स्थानिक समझ कहते हैं, जो बच्चे इन स्थानिक सबंधों की अच्छी समझ बना लेते हैं वे संख्याओं को, मापन को, आँकड़ों को और अमूर्त गणितीय समझ को बेहतर तरीके से सीख पाते हैं।’’ (गणित का जादू, भाग-1 राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद, पृष्ठ-136)</p><p style="text-align: justify;">कहानी की आरंभिक पंक्तियों में ‘छोटा-बड़ा’ अर्थात आकृतियों की समझ को विकसित करने का प्रयास किया गया है। यह समझ आगे के पंक्तियों में और स्पष्ट होती है-‘‘आज शाम नेहा बगीचे में गई। भालू भी साथ में गया। वहाँ एक फूल था, बड़ा-सा। फूल गुलाबी रंग का था। नेहा ने फूल को देखा। उसे फूल सुंदर लगा। </p><p style="text-align: justify;">‘‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा। आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा। आसमान में तितली थी, छोटी-सी। उसके पंखों का रंग लाल था। नेहा को तितली अच्छी लगी। </p><p style="text-align: justify;">‘‘नीचे घास थी। घास का रंग हरा था। बल्लू और नेहा घास पर बैठे। घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी। </p><p style="text-align: justify;">‘‘बल्लू फूल से बातें करने लगा। लो, नेहा तो बैठे-बैठे सो गई।’’ (अभिव्यक्ति, 20 अगस्त 2012)</p><p style="text-align: justify;">इस उद्धरण में फूल, आसमान और तितली को लेकर छोटे-बड़े अर्थात आकृतियों की समझ को और विस्तार दिया गया है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ हर स्थान पर ‘छोटे-बड़े’ का युग्म नहीं दर्शाया गया है। अतः यहाँ शिक्षक के लिए पर्याप्त स्पेस है कि वह बच्चों से सवाल कर सके कि ‘फूल बड़ा-सा था, तो उसके मुक़ाबले वहाँ छोटी चीज़ें क्या-क्या रही होंगी?’ निस्संदेह बच्चे उत्तर देने की कोशिश में आकृतियों की समझ को और विकसित करेंगे। इसी तरह आगे की पंक्तियों में ‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा’ कहने के बाद आसमान के रंग और सुंदरता की चर्चा की गई है। दो वाक्यों के बाद लेखिका फिर आकृतियों की ओर लौट आती है-‘आसमान में तितली थी, छोटी-सी।’ बीच के दो वाक्यों में बच्चे का ध्यान आसमान के रंग और उसकी सुंदरता पर चला जाता है। पर एक अंतराल के बाद जब फिर आकृति की बात की जाती है तो बच्चा फिर से ‘छोटे-बड़े’ के सवाल पर पर अपना ध्यान वापस लाता है। अब उसका सोचना ज़्यादा अर्थपूर्ण और समझ को बढ़ानेवाला होता है। यह कहानी कोरा शिक्षण न बनकर रह जाए इसलिए लेखिका कहानी को एक रोचक मोड़ देती है-‘बल्लू फूल से बातें करने लगा। लो, नेहा तो बैठे-बैठे सो गई।’ महकता फूल, उड़ती तितली, नीला आसमान और इन सबके बीच नेहा का सो जाना और भालू का जागते रह जाना कहानी को एक रोचक अंत देता है, जो बच्चों के चेहरे पर मुस्कान ला देनेवाला है।</p><p style="text-align: justify;">यहाँ एक बात और ध्यान देनेवाली है। लेखिका आरंभिक पंक्तियों में दो चरित्रों नेहा और भालू की बात करती है, पर अंत तक आते-आते भालू के स्थान बल्लू संज्ञा का प्रयोग करने लगती है। यहाँ शिक्षकों के लिए बच्चों से सवाल करने की अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है-‘यह बल्लू कौन है?’ सवाल तो और भी बहुत पूछे जा सकते हैं। मसलन-‘घास के मैदान में और क्या चीज़ें दिखती हैं? आसमान में और क्या-क्या दिखता है? बड़ा-सा फूल किस चीज़ का था? क्या तुम कभी खुले आसमान के नीचे किसी मैदान में बैठे हो? तुम्हें कैसा लगा? आदि-आदि।</p><p style="text-align: justify;">इस छोटी-सी कहानी को रचने में लेखिका ने पर्याप्त सावधानी बरती है। शब्दों का दुहराव और उन्हीं शब्दों से नए वाक्यों का निर्माण बच्चों को कहानी को पढ़ने में आसानी पैदा करता है। जैसे-‘वहाँ एक फूल था, बड़ा-सा। फूल गुलाबी रंग का था। नेहा ने फूल को देखा।’ या फिर-‘नीचे घास थी। घास का रंग हरा था। बल्लू और नेहा घास पर बैठे। घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी।’ इसी तरह-‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा। आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा।’ इन पंक्तियों में फूल, आसमान, घास शब्द के बार-बार दुहराव द्वारा नए वाक्य निर्मित किए गए हैं, जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होती है और वे एक वाक्य को दूसरे से जोड़कर अर्थ को अच्छी तरह समझ पाते हैं। हर स्थिति के चित्रण के बाद लेखिका द्वारा किसी गीत की टेक की भांति यह दुहराया जाना कि ‘अच्छा लगा’ कहानी की रसानुभति को बकरार रखती है- </p><p style="text-align: justify;">‘‘नेहा ने फूल को देखा। उसे फूल सुंदर लगा।’’ </p><p style="text-align: justify;">‘‘घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी।’’ </p><p style="text-align: justify;">‘‘तितली के पंखों का रंग लाल था। नेहा को तितली अच्छी लगी।’’ </p><p style="text-align: justify;">‘‘आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा।’’ </p><p style="text-align: justify;">कहानी में बच्चों को रंगों से परिचित कराने का भी प्रयास किया गया है। गुलाबी फूल, नीला आसमान, लाल पंखोंवाली तितली, हरी घास आदि के माध्यम से बच्चा आस-पास के वातावरण और रंगों के प्रति अपनी समझ विकसित करता है। शिक्षक शिक्षण के दौरान रंगों से संबंधित और भी प्रश्न कर सकता है। जैसे-‘‘तितली के पंखों में कौन-कौन से रंग होते हैं? आसमान लाल कब होता है? लाल रंग के अन्य फूलों के नाम बताओ इत्यादि।</p><p style="text-align: justify;">इसी तरह पूर्णिमा जी की एक अन्य कहानी है ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/004chitrakala.htm" target="_blank">चित्रकला</a>’ (अभिव्यक्ति, 01 अक्तूबर 2012)। इस कहानी में भी वह रंगों का परिचय देती हैं-‘‘चीनू ने एक लड़का और लड़की बनाए। गुलाबी रंग से। लड़की ने टोपी पहनी थी। टोपी में से किरणें निकल रही थीं। जैसे सूरज में से निकलती हैं। </p><p style="text-align: justify;">क्या इसकी टोपी में सूरज है?-मीनू ने पूछा।</p><p style="text-align: justify;">नहीं, उसके सिर में दर्द है-चीनू ने कहा।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>...........</p><p style="text-align: justify;">मीनू ने नीले रंग की पेंसिल ली और एक अंतरिक्ष यात्री बनाया।</p><p style="text-align: justify;">क्या यह उड़नतश्तरी से आया है? चीनू ने पूछा।</p><p style="text-align: justify;">नहीं, यह मेरी नीली पेंसिल से आया है-मीनू ने कहा।’’ </p><p style="text-align: justify;">इन पंक्तियों में रंगों के परिचय के साथ-साथ बच्चों के मनोविज्ञान-चित्रण पर भी लेखिका ने सचेत दृष्टि रखी है। लड़की के सिर के दर्द को अंकित करने के लिए उसकी टोपी के चारों ओर सूरज की किरणें बना देना अत्यंत रोचक है। साथ ही यह भी कि वह लड़के-लड़की के चित्र को चीनू गुलाबी रंग से रंगती है। आगे की पंक्तियों में अपने बनाए चित्र पर मीनू की हाज़िर जवाबी बड़ी रोचक है। यहाँ लेखिका कहानी को आगे बढ़ाने की युक्ति में दुहराव से बचते हुए बाल मनोविज्ञान को भी बेहद ख़ूबसूरती से साधती है। कहानी में आगे चलकर चीनू-मीनू दीवार पर गोला, चैकोर, आयत, त्रिकोण आदि आकृतियाँ बनाते हैं। </p><p style="text-align: justify;">‘‘क्या तुमने गोल, चौकोर, सितारे और आयत भी सीखे हैं?’’ चीनू ने पूछा।</p><p style="text-align: justify;">‘‘हाँ, चलो दीवार पर बनाते हैं।’’ मीनू ने कहा।</p><p style="text-align: justify;">फिर दोनों ने दीवार पर रेलगाड़ी, सितारे, पान, बिल्ली, फूल और पेड़ बना दिए।</p><p style="text-align: justify;">माँ ने बताया-‘‘अच्छे बच्चे दीवार पर नहीं लिखते। काग़ज़ पर लिखते हैं।’’ </p><p style="text-align: justify;">इन पंक्तियों में जहाँ विभिन्न आकृतियों के बारे में बालकों में जिज्ञासा जागृत करने का प्रयास किया किया गया है, वहीं यह सीख भी देने की कोशिश की गई है कि उन्हें दीवार आदि पर लिखने या चित्र बनाने का कार्य नहीं करना चाहिए। यहाँ शिक्षक चीनू-मीनू द्वारा बनाई गई रेलगाड़ी, सितारे, पान, बिल्ली, फूल और पेड़ आदि आकृतियों को वर्ग, गोले और आयत के माध्यम से बना सकते हैं और आकृति शिक्षण के संबंध में रोचक प्रयोग कर सकते हैं।</p><p style="text-align: justify;">इसी तरह एक अन्य कहानी ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/032chitrakala.htm" target="_blank">चित्रकारी</a>’ (अभिव्यक्ति 13 मई 2013) में वे रंगों की जानकारी और स्पष्ट रूप में देती हैं-‘‘माँ के पास एक लकड़ी का एक बोर्ड है। माँ उस पर चित्र बनाती हैं और चित्रों से बहुत-सी बातें समझाती हैं-‘देखो यह आसमान है। आसमान नीला होता है। और यह देखो, यह घास है। घास के कारण धरती हरी दिखती है।...ऊपर देखो आसमान में, जो सफेद टुकड़े हैं, वे बादल हैं। वो जो दूर पर रंगीन-सा दिख रहा है न? वह इंद्रधनुष है।’’ </p><p style="text-align: justify;">इन पंक्तियों में पूर्णिमा जी रंगों को उन कुछ वस्तुओं से जोड़ती हैं, जो बच्चा रोजमर्रा की ज़िंदगी में देखता है। नीले रंग को आसमान, हरे रंग को घास और सफेद को बादल से जोड़कर वह बच्चे की स्मृति में रंगों की छवि हमेशा के लिए टाँक देती हैं। बाद में वह इंद्रधनुष की बात ज़रूर करती हैं, पर उसके रंगों का ज़िक्र नहीं करतीं। यहाँ वह शिक्षकों को अवकाश देती हैं कि वे बच्चों से इंद्रधनुष और उसके रंगों पर बात कर सकें। अपनी अन्य कहानियों ‘होली’ (अभिव्यक्ति 25 मार्च 2013), ‘काग़ज़ के हवाई जहाज़’ (अभिव्यक्ति 18 मार्च 2013) में भी रंगों की चर्चा करती हैं।</p><p style="text-align: justify;">इसी प्रकार ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/031khane.htm">खाने का समय</a>’ (अभिव्यक्ति 6 मई 2013) में समय के बारे में, ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/011sangeetkidhun.htm">संगीत की धुन</a>’ (अभिव्यक्ति 17 दिसंबर 2012) में विभिन्न वाद्ययंत्रों के बारे में, ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/017khel.htm">खेल का मैदान</a>’ (अभिव्यक्ति 28 जनवरी 2013) में विभिन्न खेलों के बारे में, ‘<a href="https://www.abhivyakti-hindi.org/phulwari/kahani/chhoti_kahani/021patra.htm" target="_blank">पत्र</a>’ (अभिव्यक्ति 25 फरवरी 2013) में पत्र लेखन आदि के संबंध में जानकारी देती हैं।</p><p style="text-align: justify;">शिक्षण की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी होने के बावजूद पूर्णिमा जी की ये कहानियाँ कहानी-कला की दृष्टि से कहीं भी शिथिल या कोरी पाठ्य-पुस्तकीय रचनाएँ नहीं हैं। इनमें बच्चों के मन को बाँध लेनेवाली कल्पना, मनोविज्ञान, भाषा की रोचकता-सरलता आदि ऐसे गुण हैं जो बच्चों को आनंद प्रदान करते हैं। कहानी ‘सपना’ (अभिव्यक्ति, 20 मई 2013) में उनकी कल्पना की उड़ान देखते ही बनती है-</p><p style="text-align: justify;">‘‘मीतू ने एक मज़ेदार सपना देखा।</p><p style="text-align: justify;">सपना था गाँव की सैर का। गाँव में एक बड़ा-सा खेत था। खेत में उगे थे गुब्बारे ही गुब्बारे। ढेर-सारी पत्तियाँ और पत्तियों के बीच गुब्बारे। पत्तियाँ पीली थीं और गुब्बारे नारंगी। वे पान के आकार के थे।’’ </p><p style="text-align: justify;">इन पंक्तियों में बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ उनकी कल्पना को भी नया आयाम मिलता है। खेत में फसल की जगह गुब्बारे उगना, गुब्बारों का प्रचलित आकार के स्थान पर पान के आकार का होना, पत्तियों का रंग हरे के स्थान पर पीला होना बच्चों को मानसिक अभ्यास की अच्छी सामग्री और कल्पना को विस्तार प्रदान करती है। साथ ही बच्चों को एक ऐसी सपनीली दुनिया में ले जाती है, जहाँ उन्हें आनंद की अनूठी अनुभूति होती है।</p><p style="text-align: justify;">इस तरह से देखा जाए तो पूर्णिमा वर्मन की नन्हीं कहानियाँ बच्चों के लिए शिक्षण की अच्छी सामग्री तो उपलब्ध कराती ही हैं, साथ ही साथ उन्हें मज़ेदार कहानी का भी आनंद प्रदान करती हैं।</p><div style="text-align: justify;">--------------------<br /><div style="text-align: justify; text-indent: 0px;"><span style="color: #cc0000;"><b style="text-align: right; text-indent: 36pt;"><span lang="EN-US" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10pt; mso-ansi-language: EN-US;">-</span></b><b style="text-align: right; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10pt; mso-ansi-language: EN-US;">डा0 मोहम्मद अरशद ख़ान, </span></b><span style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; text-align: right; text-indent: 36pt;">एसोशिएट प्रोफेसर, </span><span style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; text-align: right; text-indent: 36pt;">हिंदी विभाग, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; text-align: right; text-indent: 36pt;">जी. एफ. (पी.जी.) कालेज</span><span lang="EN-US" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; text-align: right; text-indent: 36pt;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; text-align: right; text-indent: 36pt;">शाहजहाँपुर, </span></span><span lang="HI" style="color: #cc0000; font-family: "Mangal",serif; font-size: 10pt; line-height: 107%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin;">ईमेल: </span><span lang="EN-US" style="color: #cc0000; font-family: "Mangal",serif; font-size: 10pt; line-height: 107%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin;">hamdarshad@gmail.com</span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-43028748247833253682020-04-09T11:38:00.000+04:002020-04-09T11:43:11.036+04:00नवगीत का स्त्री पक्ष- रंजना गुप्ता के नवगीत संग्रह सलीबें को पढ़ते हुए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh4pa-AaJzzV5PJUhSNwPAS_6IUUxo9S9txR_WDVWMhvXiPavI0iPuNRuom9vro0JO2_SdOrr-jsWvyIPqSzEWR2dzuEAshisovtwOgTcVtr8ousfPxWLr-LqdQeA9iu42QKSsqrlPL0rs/s1600/saleeben.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="320" data-original-width="227" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh4pa-AaJzzV5PJUhSNwPAS_6IUUxo9S9txR_WDVWMhvXiPavI0iPuNRuom9vro0JO2_SdOrr-jsWvyIPqSzEWR2dzuEAshisovtwOgTcVtr8ousfPxWLr-LqdQeA9iu42QKSsqrlPL0rs/s320/saleeben.jpg" width="227" /></a></div>
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इन दिनों हिंदी कविता की गतिविधियों का केंद्र स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से हट कर पुन: व्यक्ति की समाज में एक स्वतंत्र इकाई के रूप में अपनी गरिमा और महत्ता के अन्वेषण प्रयासों की ओर खिसकती जा रही है ।सूचना क्रांति ने सम्वेदना के भौगोलिक प्रत्यय को निष्प्रभावी बना दिया है ।हालाँकि निष्प्रभावी बनाने की यह घोषणा भी भूगोल की परिधि में ही होती है। इस प्रकार वैश्विकता और स्थानिकता का अपरिभाषेय संश्लेषण मानव सम्वेदना को तरह तरह से परिभाषित कर रहा है ।एक समूह के रूप में व्यक्ति समूह के लिए नहीं अपनी पहचान के लिए एकत्रित हो रहा है।</div>
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जीवन की इतनी जटिल स्थितियों में अभिव्यक्ति का सरल होना असम्भव है ।कहीं संवेदनाएँ अभिव्यक्ति पाते पाते मर जाती हैं तो कहीं संवेदनाओं के मारक प्रहारों से अभिव्यक्तियाँ दम तोड़ देती हैं यह स्थिति ऐसी होती है कि हर व्यक्ति अपनी सलीब अपनी पीठ पर लादे घूमता लगता है ।हर क्षण नए नए समझौते जीवन की अनिवार्यता बनते जा रहे हैं यंत्र न होते हुए भी आदमी के यंत्र होते जाने की यह आँखों देखी ही आज की हिंदी कविता का क्रीड़ा क्षेत्र है ।नवगीत एक कविता रूप होने के कारण इन सारे वांछित अवांछित दबाओं से गुज़रते हुए अपनी यात्रा कर रहा है । एक अवसाद का परिदृश्य पर अदृश्य आवरण चढ़ा हुआ है । इसी को डा० रंजना गुप्ता का नवगीत संग्रह’ सलीबें’ प्रमाणित करता है ।</div>
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उन्नीस सौ अठ्ठावन में इन्हीं पूर्वाभासों के कारण एक नये गीत प्रारूपों की आवश्यकता महसूस की गयी और पाँच फ़रवरी उन्नीस सौ अठ्ठावन को ‘गीतांगिनी’ के के प्रकाशन के साथ ही नवगीत नामक नई गीत विधा की प्रस्तावना लिखी गयी ।यद्दपि नवगीत के उद्भव और विकास को लेकर हमारे पास अब कई धारणायें हैं किंतु ये सच है कि नवगीत ने जीवन की सूक्ष्म मानसिक क्रियाओं को काव्य विषय बनाया और ऐसा करने के लिए उसने स्थूल शारीरिक क्रियाओं को अपना उपकरण बनाया ।यही कारण है कि नवगीत में वे सारी बातें भी स्थान पा सकीं जो गीत से बहिष्कृत थीं ।इसलिए यह मानना उचित होगा कि नवगीत एक स्वतंत्र काव्य विधा है जो नव और गीत का एक जटिल काव्य यौगिक है जिसमें नव और गीत अपने आधार गुणों को खो चुके हैं । नवगीत में नव को विशेषण मान कर गीत का नया रूप नहीं माना जा सकता गीत में इतिवृतात्मकता होती है और नवगीत में बिम्बधर्मी संकेत।</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
रंजना गुप्ता के नवगीत संग्रह ‘सलीबें’से गुज़रते हुए यह महसूस हुआ कि उनके मन में अपनी अभिव्यक्ति को लेकर एक आतुरता तो है किंतु प्रकट करने की विधि को लेकर एक अनिश्चितता भी है ।इसका संकेत उनके नवगीत सम्बंधी दृष्टिकोण से जो कुछ कुछ अमूर्त और छाया वादी लगता है मिलता है-’ वस्तुतः नवगीत गीत की वह आधुनिक विधा है जो आत्म चेतना और लोक संवेदना के दर्द से सीधा संवाद करती है..जन जीवन के दैनिक संघर्ष और उससे जुड़ी सघन समस्याओं को उनकी वैचारिक बेचैनियों के साथ प्रतिबद्धता से तादात्म स्थापित कर संवेदना की क़लम से लिखी जा रही है ..एक सधा हुआ शिल्प विधान और दर्द से मुक्ति का यह संधान जब समय के पन्नों पर उतरता है तो एक मूर्तिकार की तपस्या ..एक कलाकार की साधना ..एक सुगठित नृत्य विधान का संतुलन ...एक कवि की आत्मा उसमें साकार हो उठती है...विश्व सुमंगल अवधारणा ..पर्यावरण संचेतना ..आमजन की पीड़ा ..प्राणी जगत की त्रासद स्थितियों ..आत्म संघर्ष और लोक संघर्ष की जिजीविषा सब कुछ समाहित कर लेने की अपार सिंधु सी क्षमता आज के नवगीत में पूरी शिद्दत से मौजूद है ।’</div>
इस प्रकार रंजना गुप्ता अपने काव्य आग्रहों को प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देती हैं और उनके गीत इसको प्रमाणित भी करते है।<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
’सलीबें’ नामक नवगीत संग्रह में डा०रंजना गुप्ता के क़थ्य और भाषा का द्वन्द हर जगह दिखाई देता है ।उनका काव्यानुभव और उनका जीवनानुभव नवगीत को अपना मैत्री स्थल बनाते हैं वे अपने आत्म क़थ्य में लिखती भी हैं ‘लिखना’ कभी ‘लिखना’ नहीं रहा मेरे लिए ..व्यवसाय ..घर और जीवन के हर कदम पाँवों को उलझाती समस्याओं से संत्रास के बीच जो किसी भाँति बच पाया ..उस लेखन...उस रचनात्मकता के विलोड़न से उपजा नवनीत ही नवगीत बन गया है..’</div>
<br />
‘भीगे मन के बैठ किनारे <br />
कब रातों के हुए सबेरे<br />
लिखता कौन ..?लिखाता कोई..<br />
यूँ शब्दों ने डाले घेरे …’<br />
(पेज नम्बर २६)<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
संग्रह का प्रारम्भ जिस नवगीत से होता है उसका शीर्षक का’नियति’ ।वर्तमान के खुरदरे जीवन व्यापारों से एक अकेली स्त्री का गरिमापूर्ण आत्मपरिचय इन पंक्तियों से बेहतर और क्या होगा ?</div>
<br />
‘मैं नियति की <br />
क्रूर लहरों पर सदा से <br />
ही पली हूँ<br />
<br />
जेठ का हर ताप <br />
सहकर <br />
बूँद बरखा की चखी है<br />
टूट कर हर बार जुड़ती <br />
वेदना मेरी सखी है<br />
<br />
मैं समय की भट्टियों में <br />
स्वर्ण सी पिघली <br />
गली हूँ’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
नियति की बात करते हुए भी नवगीतकार कहीं दीन हीन नहीं प्रतीत होता ।हालाँकि वह अपने जीवन संघर्षो का एक काव्य चित्र प्रस्तुत करता है ।जो मर्म स्पर्शी तो है किंतु गौरव बोध से लबरेज़ भी ।नवगीत कार को अपनी जिजीविषा पर पूरा भरोसा है और वह अपना मूल्य भी जानती है ।उपरोक्त पंक्तियाँ बरबस ही महीयसी महादेवी वर्मा की याद दिलाती हैं ।संग्रह में अनेक नवगीत स्त्री विमर्श के अनेक अनछुए पहलुओं को स्पर्श करते हैं ।एक गीत है जिसका शीर्षक है’ मछली’।यह नवगीत भी उपरोक्त ‘नियति’ नवगीत से प्रारम्भ हुई यात्रा का अगला पड़ाव है ।इस नवगीत में भी समाज में स्त्री के आत्म बोध को रेखांकित करते हुए उसे सतर्क रहने का सुझाव दिया जा सकता है। सारे प्रगति शील विचारों ,आंदोलनों ,और क़ानूनों के बाद भी स्त्री के साथ आदि काल से होता हुआ छल अभी तक निर्बाध चल रहा है ।इस नवगीत में स्त्री को मछली और दुनियादारी को सूखे ताल की प्रतीकात्मक संज्ञा देकर बड़े कोमल ढंग से स्त्री की सांप्रतिक आशंकाओं का काव्य वर्णन किया गया है।</div>
‘मछली’ शीर्षक पूर्वोक्त नवगीत की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--<br />
<br />
‘सूखे सर<br />
सब सूखे ताल<br />
कह री मछली<br />
क्या है <br />
हाल ?<br />
<br />
जल निर्मम है<br />
तू क्यों रोए<br />
तुझे छोड़ <br />
वह सबका होय<br />
<br />
तेरे सर पर <br />
सौ जंजाल<br />
कह री मछली <br />
क्या है हाल ?’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
यद्दपि आजकल स्त्री विमर्श में जिस तरह की भाषा का प्रयोग स्वयं स्त्री रचनाकारों द्वारा किया जा रहा है डा०रंजना गुप्ता की यह शिल्प मर्यादा हो सकता है अतिरेकवादी ओजस्वी और अराजक स्त्री विमर्श कारों को अधिक न रुचे, किंतु भारतीय काव्य भाषा की शालीनता का अनुरक्षण किए जाने की आवश्यकता इन दिनों प्रज्ञा सम्पन्न समीक्षकों द्वारा महसूस की जा रही है ,और डा० रंजना गुप्ता इस कसौटी पर सम्मानजनक अंक प्राप्त करने में समर्थ हैं ।</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
प्रसिद्ध मराठी स्त्री लेखन अध्येता विद्दुत भागवत ने उन्नीस सौ सड़सठ के बाद मराठी लेखिकाओं के लेखन को ‘प्रतिरोध का साहित्य’ कहा है और इस बात पर ज़ोर दिया है कि महिला रचना कारों ने अपनी रचनाओं में जिन चिंताओं और चुनौतियों का उल्लेख किया है उनका अध्ययन किया जाना चाहिए ।स्त्री लेखन में रचनाकारों ने स्त्रियोचित मानसिक और दैहिक आख्यान रचते हुए भी अपनी सामाजिक और धार्मिक जकड़नों से मुक्त होने की एक ही जैसी ललक नहीं दिखाई है ।स्त्री लेखन देह और मन का एक ऐसा तिलिस्म है जिसमें फँस कर स्त्री रचनाकार भी रह जाती है हिंदी में यह विमर्श उपन्यास और कहानियों में ज़्यादा मुखर हुआ है ,किंतु एक विशेष विचार प्रस्तुति के नियंत्रण में ।कविता विशेष रूप से नवगीत में यह अक्सर भावनात्मक अतृप्ति के रूप में सामने आता है। संग्रह के ‘जंगल’ शीर्षक से कुछ पंक्तियाँ उदधृत की जा रही हैं --</div>
<br />
‘जंगल जंगल घूम घूम कर<br />
बादल पानी माँग रहा है <br />
<br />
ठिठक गई है छोटी चिड़िया <br />
और हुआ आवाक् पपीहा <br />
मौसम ने चिठ्ठी बाँची है <br />
आने वाला कल गिद्धों का<br />
<br />
बीघा बीस तीस तक रेती<br />
हिरणी मन आकण्ठ भरा है’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
डा० रंजना गुप्ता का जीवन अनुभव महानगर के जद्दो जहद में रहने वाले एक आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत सुरक्षित किंतु सक्रिय दिनचर्या का प्रति फलन है, समग्रता में जीवन उनकी दृष्टि में तो है, किंतु हर समय अनुभव में नहीं, और यह अस्वाभाविक भी नहीं ।जीवन को समग्रता में देखने की ललक होनी चाहिए ताकि रचना में अपने अतिरिक्त दूसरों को भी स्थान दिया जा सके ।दूसरों को स्थान देने का मतलब दूसरों के अनुभव को जानकार शब्दाँकित करना है, न कि दूसरों के अनुभव को अपने अनुभव की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास ।इन दिनों इस तरह के लेखन प्रयासों की बाढ़ आ गई है ।इससे बचना ही श्रेयस्कर होगा ।रचना कार को शोषित पीड़ित जनों का पक्षधर होना चाहिए ।</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
किंतु ऐसा करने के लिए किसी छद्म का आश्रय नहीं लेना चाहिए रचना कार का यह नैतिक दायित्व है कि वह जीवन समाज व्यवस्था में पाई जाने वाली हर कुरूपता विद्रूपता और मानव द्रोही स्थितियों का इतने मर्म स्पर्शी ढंग से वर्णन करे कि पाठक के मन में पहले घृणा का ज्वार उठे और फिर यह ज्वार उसे आवश्यक और वांछित परिवर्तनों के लिए प्रेरित करे ।नवगीत में दूसरी विधाओं की तुलना में यह एक कठिन कार्य है और ज़्यादा कुशलता की माँग भी करता है ।नवगीत का कोई शास्त्रीय मानक अभी तय नहीं हुआ है पर यह एक जीवित और कार्यशील विधा है ।इसकी विधागत विशेषताओं का समेकन इसीलिए अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है ।इसीलिए किसी विशेष बाट बटखरे से न तो इसे तौला जा सकता है और न ही इसे किसी स्केल से नापा जा सकता है ।शायद यही कारण है कि डा०रंजना गुप्ता कभी कभी अपनी मुखरता छोड़ कर आत्मलाप में लगी दीखती हैं इस संग्रह के एक नवगीत’पलाश’ की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--</div>
<br />
‘धुएँ घुटन से <br />
भरे उजाले<br />
पड़े हुए साँसों के लाले <br />
देह कोठरी है<br />
काजल की<br />
बगुले जैसे मन भी काले<br />
लम्हा लम्हा <br />
जटिल ककहरा<br />
एक एक अक्षर पर अटकूँ’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
बाह्य स्थितियाँ जब असंतुष्टि और असहमति देतीं हैं और रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति को साफ़ साफ़ प्रस्तुत करने में किन्ही कारणों से संकोच महसूस कर रहा हो ,तो उसे इसी तरह एक एक अक्षर पर अटकना पड़ता है ।बहुत कुछ कहना है लेकिन कहने की अपनी मर्यादा है ऐसे में यह सापेक्षिक संकोच की स्थिति पैदा होती है ।जो कुछ महसूस होता है वह इसी स्थिति संकोच के चलते अस्पष्ट अमूर्त और असमंजस पूर्ण हो जाता है अपने प्रकटी करण में ।फिर घुमा फिरा के कहने की शैली का आश्रय लिया जाता है ताकि मर्यादा भी बनी रहे और जो कहने लायक़ है कहा भी जा सके ।’वर्ष’नवगीत की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य है --</div>
<br />
‘जनम जनम हम <br />
जिनको सहते<br />
स्वजन उन्हें ही <br />
कहते रहते <br />
लोग पराए रहे पराए <br />
पीर ह्रदय की <br />
किससे कहते ? <br />
<br />
सहमी सहमी सी <br />
भयभीता <br />
वन की हिरणी <br />
बनी है सीता’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
स्त्री विमर्श का यह जाना पहचाना किंतु अस्थायी अध्याय है ।बार बार स्त्रियाँ अपनी सामाजिक ,आर्थिक और वैयक्तिक चिंताओं से साहित्य को परिचित कराती रहीं किंतु साहित्य यहाँ अधिक प्रभाव शाली नहीं दीखता ।होता यह है कि स्त्री रचना कार अपनी नियति को अलग अलग कारणों से स्वीकार कर कभी अमृता प्रीतम बन जाती है तो कभी क़मला दास ।कुछ ज़्यादा स्पष्ट हुई तो मृदुला गर्ग या प्रभा खेतान बन जाती है ।जबकि ज़रूरत है कि स्त्री लेखिकाएँ तसलीमा नसरीन बनें ।और अपनी मुक्ति का युद्ध स्वयं लड़े ,शत्रु और समय की सारी साज़िशों का मुँह तोड़ जवाब देते हुए ।जैसी स्थितियाँ वर्तमान में हिंदी या यूँ कहें कि पूरे भारतीय साहित्य में बन रहीं हैं उनमें तो किसी भी तसलीमा नसरीन को निर्वासन और पलायन का हर क्षण आक्रमण झेलना ही पड़ेगा ।अधिकतर स्त्री लेखिकाएँ बेचारगी को अपना हथियार बनाती हैं ।डा०रंजना गुप्ता के इस संग्रह में एक गीत है ‘कंदील’।जिसमें स्त्री मन अपनी शक्ति हीनता के स्थान पर अपनी शक्तिमयता का परिचय दे रहा है --</div>
<br />
‘गढ़ लेती हैं परिभाषाएँ <br />
पढ़ लेती <br />
मन की भाषायें<br />
उन्मीलित दीप शिखा <br />
जल जल <br />
कीलित करती हर बाधाएँ <br />
<br />
दीपो भव <br />
‘अप्प’ भवो दीपो’<br />
हर पल हर पल <br />
निर्मल निर्मल’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
अपने आस पास की घटनाओं पर टिप्पणी करते डा०रंजना गुप्ता मिथकीय पदों की शरण में चली जाती हैं और दार्शनिक होने का प्रयास करती दीखती हैं ।अभिव्यक्ति का यह एक ऐसा क्षण होता है जब विचारों के आवेग में सब कुछ गडमड हो जाता है -शब्द संयोजन ,शिल्प अनुशासन ,यथार्थ की धुँधली प्रस्तुति सब एक साथ प्रस्तुत होने के लिए धक्का मुक्की करने लगते हैं ।संग्रह की एक रचना ‘आवर्तन’ इसका उचित उदाहरण है-अनुवीक्षण ,दर्शन,व्यवहार,विश्वास, लोकाचार और अंत में आस्था के प्रति प्रतिबद्ध समर्पण ।एक कुशल और कुछ अलग क़िस्म का नवगीत।पूरी रचना में कभी कभी एक तर्क से उपजी अनिश्चितता दिखाई पड़ती है ।जो कहना है वह कहना चाहिए कि नहीं का संकेत भले बहुत ही हल्का लेकिन मिलता है --</div>
<br />
‘आँखों देखा मिथ्या करती नास्तिकता <br />
लाचारी है लोक ह्रदय की अस्तिकता <br />
<br />
पल पल दृश्य मान सत्य का वह गर्जन<br />
<br />
जल समाधि में भी जीवित इतिहास रहा<br />
न्याय पृष्ठ पर थर्राता परिहास रहा <br />
<br />
धीमें धीमें गहन शोध का नव अर्चन <br />
<br />
क्यों उदास है राम सिया का ‘रामचरित’<br />
जन मन का सैलाब नमन कर रहा मुदित<br />
<br />
भावों के ही राम भाव का ही अर्पण ‘<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
रंजना गुप्ता के नवगीतों में शालीनता इतनी गाढ़ी है कि कभी कभी संवाद भी आत्मालाप लगते हैं लेकिन उमड़ती घुमड़ती बेचैनियाँ बाहर आ ही जाती हैं , और उनका स्पर्श पाठकों को भी बेचैन कर देता है ।संग्रह के’ आँसू’ ‘पीड़ा’’सिलवटें’’रूप’और ‘मछेरे’शीर्षक के नवगीत रचना कार के मानस के प्रवेश द्वार हैं ।पूरे संग्रह में कहीं भी भद्र लोक की निर्धारित मर्यादा का उल्लंघन नहीं हुआ है । यह एक बड़ी बात है।इन दिनों मुखर और अनुशासन हीन वार्ता शैली का लेखन में प्रचलन है ।कहा जाता है कि जो सामान्य जीवन में है वही लेखन में भी होना चाहिए। सरसरी तौर पर ऐसा सही लग सकता है किंतु लेखन सिर्फ़ संवादों और घटनाओं का शब्द चित्र ही है तो तो वह वांछित सांस्कृतिक़ता का त्याग कर देता हैऔर अपने बृहत्तर सामाजिक सरोकारों से मुँह चुरा कर आत्मकेंद्रित होने के लिए अभिशप्त हो जाता है।लेखन सामान्य अर्थ में एक शब्द रचना है किंतु इस रचना को सृजन बनने के लिए सांस्कृतिक होना पड़ेगा। हमें याद रखना चाहिए कि हममें जो है वह सभ्यता है और हममें जो होना चाहिए वह संस्कृति है ।साहित्य विशेष रूप से कविता और वर्तमान में नवगीत ,सभ्यता के इसी सांस्कृतिक होने की इच्छा है ।मोटे तौर पर नवगीत इसी स्थान पर आकर अन्य काव्य विधाओं से अलग हो जाता है ।’आँधी’नवगीत से कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--</div>
<br />
‘प्रतिमानों को गढ़ने वाले<br />
रणभूमि में ध्वस्त पड़े हैं<br />
नैतिकता के मानक सारे <br />
छल प्रपंच के साथ खड़े हैं--<br />
<br />
डूब गया दिन में ही सूरज <br />
अभिमन्यु का समर अभी है ‘<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
संस्कृति एक तरह से सभ्यता का अतृप्ति पर्व भी है ।सदा महसूस होता है कि जो है उसके अलावा भी कुछ होना चाहिए था जो नहीं है ।’यह जो नहीं है’ की ओर यात्रा ही एक सांस्कृतिक उपकृम है।साहित्य और कलाओं की जननी ।यह बात दूसरी है कि कौन कैसे यह यात्रा करता है..? रंजना गुप्ता की यह नवगीत यात्रा भी उसी ‘जो नहीं है’की खोज है और अपने चरित्र में पूरी तरह सांस्कृतिक ।यह’जो नहीं है’ इसका एक पथ यदि भविष्य से सम्बंधित है तो दूसरा पाठ भूतकाल से भी सम्बंधित है। ‘दीप देहरी’ नवगीत में यह भूतकालिक ’जो नहीं है’ उपस्थित हुआ है--</div>
<br />
‘ कुछ कमल विलग थे <br />
जल से और <br />
कुछ जल का भी मन टूट गया<br />
बदरंग समय की स्याही थी <br />
कुछ नाम पता भी छूट गया<br />
उन खुले अधखुले नयनों से <br />
अनजाने पावस झर आया ‘<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
समय की माँग है कि हर क़दम पूरी सावधानी के साथ फूँक फूँक कर रखा जाय नहीं तो कुछ भी अन्यथा घट सकता है ।चारो तरफ़ अविश्वास और अनिश्चय का जो फैलाव है उसमें कुछ भी असम्भव नहीं है ।बेलगाम दुर्घनाओं का समय है हमारा वर्तमान ।एक षड्यंत्र में सब लिप्त दिखते हैं ।’समय’शीर्षक नवगीत में रंजना गुप्ता ने समय के इस रूप को इस तरह से प्रस्तुत किया है---</div>
<br />
‘त्रासदी है<br />
वंचना के शस्त्र हैं <br />
परख पैमाने सभी <br />
के ध्वस्त हैं<br />
झूठ का तम <br />
घिर रहा घनघोर है’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
अनुवीक्षण का सातत्य कभी कभी परिचित वस्तुओं के अपरिचित गुणों का उदघाटन करता है ।और जो समझा जा रहा था उसको न समझने का मन होने लगता है एक साथ कई तरह की प्रतीतियाँ होने लगती हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना बहुत कठिन होता है ।संग्रह का एक गीत ‘कर्ण’इसकी गवाही देता है--</div>
<br />
‘छल भरे इस युद्ध में <br />
वह जी रहा संत्रास अपना <br />
बाँसुरी चुप है <br />
नहीं कुछ बोलती <br />
सुन रही है <br />
शंख की उद्घोषणा <br />
स्वर्ण रथ से सूर्य भी<br />
उतरा थका सा <br />
हार कर<br />
पाण्डुवंशी न्याय का <br />
ध्वज झुक गया है ‘<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
रंजना गुप्ता के नवगीत अपने आग्रहों में जितने आधुनिक हैं उतने उपकरण चयन में नहीं ।सम्वेदनात्मक आवेग और नये बिम्ब संधान से रचना में एक मौलिकता पैदा होती है और यदि प्रस्तुति के उपकरण अर्थात भाषिक मुद्राऐँ आधुनिक हों तो एक आकर्षक और संतृप्त करने वाली ताज़गी रचना में आती है ।यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि पुराने हथियार से नया युद्ध नहीं लड़ा जा सकता ।तेज़ी से डिजिटलाइज्ड होती दुनिया हमारी आत्मीयता को बड़ी तेज़ी से औपचारिकता में बदल रही है ।अब आभासी वास्तविक से ज़्यादा समर्थ और सक्रिय है जो कि दिख रहा होता है कभी कभी वह होता ही नहीं ।व्यक्ति बदल रहा है क्योंकि उसका मन बदल रहा है ।बदला व्यक्ति मन समाज की सामूहिकता को अजब आकार दे रहा है ।परिभाषित सम्बंध भी अपरिभाषेय होने लगे हैं ।ऐसे में शब्द की लय से ज़्यादा अर्थ की लय महत्वपूर्ण हो गई है ।इन सारी जटिलताओं का मतलब अपने सामाजिक दायित्वों से मुँह फेरना नहीं है भले स्थिति का निर्णयात्मक और निर्विवाद आकलन करना मुश्किल हो। समाज में रहते हुए हम तटस्थ और असंपृक़्त नहीं रह सकते ।सारी ऊहापोह को छोड़ कर जो समझ में आए वैसा हस्तक्षेप हमें सामाजिक क्रियाओं में करना चाहिए ।चाहे यह एक कटु टिप्पणी ही क्यों न हो ।यह एक असहज कर देने वाली स्थिति होती है ।’खिड़की’ शीर्षक नवगीत में इसी ऊहापोह और असहजता पर टिप्पणी की गई है --</div>
<br />
‘छाँव पर छेनी चलाती हैं <br />
हवाएँ <br />
कस रहीं है तंज <br />
शाख़ों पर दिशाएँ <br />
उड़ सके नन्हें परों से <br />
फिर गगन में <br />
क़ैद से इन तितलियों को <br />
छोड़ देते ‘<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
स्पष्ट है कि रचना कार तितलियों के क़ैद में होने से व्यथित है और अफ़सोस व्यक्त कर रहा है कि काश उन्हें छोड़ दिया जाता ।पूरे संग्रह में आम आदमी की जीवन चर्या से जुड़े अनेक विषयों जैसे-राजनीति ,सामाजिक संक्रमण,रोज़गार,ग़रीबी,असमानता पर नवगीत हैं। यह संग्रह आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के द्वन्द की परिणिति होने का परिचय देता है।</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
सारे युग बोध के बाद भी रूमान सदा से एक काव्य मूल्य रहा है और रहेगा क्योंकि यदि रुमान न होता तो कोई कविता सम्भव ही नहीं थी ।जीवन के हर क्रिया बोध का निस्पंद सिर्फ़ और सिर्फ़ रुमान है ।कुछ लोग जीवन की साम्प्रतिक़ता को जिसे वे यथार्थ कहते हैं रुमान से अलग मानते हैं जबकि जीवन में जो कुछ भी हो रहा है उसका संचालन तत्व रुमान ही है ।डा० रंजना गुप्ता भी यथार्थ की तपती धूप में चल रही गर्म हवा में नमी की तरह अपने प्रेम राग का गायन करती हैं ।संग्रह के ‘स्त्री’ शीर्षक गीत में उनके मनोभाव कुछ इस तरह से व्यक्त हुए हैं--</div>
<br />
‘तुम पुरुष नहीं हो सकते <br />
मेरे स्त्री हुए बिना<br />
……………………<br />
गर्म रेत पर चली <br />
स्त्री सदियों से <br />
चुप चाप गुज़रती रही <br />
अंधेरी गलियों से <br />
तुम धूप नहीं हो सकते <br />
मेरे छाया हुए बिना…’<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
इन पंक्तियों को प्रेम का स्त्री पक्ष कहा जा सकता है।किंतु इससे प्रेम के स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य होने की पुष्टि भी होती है ।संग्रह में अनेक गीत जैसे ‘बसंती राग’ ‘रतजगे’’बसंत’’फागुन’ और ‘प्यार तुम्हारा’ आदि इस बात को स्थापित करते हैं कि कितनी ही विषम और जटिल परिस्थिति क्यों न हो रुमान का पौधा कभी नहीं सूख सकता । </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संग्रह की भूमिका में प्रसिद्ध नवगीत कार मधुकर अस्थाना रंजना गुप्ता के नवगीतों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि ‘’ अनुभूतियों में संवेदनात्मक ताज़गी ,मौलिकता और बहुश्रुत प्रतीकों के माध्यम से कथ्य का संप्रेषण उन्हें प्रथम संग्रह से ही महत्व पूर्ण बनाने में सफल है ।रागात्मक अंत:चेतना से उपजी यथार्थ मार्मिकता करुणा का विस्तार करती है ।उनकी रचनाओं में वायलिन का दर्द भरा सुर है या प्रिय को टेरती वंशी की धुन है जिसे हम समझ तो नहीं पाते पर मन के भीतर एक टीस जगा देती है कुछ अनबूझी ,अनजानी सी।’’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कोमल कमनीय शब्दों वाले इस गीत संग्रह की अर्थ व्याप्ति कहीं कहीं इतनी खुरदरी है कि पाठक के मर्म को स्पर्श ही नही करती बल्कि उसे छील देती है ।बिना क्रुद्ध हुए शालीन और सौम्य मुद्राओं वाले इन नवगीतों के सृजन के लिए डा०रंजना गुप्ता की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।आशा है यह संग्रह सिर्फ़ नवगीत संग्रह के रूप में ही नहीं बल्कि नवगीत के प्रांजल ,शालीन स्त्री हस्तक्षेप के लिए भी उचित सत्कार प्राप्त करेगा ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
- गणेश गंभीर का आलेख</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-6864421239739062812018-10-14T18:45:00.000+04:002018-10-14T18:47:35.734+04:00समय है संभावना का - जगदीश पंकज / राजेन्द्र वर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3a3LBM-j7rrDL1HU9JuTIygQFJR_Zou59LWe9xYLq8pDTCFGEgpX0-qSexybUQK6hRW4qW62v4sB2z8nWIvDHF5DLAYVP5YUZoNruRZx7DWKf8lTzgEC5yaPMcKUWtjYWWjdQUdTz1w4/s1600/samayhai.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="328" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3a3LBM-j7rrDL1HU9JuTIygQFJR_Zou59LWe9xYLq8pDTCFGEgpX0-qSexybUQK6hRW4qW62v4sB2z8nWIvDHF5DLAYVP5YUZoNruRZx7DWKf8lTzgEC5yaPMcKUWtjYWWjdQUdTz1w4/s320/samayhai.jpg" width="210" /></a></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">आज नवगीत अथवा किसी भी विधा में सामयिक यथार्थ से कटी हुई रचना का कोई महत्त्व नहीं। वायवीय और अमूर्तन से पृथक् यथार्थ के धरातल पर सर्जना और संवेदना की रक्षा का ध्येय ही वास्तविक रचनाधर्मिता है। इस दृष्टि से नवगीत का सरोकार स्पष्ट है और वह अपनी भूमिका सजगता से निभा रहा है। कहना न होगा, आज कितने ही नवगीतकार समय से मुठभेड़ करने में लगे हैं और उनके संग्रहों से हिन्दी काव्य समृद्ध हो रहा है, यद्यपि साहित्य की मुख्य धारा में अभी उसका आकलन शेष है । ऐसे में श्री जगदीश पंकज के नवीनतम संग्रह, समय है सम्भावना का, का आना सुखद है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">समीक्ष्य संग्रह में उनके 69 नवगीत हैं जिनमें सत्ता के छल-छद्म के विविध चित्र खींचे गये हैं। ये चित्र जिस तथ्य को सामने लाते हैं, वे हमारे जाने-पहचाने हैं, लेकिन उनके चित्रण का अन्दाज़ जुदा है। कहीं उनकी अभिव्यक्ति मारक है, तो कहीं आम आदमी को सान्त्वना देने वाली है। इन नवगीतों में तमाम विद्रूपताओं, विडम्बनाओं और हतप्रभ करने वाली स्थितियों पर विजय पाने की ललक बसती है। कवि की दृष्टि अनुभवसम्पन्न है। इससे पूर्व उसके दो नवगीत-संग्रह, सुनो मुझे भी और निषिद्धों की गली का नागरिक प्रकाशित और समादृत हो चुके हैं।...नवगीतकार का मानना है कि आज विरुद्धों के समन्वय का समय है। सृजन की संभावना के वर्तमान दौर में उसने युगीन यथार्थ को स्वर देने के साथ-साथ समय पर प्रतिक्रियास्वरूप अनुभूति के संवेदन को अभिलेखित किया है।... संग्रह से गुजरने पर उसके इस कथन की पुष्टि होती है। साथ-ही, यह सन्तोषप्रद लगता है कि जीवनमूल्यों के निरन्तर क्षरण होते जाने के बावजूद नवगीतकार निराशा के सागर में नहीं डूबता; वह अपने उस संकल्प को विविध रूपों में दुहराता है जो जीवन की उदात्तता को स्थापित करते हैं। इस प्रक्रिया में कवि रचनाधर्मिता को नये-नये आयाम देता है। हिन्दी कविता के जो आलोचक नवगीत कविता पर यह आरोप लगा उसे ख़ारिज कर देते हैं कि गीत वर्तमान यथार्थ की जटिलता खोलने में अक्षम है, उनके लिए यह संग्रह चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता वाले हमारे समाज के सामने आज साझी विरासत और वैचारिक स्वतंत्रता पर जो संकट मंडरा रहा है, वह इससे पहले नहीं था, यद्यपि आम आदमी के सामने आर्थिक अभाव और उसके जीवन को दुश्वार करने वाली तमाम बातें मौज़ूद थीं। तब ग़रीब आदमी आपस में मिल-बैठकर कुछ रास्ते निकाला करते थे, जिन्हें निकालने का काम सत्ता-व्यवस्था का था, पर इस प्रक्रिया में धर्म-संस्कृति आड़े नहीं आती थी। आज सामाजिक सद्भाव को जैसे हाईजैक कर लिया गया हो और सहिष्णुता को आहत कर अस्मिता के टकराव की स्थितियाँ उत्पन्न कर दी गयी हैं। सहअस्तित्त्व की अवधारणा ही ख़तरे में है। आश्चर्य की बात यह है कि यह कारनामा सत्ताविरोधी शक्तियों द्वारा नहीं किया गया, बल्कि स्वयं सत्ता द्वारा किया जा रहा है। आर्थिक खाई बढाने के साथ-साथ दुनिया को बाज़ार में बदलने को आतुर पूँजी द्वारा पोषित सत्ता की यह रणनीति अभावग्रस्तता बढ़ा ही रही है, सामाजिक विघटन भी उत्पन्न कर रही है और परिणाम यह है कि लोग भारतीय होने के बजाय छद्म धार्मिक नागरिक हो रहे हैं।... नवगीतकार ने सत्ता के इस षड्यन्त्रकारी चरित्र को संग्रह के अनेक नवगीतों में विविधवर्णी बिम्बों में पूरी मार्मिकता से बार-बार उद्घाटित किया है—</div><div style="text-align: justify;">हर पुरानी बाँसुरी में फूँक मारो/फिर सजाओ झूठ का नक्कारखाना/</div><div style="text-align: justify;">किन्तु तूती की नहीं आवाज़ आये/इस तरह होता रहे/गाना बजाना । (अब सदन में अट्टहासों को सजाओ, पृ. 19)</div><div style="text-align: justify;">xx xx </div><div style="text-align: justify;">चुभ रहा है सत्य जिनकी हर नज़र को/वे उडाना चाहते हैं/आँधियों से/</div><div style="text-align: justify;">या कोई निर्जीव सुविधा/फेंक मुझको/बाँध देना चाहते हैं संधियों से। (थपथपाये हैं हवा ने, पृ. 26)</div><div style="text-align: justify;">xx xx </div><div style="text-align: justify;">जल रहे जनतंत्र की/ज्वाला प्रबल हो/किस अराजक मोड़ पर ठहरी हुई है/</div><div style="text-align: justify;">और आदमक़द हुए षड्यन्त्र बढ़कर/छल-प्रपंचों की पहुँच गहरी हुई है। (आ गया अन्धी सुरंगों से, पृ. 27)</div><div style="text-align: justify;">xx xx </div><div style="text-align: justify;">स्वप्नधर्मा रौशनी/फेंकी गयी यों/हर दिवस की आँख/चुँधियाने लगी है/</div><div style="text-align: justify;">धनकुबेरों की सबल वित्तीय पूँजी/लाभधर्मा मन्त्र/दुहराने लगी है। (ओस बूँदों में चमकता, पृ. 32)</div><div style="text-align: justify;">xx xx </div><div style="text-align: justify;">आजकल सन्देह/हर विश्वास के आगे खड़ा है/ </div><div style="text-align: justify;">और दैनिक व्यस्तता का नाप/दिन से भी बड़ा है/</div><div style="text-align: justify;">हर व्यथित उत्साह पर अवसाद की होती विजय है/ </div><div style="text-align: justify;">लग रहा सौजन्य भी संदिग्ध/यह कैसा समय है! (लग रहा सौजन्य भी संदिग्ध, पृ. 113)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">किसान, मजदूर, सफाईकर्मी आदि आम आदमी जनतन्त्र के नायक हैं, लेकिन आज उन्हें हाशिये पर भी स्थान नहीं मिल रहा। सत्ता के ठेकेदारों ने केवल वोटों की ख़ातिर सदियों से उनका दोहन किया है। नवगीतकार ने आने कवि-धर्म को पहचाना है और इस दोहन के विरुद्ध खड़े होकर उसके दुख-दर्द को बड़ी ही मार्मिकता के साथ वह वाणी दी है जो पाठक को तिलमिला देती है—</div><div style="text-align: justify;">दोपहर की/चिलचिलाती धूप में जो/खेत-क्यारी में/निराई कर रहा है/</div><div style="text-align: justify;">खोदता है घास-चारा/मेड़ पर से/बाँध गट्ठर ठोस/सिर पर धर रहा है/</div><div style="text-align: justify;">है वही नायक/समर्पित चेतना का/मैं उसी को गा रहा/उद्घोष में भी । </div><div style="text-align: justify;">जो रुके सीवर/लगा है खोलने में/तुम जहाँ पर/गन्ध से ही काँपते हो/</div><div style="text-align: justify;">दूरियों को नापकर/चढ़ता शिखर पर/तुम जहाँ दो पाँव/चलकर हाँफते हो/</div><div style="text-align: justify;">मैं उसी की/मौन भाषा बोलता हूँ/प्राणपण से/दनदनाते रोष में भी । (ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी, पृ. 23)</div><div style="text-align: justify;">अथवा, </div><div style="text-align: justify;">गुलमुहर के गीत ही गाते रहे/दूब को हर बार ठुकराते रहे।</div><div style="text-align: justify;">वे सजाने में लगे/फुलवारियाँ/हम बचाने में लगे किलकारियाँ/</div><div style="text-align: justify;">आदमियत को बचाने के लिए/डाँट हम हर ओर से खाते रहे।</div><div style="text-align: justify;">बस महावर और मेंहदी ही लिखे/पाँव के छाले नही/जिनको दिखे/</div><div style="text-align: justify;">रोपती जो धान गीले खेत में/वह मजूरिन देख ललचाते रहे। (गुलमुहर के गीत ही गाते रहे, पृ. 31)</div><div style="text-align: justify;">या फिर,</div><div style="text-align: justify;">जहाँ खड़े थे, तुमने आकर/पीछे और धकेल दिया है/</div><div style="text-align: justify;">तुमको अभिनन्दित करने के/क्या हमने अपराध किया है?</div><div style="text-align: justify;">चाटुकार ही पास तुम्हारे/खड़े हुए सहयोगी बनकर। (झुकी कमर टूटे कन्धों से, पृ. 77)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है, लेकिन आज सत्ता की अराजकता का सबसे बड़ा कारण यही है कि प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने वाला कोई नहीं है : न कोई व्यक्ति, न पार्टी और न ही मीडिया। जो थे, उन्हें विविध प्रलोभनों से सत्ता अपनी ओर मिला रही है। विपक्षविहीन लोकतन्त्र और धृतराष्ट्र के शासन में कुछ अन्तर नहीं। सत्ता अपनी निरंकुशता को लोकतन्त्र की परिधि में लाने को नित नयी रणनीति अपना रही है। नवगीतकार ऐसे में यथास्थिति के विरुद्ध प्रतिपक्ष की भूमिका में उतरता है—</div><div style="text-align: justify;">कल तलक था धुर विरोधीपन/अब समर्थन में गरजते हैं।</div><div style="text-align: justify;">जब असंगत मेह की बूँदें/हैं बरसतीं/ले विषैला जल/</div><div style="text-align: justify;">अम्लता की पोटली खोले/आँगनों में फेंकती हलचल/</div><div style="text-align: justify;">अब नज़र मिलती नहीं उनकी/मंच पर ही रोज़ सजते हैं। (कल तलक था धुर विरोधीपन, पृ. 46)</div><div style="text-align: justify;">अथवा,</div><div style="text-align: justify;">बिका मीडिया फेंक रहा है/मालिक की मंशा परदे पर/</div><div style="text-align: justify;">और साथ में बेच रहा है/बाबाओं के भी आडम्बर/</div><div style="text-align: justify;">अगर नहीं सो रहे उठो अब/अपने मुँह पर छींटे मारो। (जल्दी से आलस्य उतारो, पृ. 86)</div><div style="text-align: justify;">या फिर,</div><div style="text-align: justify;">घोषणा है, बन्द कर दो/सब झरोखे-द्वार-खिड़की/</div><div style="text-align: justify;">रौशनी की किरण तक भी/आ न पाये इस भवन में । (घोषणा है बन्द कर दो, पृ. 52)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जैसा कि संग्रह का शीर्षक है, नवगीतकार अनेक गीतों में यथार्थ के आकलन के साथ-साथ उदात्तता की कामना करता है। वह अरण्यरोदन-भर नहीं करता, विकल्प तलाशता है और आत्मशोधन से आत्मविश्वास को और प्रबल करता है। वह कबीर और रैदास के अवदान को रेखांकित कर उनकी परंपरा को आगे बढाने की बात करता है और आधुनिक सन्तों, जिन्हें सीकरी से ही काम है, की जमकर ख़बर लेता है। वह बुद्ध के दर्शन में रमने का भी आह्वान करता है, तो अध्यात्म-दर्शन को सकारात्मकता से जोड़ते हुए ठगी और पाखण्ड का विरोध दर्ज़ करता है।... रचना के पड़ावों पर उसने अनेक बार संतुलित सोच और समन्वय की संभावनाओं की तलाश की है और यह कामना की है कि कुछ ऐसा किया जाए कि भीड़ का हिस्सा बन चुके रोबो जैसे हम प्रेम और संवेदना से भरे जीवन को मानवीय गरिमा के साथ जी सके—</div><div style="text-align: justify;">प्रेम की, सौहार्द की/सच्चाइयों को शब्द देकर/जागती जीती रहें/सब कारुणिक संवेदनाएँ/</div><div style="text-align: justify;">प्राणमय विस्तार हो/हर रोम में अनुभूतियों का/शान्त मन सद्भावना/संचेतना के गीत गाएँ/</div><div style="text-align: justify;">आइए, अभियन्त्रणाओं का समय है/हर्षमय संगीत हो/उत्कर्ष पर अब। (समय है सम्भावना का, पृ. 50)</div><div style="text-align: justify;">अथवा, </div><div style="text-align: justify;">अनसुनी ही लौट आयी/चीख मेरी, पास मेरे/भीड़ में से भी गुज़रकर/हादसों के इस शहर में ।</div><div style="text-align: justify;">xx xx xx </div><div style="text-align: justify;">हो सके तो अब उठें/समवेत स्वर ले जूझने को/मानवी विश्वास की गरिमा/न डूबे अब ज़हर में।</div><div style="text-align: justify;">(अनसुनी ही लौट आयी, पृ. 82)</div><div style="text-align: justify;">अथवा, </div><div style="text-align: justify;">कुछ उठे यह धरा/कुछ झुके यह गगन/</div><div style="text-align: justify;">मन मगन रागिनी गुनगुनाता रहे/भोर से भोर तक गीत गाता रहे। (कुछ उठे यह धरा, पृ. 67) और,</div><div style="text-align: justify;">चलो हम भीड़ में खोजे/कहीं थोडा अकेलापन/</div><div style="text-align: justify;">मिलन के मुक्त पल लेकर/मयूरा मन करे नर्तन/</div><div style="text-align: justify;">किसी मादक छूअन की/गन्ध-सी महके हवाओं में/</div><div style="text-align: justify;">दिशाओं में क्षितिज तक/प्राण का होता रहे कम्पन। (नदी के द्वीप पर ठहरा, पृ. 68)</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति की आकर्षक शैली, बोलचाल और तत्सम शब्दों से सज्जित भावानुरूप भाषा और विभिन्न छन्दों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा करते हुए अपने लक्ष्य में पूर्णतया सफल हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर रचनाकार ने शिल्प और वस्तु में सामंजस्य बिठाकर यथार्थ को अधिकांशतः प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। रचनाकार ने नवगीतों की भाषा में अपेक्षित लय के लिए गद्य कविता की लय-प्रविधि को अपनाते हुए पंक्तियों में यथावश्यक यति देकर अभिव्यक्ति को पैना किया है, जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि आजकल ऐसे नवगीतों की भरमार है जो सपाटबयानी का शिकार हैं और वे पाठक के मर्म को छू भी नहीं पाते, उन पर घटित होने की बात ही क्या! ऐसे में समीक्ष्य संग्रह अपनी पैनी अभिव्यक्ति और विकल्प की तलाश करती उद्भावना से विश्वास जगाता है कि लोकचेतना से लैस नवगीत अपनी भूमिका में किसी सजग प्रहरी की भाँति डटा हुआ है।... आज के युग के सत्य-तथ्य में हस्तक्षेप करते इस नवगीत संग्रह का हिन्दी संसार द्वारा अवश्य ही स्वागत होगा ।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-31104869062767545192015-10-26T09:51:00.000+04:002016-02-09T09:58:33.967+04:00नींद कागज की तरह- यश मालवीय / निर्मल शुक्ल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoakOUtLP2klW-G9sjEoAY8BpOuMMuQn0AkiLS0-9HY3JGIy8ZL0cDQYgMZ-Nd90LvAfEZ_PPMshwt_2wE7mzLXh1doM9neJ1uCqt3IJq2L2fLbet4Uto5yhmlN2_vHmchC9gFtiYIhQ7d/s1600/1-neend-kagaz-ki-tarah.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; display: inline !important; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoakOUtLP2klW-G9sjEoAY8BpOuMMuQn0AkiLS0-9HY3JGIy8ZL0cDQYgMZ-Nd90LvAfEZ_PPMshwt_2wE7mzLXh1doM9neJ1uCqt3IJq2L2fLbet4Uto5yhmlN2_vHmchC9gFtiYIhQ7d/s320/1-neend-kagaz-ki-tarah.jpg" width="208" /></a><br />
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भाषा की सुदृढ़ सम्प्रेषण भूमि पर बौद्धिक संवेदनशीलता से तरल आकार प्रदान करने वाले समर्थ गीतकार यश मालवीय आज के साहित्यिक परिदृष्य में लोकानुभूति के सधे संवाहक हैं।</div>
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यश मालवीय नवगीतयुग की प्रारम्भिक कड़ियों में विशिश्ट कहे जाने वाले कवि उमाकान्त मालवीय के सुपुत्र हैं। इन्हें विरासत में गीत का युगबोध प्राप्त हुआ है। अपने पिता से वाहिक रूप में प्राप्त हुई संवेदनशीलता एवं प्रयोगधर्मी बहुआयामी सर्जनाशक्ति उन्हीं की तरह इन्हें भी अपनी पहचान बनाने में सहायक रही है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मैं समझता हूँ कि यश मालवीय एक संधिकाल के कवि हैं। वरिष्ठ कवियों की लम्बी फेहरिस्त के बाद नवगीत में नई पौध के आगमन के पहले के कवि कहे जा सकते हैं। नवगीत के इतिहास में जहाँ पहली कड़ी समाप्त होती है और दूसरी कड़ी प्रारम्भ होती है, वहीं पर इस महत्वपूर्ण विलक्षण गीतकार को रखा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। समकालीन परिदृष्य में यश मालवीय के सृजन में विमुक्त का स्पष्ट चिंतन है। यही कारण है कि पाठकों द्वारा सहज स्वीकार किये जाते हैं।</div>
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<br /></div>
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गीत के प्रति चिंतनशील मस्तिष्क निरंतर अंतश्चेतना में नए विम्ब, नई प्रतीक योजना में व्यस्त दिखता है। यश मालवीय अपने नवीनतम गीत-संग्रह ‘नींद कागज की तरह’ के द्वारा वस्तुगत एवं शिल्पगत दोनों दृष्टियों को परिवर्तन की रचनाधर्मिता की नैनो तकनीक का दर्शन कराते हुए कहता है कि-</div>
<div style="text-align: justify;">
नवगीत के कविबोध और समग्रता में गीत के संसार के विस्तार ने समकालीन कविता के बरअक्स हिन्दी नवगीत को पूरे घत्व के साथ सम्भव बनाया है। जिस तरह ग़ज़ल महबूबा की जुल्फों के पेंचोखम से मुक्त हुई है, गीत भी छायावाद की विशाल छाया से बाहर आया है। उसके कथ्य का आसमान और अधिक विस्तृत हुआ है। शिल्प के स्तर पर भी उसने नई जमीनें तोड़ी हैं। व्यष्टि से समष्टि की ओर प्रयाण किया है। आम आदमी के दुखदर्द से बावस्ता हुआ है। आज का युगबोध खुरदुरी मगर र्प्याप्त अर्थभरी भंगिमाएँ और तेवर लेकर उसकी मारक एवं चुटीली भावाभिव्यक्ति में शामिल हुआ है। वह सामान्य आदमी की बोली-बानी में उजागर हुआ है। उसने संवाद की मुद्रा अपनाई है। केवल किताबी भर रह जाने से उसने गुरेज किया है। जरूरत पड़ी तो उसने अंग्रेजी, अरबी, फारसी और उर्दू का निस्संकोच इस्तेमाल कर अपनी हिन्दी को और अर्थवान बनाया है। लोकभाष और देशज शब्दों को पूरी सलाहियत के साथ बरता है। इसे बरतने में या सर्जनात्मक बर्ताव में कहीं भी उसकी लय खण्डित नहीं हुई है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रस्तुत संग्रह के गीतों की सृजन प्रक्रिया से गुजरते हुए कवि और कविता को पृथक-पृथक रखा जाना सम्भव नहीं। संवेदना, अनुभूति हॅंसते-मुस्कराते, कभी अवसाद पूर्ण भावभंगिमाओं में तो कहीं साधारण मुद्रा में वार्तालाप करती प्रतीत होती है। उनके गीतों के बीच से चलकर एक आश्वस्ति होती है। अपनी तमाम यथार्थबोधी चेतना के बीच ये गीत नवीन से अनुप्राणित हैं। समाज को उबारने के लिए दर्पण दिखाते हुए उनकी चेतना और प्रेरणा प्रतिबिम्बित करते हैं। समाज की गन्तव्यहीन यात्रा में समाधान हेतु प्रेरक संकेतों में यश मालवीय की रचनायें आधुनिक जीवन की हिमायती और पक्षधर हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आज के उलझे हुए जीवन की तरह उसमें उलझाव भी है और युगीन जटिल सन्दर्भों को सहज रूप से व्यक्त करते हुए इन्हें पूरी पठनीयता और सम्पेषणीयता के साथ प्रस्तुत किया गया है-</div>
<div style="text-align: justify;">
चलो डुबोकर बिस्कुट थोड़ी चाय पियें</div>
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खिली धूप में बैठें दो पल साथ जियें</div>
<div style="text-align: justify;">
बादल वाले गीत दरमियाँ खोलें भी</div>
<div style="text-align: justify;">
तहे हुए किस्से कहानियाँ खोलें भी</div>
<div style="text-align: justify;">
बातों की तुरपन खोलें</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ बुनें सियें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हमें पता है कुआँ </div>
<div style="text-align: justify;">
कहाँ कब खाई है</div>
<div style="text-align: justify;">
लिखते जाना भी तो एक लड़ाई है</div>
<div style="text-align: justify;">
सब कुछ मिलता सम्वेदन के घर जाकर</div>
<div style="text-align: justify;">
शब्द बता देते हैं धीरे से आकर</div>
<div style="text-align: justify;">
ढाल कहाँ है</div>
<div style="text-align: justify;">
कैसी कहाँ चढ़ाई है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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यश मालीवय कृत नवीनतम गीत संग्रह ‘नींद कागज की तरह’ में उन्होंने अपने ६५ गीतों को सुरूचिपूर्ण ढंग से संकलित किया है। इस कृति का आभ्यांतर ‘नींद कागज की तरह’-नींद एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से आज के समय में जीवनमूल्यों के क्षरण को समझाते हुए, उस पर चिन्तित होते हुए संवेदनशील होकर उसका प्रतिबिम्ब दिखाया गया है। एक चिन्तनशील मस्तिष्क पाठक को कवि की मनःप्रतीति से दो चार कराते देखा जा सकता है। यही कवि का रचना संसार है, जो गीतों की प्रभावशक्ति की बहुत बड़ी सफलता है, देखें-</div>
<div style="text-align: justify;">
याद आए नींद में ही काम कितने</div>
<div style="text-align: justify;">
मुँह चिढ़ाने लगे टूटे हुए सपने</div>
<div style="text-align: justify;">
हर सुबह जैसे लगे</div>
<div style="text-align: justify;">
ऊॅंची पहाड़ी</div>
<div style="text-align: justify;">
बहुत नीली, बहुत गहरी</div>
<div style="text-align: justify;">
बहुत गाढ़ी</div>
<div style="text-align: justify;">
नींद कागज की तरह सौ बार फाड़ी </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसी क्रम में, आज जीवन की आपधापी में मॅंहगाई का स्वर, लाचारी का ज्वर, कठिन समय में जीवन की विकृतियों का कठोर सच बोल रहा है-</div>
<div style="text-align: justify;">
चिढ़ा रहा मुँह चावल, साधो!</div>
<div style="text-align: justify;">
अरहर आँख दिखाए</div>
<div style="text-align: justify;">
हमें ले रहे अपनी जद में</div>
<div style="text-align: justify;">
महँगाई के साए</div>
<div style="text-align: justify;">
हर अनुपात शर्म सा </div>
<div style="text-align: justify;">
चुभता है तुतली बानी में</div>
<div style="text-align: justify;">
है सिमेण्ट बालू सा रिश्ता </div>
<div style="text-align: justify;">
दूध और पानी में</div>
<div style="text-align: justify;">
रोता है भविष्य बच्चे सा</div>
<div style="text-align: justify;">
भूखा ही सो जाए</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
चूल्हे चढ़ी पतीली खुलकर</div>
<div style="text-align: justify;">
फूट फूट कर रोई</div>
<div style="text-align: justify;">
महँगी गैस रसोई साधो!</div>
<div style="text-align: justify;">
कठिन जिंदगी, गीला आटा</div>
<div style="text-align: justify;">
गुम रोटी के सपने</div>
<div style="text-align: justify;">
एक व्यवस्था आत्मघात की</div>
<div style="text-align: justify;">
मन में लगी पनपने</div>
<div style="text-align: justify;">
घर आई लक्ष्मी ने</div>
<div style="text-align: justify;">
आँसू की माला पोई </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस विषम स्थिति में चिंता और क्षोभ व्यक्त हुआ है, देखें-</div>
<div style="text-align: justify;">
थहा न पाती भूख</div>
<div style="text-align: justify;">
कि पत्थर हुई फूल की थाली</div>
<div style="text-align: justify;">
खाने को बस बची रह गई</div>
<div style="text-align: justify;">
माँ बहनों की गाली</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
होली दीवाली भी घर में</div>
<div style="text-align: justify;">
सेंध लगाने आए</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
घने पेड़ की छाया भी है</div>
<div style="text-align: justify;">
काँटेदार, कॅंटीली</div>
<div style="text-align: justify;">
उसका क्या जो मुखिया की है</div>
<div style="text-align: justify;">
आँखें गीली-गीली</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गीला सा आटा परात में</div>
<div style="text-align: justify;">
सौ सौ नाच नचाए</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
घर बाहर भी इससे अधिक मार्मिक अभिव्यक्ति क्या होगी। मूल्यों के क्षरण के वास्तविक रूप का चित्रांकन है यह प्रकल्पना। इतना ही नहीं कृति में कवि के अंतरंग स्निग्ध चित्र भी मिलेंगे-</div>
<div style="text-align: justify;">
भरी बरसात में भी</div>
<div style="text-align: justify;">
दिल दहकते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हारे साथ </div>
<div style="text-align: justify;">
काँटे भी महकते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हारी रोशनी हो</div>
<div style="text-align: justify;">
तो अॅंधेरा क्या</div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हारे सामने</div>
<div style="text-align: justify;">
खिलता सवेरा क्या</div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हारे गीत पर</div>
<div style="text-align: justify;">
प्याले बहकते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कवि एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज के सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक संवेदनशील है। अपने इसी स्वभाव के कारण वह सामाजिक, सांस्कृतिक जीवनमूल्यों का साक्षात करता है। आगे बढ़कर वह पाठकवृन्द अथवा सुधी समाज को एक दिशा देने का सद्प्रयास करता है। इसी में उसकी रचनाधर्मिता का प्रयोजन, उद्देष्य और नैतिक बोध स्पष्ट होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यश का कवि घर, समाज में रहकर मात्र भोक्ता बन कर नहीं अपितु औचित्य स्थापन के प्रति पग बढ़ाते हुए अपना साहित्यकार धर्म का निर्वाह करता है। इसी परिप्रेक्ष्य में अथवा यों कहें भावभूमि पर कवि की कलम चली है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यही सुसंस्कार यश मालवीय की गीत रचनाओं में मिलते रहे हैं। वे सुख के साथ-साथ दुखों पर अपनी सम्वेदना दर्शाते हुए कहते हैं-</div>
<div style="text-align: justify;">
सिर्फ सुखों का नहीं</div>
<div style="text-align: justify;">
दुखों का भी अपना घनत्व होता है</div>
<div style="text-align: justify;">
हाहाकर भले कैसा हो</div>
<div style="text-align: justify;">
मन में सन्नाटे बोता है</div>
<div style="text-align: justify;">
दुख की भी गरिमा होती है</div>
<div style="text-align: justify;">
आँसू होते हैं चमकीले</div>
<div style="text-align: justify;">
बहुत पास से छू लेते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
आकर बादल गीले गीले</div>
<div style="text-align: justify;">
जान न पातीं दीवारें भी</div>
<div style="text-align: justify;">
कब कोई कितना रोता है</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जीवन की विसंगतियों के साथ-साथ प्रकृति, मौसम आदि भी कवि के अंतरंग को छूते हैं। शीत का मौसम-</div>
<div style="text-align: justify;">
भूली बिसरी चोट दुखाने</div>
<div style="text-align: justify;">
मौसम बदला है</div>
<div style="text-align: justify;">
भारी बक्से से, सर्दी का</div>
<div style="text-align: justify;">
कपड़ा निकला है</div>
<div style="text-align: justify;">
देह हमारी और पिता की</div>
<div style="text-align: justify;">
सदरी बोल रही</div>
<div style="text-align: justify;">
नेप्थलीन वाली यादों की</div>
<div style="text-align: justify;">
खुश्बू डोल रही</div>
<div style="text-align: justify;">
माँ का शाल, लक्ष्मी के</div>
<div style="text-align: justify;">
काँधे पर फिसला है</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक बिम्ब और-</div>
<div style="text-align: justify;">
ढीठ सर्दी को जरा सा मुँह चिढ़ाने</div>
<div style="text-align: justify;">
धूप में बैठें</div>
<div style="text-align: justify;">
चलो दाढ़ी बनाएँ</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बसन्त का चित्र भी-</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर बसन्त आने को है</div>
<div style="text-align: justify;">
सूनापन गाने को है</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
या फिर-</div>
<div style="text-align: justify;">
भूली बिसरी चोट दुखाने</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर बसन्त आया</div>
<div style="text-align: justify;">
घाव लगाने, घाव सुखाने</div>
<div style="text-align: justify;">
फिर बसन्त आया</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यश मालवीय आशावादी किन्तु विद्रोही हैं। नैराश्य को सिर्फ जाना ही नहीं भोग भी लिया है, क्योंकि जीवन सुन्दर-असुन्दर, गुण-दोष, सुख-दुख, अच्छे-बुरे का समावेश है, किन्तु जीवन की सार्थकता इसी बात पर निहित है कि इस मायाजाल में जीकर भी इंसान दिल से ढूँढ सके-</div>
<div style="text-align: justify;">
अनबीती सी तिथियाँ होने दो</div>
<div style="text-align: justify;">
चोटों को स्मृतियाँ होने दो</div>
<div style="text-align: justify;">
जख्म याद बन जायेंगे</div>
<div style="text-align: justify;">
तो नहीं पिरायेंगे</div>
<div style="text-align: justify;">
आँखों के जल में ही</div>
<div style="text-align: justify;">
मन का दिया सिरायेंगे</div>
<div style="text-align: justify;">
रचना की स्थितियाँ होने दो</div>
<div style="text-align: justify;">
चुप चुप सी आहुतियाँ होने दो</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यश की कविता में गहरी काव्यात्मकता है। मंच हॅंसोड़ और फूहड़ काव्यात्मकता से भिन्न विरोधाभासों को गम्भीरता से उकेरने वाले यश मालवीय गहरे मानवीय सरोकारों और चिन्ताओं के कवि हैं। उन्हें अप्रियता, कुरूपता, विसंगति मथती है, उद्वेलित करती है-</div>
<div style="text-align: justify;">
आँसू और खुशी की </div>
<div style="text-align: justify;">
कोई नदी उबलती देखी</div>
<div style="text-align: justify;">
अस्पताल के आगे से </div>
<div style="text-align: justify;">
बारात निकलती देखी</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
एक आँख का हॅंसना देखा</div>
<div style="text-align: justify;">
एक आँख का रोना</div>
<div style="text-align: justify;">
शादी वाला कार्ड</div>
<div style="text-align: justify;">
पत्र का कटा हुआ सा कोना</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक मोमबत्ती साँसों की </div>
<div style="text-align: justify;">
जली पिघलती देखी</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यश के गीतों की विषयवस्तु और शिल्प दोनों अनुभूति और अभिव्यक्ति में एक सन्तुलन है। भाषा खड़ी बोली, मृसण प्रसारमयी है। भाषा के प्रवाह में देशज व कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्द सहज आकर्षण हैं। समग्र कृति के अनुशीलन के पश्चात मैं यह कहना चाहता हूँ कि गीत के सशक्त हस्ताक्षर यश मालवीय की इस कृति में उनकी गवेशणात्मक दृष्टि समय और समाज के अच्छे पारखी रूप का परिचय </div>
<div style="text-align: justify;">
मिलता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
बाँधता है घड़ी </div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन</div>
<div style="text-align: justify;">
वक्त का बीमार है</div>
<div style="text-align: justify;">
ये हमारे दौर का फनकार है</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हैं कई चेहरे कि जिनमें</div>
<div style="text-align: justify;">
एक भी अपना नहीं है</div>
<div style="text-align: justify;">
आग ठण्डी है, किसी भी</div>
<div style="text-align: justify;">
आग में तपना नहीं है</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
बंद दरवाजे सरीखा</div>
<div style="text-align: justify;">
या कि चुप दीवार है</div>
<div style="text-align: justify;">
ये हमारे दौर का फनकार है</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
इसमें सन्देह नहीं कि कवि की चेतना इन नाना विसंगतियों के मध्य सुभासित, सुभाषित चित्त की उर्वर भूमि खोजती है, जहाँ पर सुसंस्कृति के बीज पुनः बोये जा सकें। जिसका परिणाम अच्छा हो। ‘नींद कागज की तरह’ गीत संकलन सर्वथा निर्दोष और सप्रयोजनीय है। <span style="color: #990000; text-align: justify;">गीत- नवगीत संग्रह - नींद कागज की तरह, रचनाकार- यश मालवीय, प्रकाशक- </span><span style="color: #990000;">अंजुमन प्रकाशन, </span><span style="color: #990000; text-align: justify;">इलाहाबाद। प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- ११२, समीक्षा - निर्मल शुक्ल।</span></div>
<br />
<br />
<br /></div>
पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-3001595472014685032014-07-28T13:00:00.000+04:002016-02-09T09:35:17.132+04:00वर्षा-मंगल : एक पाठकीय समीक्षा // सौरभ पाण्डेय <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGEjT75sYZCIEJx080smOG6bGX6SR1YcloeIQkbtqjXrnu5kNs-kFzkVOTvdyywm-gGzmT7VMOn5DxXxRd8XVY6v4ai7ZmJ-HRt4UaleG7rl48E2il3WzTNWAfat1PnK0H1hrdTzixGto/s1600/07_21_14.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGEjT75sYZCIEJx080smOG6bGX6SR1YcloeIQkbtqjXrnu5kNs-kFzkVOTvdyywm-gGzmT7VMOn5DxXxRd8XVY6v4ai7ZmJ-HRt4UaleG7rl48E2il3WzTNWAfat1PnK0H1hrdTzixGto/s1600/07_21_14.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
अनुभूति के मंच से इस मंच की समृद्ध परिपाटी के अनुरूप ऋतु-सुलभ काव्य-आयोजन संभव होगा, इसका भान अवश्य था. वर्षा-मंगल का आयोजन इस मंच की उसी समृद्ध परंपरा के निर्वहन का संयोग बन कर आया.</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
प्रकृति और पूर्णिमा वर्मन - एक-दूसरे की समानान्तर, किन्तु परस्पर अन्योन्याश्रय इकाइयाँ ! अप्रच्छन्न ! अनुभूति के पटल पर आयोजनों की आसन्न रेखाएँ इन दोनों इकाइयों के संतुष्ट होने का कारण बनती रहती हैं. यही इस पटल की परिपाटी है. इस बार भी आयोजनों की आसन्न रेखाओं से संभव हुए मिलन-विन्दु विभिन्न मनोदशाओं की तमाम रचनाओं द्वारा संभव हो पाये कई-कई आयामों के मुखर होने का साक्षी बने. यह हुआ पिछले सोमवार इक्कीस जुलाई को. जब ’वर्षा-मंगल’ के आयोजन में गीतों के, नवगीतों के मेघों से रचनाओं की झमाझम बारिश हुई. कुल उन्चालिस रचनाकारों की रससिक्त रचनाएँ ! भिन्न-भिन्न मनोदशाओं को रुपायित करती रचनाएँ ! रचनाएँ भी ऐसी कि पटल मह-मह कर उठा ! वरिष्ठ-नवोदित का तो जैसे भेद ही मिट गया ! </div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
सभी एकसार आप्लावित ! सभी एकसार तृप्त ! सभी एकसार उन्मन ! सही भी है, जब रचनाएँ प्रतिष्ठित होती हैं, तो रचनाकार भी प्रतिष्ठित होता है ! इस कुल में आनन्दमग्न होता है तो पाठक !</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
वर्षा ऋतु से भारतीय जनमानस का बड़ा ही विशिष्ट सम्बन्ध रहा भी है. यहाँ परस्पर बिगाड़ है, तो परस्पर मनुहार भी है. संयोग की अद्भुत उत्फुल्लता है, तो वियोग की असह्य टीस भी है. भाव-संतृप्ति की सुखद अनुभूति है, तो असहज निर्ममता से असंतुष्ट यथार्थ भी है. इस संदर्भ में डॉ. राजेन्द्र गौतम ने अपनी पुस्तक 'नवगीत : उद्भव और विकास' में कहा भी हैं - 'नवगीत में हुए ऋतु-वर्णन मे ग्रीष्म के पश्चात् सर्वाधिक स्थान वर्षा को मिला है. वर्षापरक गीतों के दो स्वर हैं. एक में वर्षा के सौंदर्य, उल्लास, आवेग की अभिव्यक्ति हैं, दूसरा स्वर आतंक का, ध्वंस का है'</div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
दैहिक-मानसिक दशाओं और अनुभूतियों के ऐसे द्वन्द्व-विन्दुओं के सापेक्ष पटल के इस आयोजन को देखना महती तोषदायी रहा. हिन्दी साहित्य के आधुनिक कालिदासों ने पावस ऋतु का सुंदर-सरस चित्रण किया भी ! तो कई तुलसीदास भी रचनारत रहे, जिनकी भावदशाओं की सान्द्र-अभिव्यक्ति हेतु वर्षा की ऋतु माध्यम हुआ करती है.</div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggJ69jQ1jGJrB95ItWUQNQWjxKkpYpxzWPxmh51cLsdZNONVadz1M3YAD9hImKZrFUupfNVO5l1SctOiDi1eA4rEHC4kGofb91Jwph8uAXXKctelUrJAd2g2zFp2vz5YjxlUZr7GTdGRk/s1600/rain.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggJ69jQ1jGJrB95ItWUQNQWjxKkpYpxzWPxmh51cLsdZNONVadz1M3YAD9hImKZrFUupfNVO5l1SctOiDi1eA4rEHC4kGofb91Jwph8uAXXKctelUrJAd2g2zFp2vz5YjxlUZr7GTdGRk/s1600/rain.gif" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रस्तुतियों में एक ओर जहाँ अश्विनी कुमार विष्णु चिर-नवयौवना उन्मुक्त ’बदली’ के निर्बन्ध रतिकेल पर ठिठोली करते हुए पूछते हैं - किस-किस को / सौंपती निशानी / बदल जायें गहने साँझ और सवेरे / तेरे ही क्योंकर सयानी / किसको दी नथनी / कहाँ गयी हँसली ! तो वहीं राजेन्द्र गौतम ने रसिकप्रिया के संयोग-क्षणों के उर्वर वातावरण का रोचक विन्यास खींचा है - रोम-रोम रोमांचित / तंद्रिल, विश्लथ, कम्पित / हास-सुधा-उर-सिंचित / हुए अधर-पुट कुंचित / दल के दल शतदल के / आनन पर आन फिरें / जब कुंतल-मेघ घिरे / घन कुंतल-मेघ घिरे ! वातावरण ऐसा उर्वर हो, तो जगदीश पंकज की बदलियाँ फिर कैसे न इठलाती आतीं ? आयीं वो ! और, क्या खूब आयीं ! श्रावणी शृंगारिका का रूप धरे.. खुली घनी केशराशि लहराती हुईं ! इस कमनीय भाव-दर्शन से स्वयं सावन भी बचा रहा होगा क्या ? शुभ-शुभ कहें, साहब ! - आ गयीं बौछार / खिड़की खोल कर अब / छू दिये जो अंग / मदमाने लगे हैं / तोड़कर अँगड़ाइयों की वर्जनायें / मेह, हर्षित देह / सहलाने लगे हैं / बाल, वृद्धों में पुलक / पावस-परस से / लाज से सिमटी नवेली / नैन शरमाते हुए.. ! </div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
यह अवश्य है, कि ऐसी उत्प्रेरक भाव-भूमि में कथ-कथनी के कई-कई मनके बिखरे-छितराये पड़े होते हैं. कई तत्पर उन्हें बीनने को आतुर होते भी हैं. किन्तु, ऐसे किसी शब्द-चितेरे के संप्रेषण में इन क्षणों को गूँथने का अनुभवी अभ्यास भी तो हो. आचार्य संजीव सलिल से बढ़कर अभ्यासी कौन हो सकता है ! आचार्यजी के भाव-उकेर को ही हम देखें, जिनका उद्दण्ड सावन आतुर हुआ इस बार यों ’घर’ आया है - आतुर मनभावन सावन घर आया / रोके रुका न छली-बली !.. <span style="text-align: left;">सावन की कारगुजारियों पर आचार्य सलिल की फुसफुसाहट यहीं नहीं रुकतीं. अभिव्यक्तियाँ यदि सरस-सप्रवाह हुईं तो त्वरणसधी श्ंखलाओं में गुँथी हुई बहने ही लग जाती है ! - कोशिश के दादुर टर्राये / मेहनत मोर झूम नाचे / कथा सफलता-नारायण की- / बादल पंडित नित बाँचे / ढोल मँजीरा टिमकी / आल्हा-कजरी गली-गली / .... शुभ हो आचार्य सलिल, शुभ हो !</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
देह ही तो बाह्यकर्ण का भौतिक स्वरूप है. इसकी अपनी चाहनाएँ होती हैं. तदनुरूप, इसकी अपनी भाषा होती है. इसके अपने इंगित हुआ करते हैं. सम्पूरक इकाइयों के विभव की आवृतियाँ जब उच्चांकों की प्रखरता जीने लगती हैं, तो प्रभावी नम वातावरण भी अत्यंत आवेशित हो उठता है. आदि शंकर के अविनाशी शब्दों को स्वर देता हुआ - विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ! शस्य-श्यामला धरा का गदराया-गर्वीला स्वरूप और भी तीखा हुआ अत्यंत संप्रेष्य हो उठाता है. भला ऐसे में गगन अपनी समस्त ऊर्जा को इस आवृति के समानुपाती कैसे न बना डाले ? उसकी धमनियों के पारद-प्रवाह का कारण बनी सूर्य की तपिश उत्प्रेरक का ही तो कार्य कर रही है ! इन क्षणों में बाह्यकर्ण ही जगती के अंतःकर्ण को संचालित करने लगता है. इन भावों को शाब्दिक करते हुए पल्लव सस्वर गा उठते हैं - आज धरा पर / झुका गगन है, पुनर्मिलन को आतुर मन है / क्षितिज कसा ज्यों बाहुपाश हो / आवेशित दोनों का तन है / .. / सूर्य निकट आता है / ज्यों-ज्यों, विरह तपिश बढ़ती जाती है / दृष्टि कशिश पारे के कण सी - ऊर्ध्वमुखी चढ़ती जाती है / पर नभ को सब ज्ञात धरा का ध्वंस / यही तो जीवन धन है ! .. यही तो जीवन-धन है ! अद्भुत ! <span style="text-align: left;">सही है, उत्कट भावों के मद्धिम ताप से चित्त-वृत्ति के निरोध की चाँदी पिघलती है ! संचित अक्षय-ऊर्जा का पारद बहता है ! </span><span style="text-align: left;">कामायनी के प्रसाद जब ’कर्म का भोग, भोग का कर्म’ कहते हैं, तो इन्हीं उद्दात क्षणों की ही तो व्याख्या कर रहे होते हैं !</span></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रभाव का सिद्धांत कब, कहाँ-कहाँ नहीं असर करता ! वातावरण इतना सुरम्य हो तो अल्हड़ के पाँव भी चपल पुतलियाँ हो जाते हैं ! इन्हीं बिम्बों को शाब्दिक करते हैं, ठाकुर प्रसाद सिंह, जिन्होंने ’मदमदायी’ हवा को देख लिया है ! देखा भी है तो कहाँ ? पिछवारे बँसवारी में ! चोरी-चोरी दिखी ! छुपी-छुपी दिखी ! - पिछवारे की बँसवारी में फँसा हवा का हलका अंचल / खिंच-खिंच पड़ते बाँस कि रह-रह बज-बज उठते पत्ते चंचल / चरनी पर बाँधे बैलों की तड़पन बन घण्टियाँ बज रहीं / यह उमस से भरी रात यह हाँफ रहा / छोटा-सा आँगन ..! </div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
आज स्वप्निल प्रतीत होते ऐसे जीवन को जीया हुआ मन, जहाँ चरनियाँ आज भी बैलों की उपस्थिति से मुग्ध हैं, इस दृश्य के खिंचते ही नम हो जाता है ! स्वप्न में बसे गाँवों की दैनन्दिनियों को पलटना अब तो कठोर कलेजा मांगता है. सरल नहीं है न इनको बाँचना, आँखों की कोर नरम हो जाती हैं. ऐसी नरमाइयाँ मेघों के आने की प्रतीक्षा नहीं करतीं. बस, झिहर पड़ती हैं. ठाकुर प्रसाद सिंह के रोमिल बिम्ब स्वप्नजीवी रचनाकारों को, पाठकों को भरपूर सहलाते हैं. ऐसे ही स्वप्नजीवी रचनाकार हैं चन्द्र प्रकाश पाण्डेय. प्रथम प्रयास तथा प्रिय अनुभूति को हृदय-क्रोड़ में बसाये विह्वल हो गाते हैं - मौसम के ओ पहले बादल / आना भी तुम / फिर आना कल /.. / कोर-कोर पुतरी है नाचे / शब्द-शब्द सुधियों के बाँचे / आज विरह ने गीत मिलन के / फूल-फूल मन विजन सवाँचे / बूँद-बूँद यह प्यास / हुई खुद गंगाजल ! </div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
उर्ध्वगामी मन देह-भावों से अभिसिंचित हुआ, लसर-पसर होने के बावजूद, और ओजस्वी हो उठता है ! ठठाया हँसता ! निर्दोष ! निर्विकार ! यही सान्द्र भावों की संतृप्ति की सनातन परिणति है ! कुमार रवीन्द्र से ही सुनें न हम - नागचंपा हँस रहा है / खूब जी भर वह नहाया / किसी मछुए ने उमग कर / रागबरखा अभी गाया ! / </div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
संयोग के पलों की कलाएँ एकधार तो चलतीं नहीं. मदांध मन एक पल देही में सनता-घुटता है, तो ठीक दूसरे पल देह-विरत चैतन्य हुआ पारखी अन्वेषक-सा व्यवहार करने लगता है - पाँत बगुलों की / अभी जो गयी उड़कर / उसे दिखता दूर से / जलभरा पोखर / उसी पोखर में / नहा कर आयी हैं सारी दिशाएँ / घन कुंतल-मेघ घिरे.. </div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
किन्तु, संतृप्ति आवृतियों में क्यों जीती है ? ’परम’ की प्राप्ति हेतु अग्रसरित पौरुष को मिला यह कोई श्राप है क्या ? उसकी संतृप्ति ’अनहद’ की अनुभूत झंकार के साथ ’तरस’ की लहरों के आलोड़न पर पुनर्मार्गी क्यों हो जाया करती है ? धनन्जय सिंह की स्वीकारोक्ति तो यही कहती है - आज यहाँ, कल वहाँ बरसता है बादल / अपनेपन के लिए तरसता है बादल / .. / कभी-कभी वह धरती का मन खूब भिगोता है / लगता जैसे मन के रीतेपन पर रोता है / कभी खीज कर गरज-गरज कर ओले बरसाता / आमन्त्रण पाता धरती का, प्यार नहीं पाता / कभी क्षुब्ध, तो कभी / सरसता है बादल ! </div>
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समर्पण के अत्युच्च पलों में सर्वस्व लुटा देने के पश्चात, पुनः तृषा की ऐसी प्रबल धार में उभ-चुभ होना, दैहिकता की भावदशा के सतत प्रवहमान रहने की संभावना ही है. किन्तु, यह तृषा कजरी की ओट से आह टेरती उस नायिका के लिए भी असह्य है जिसने पुनर्मिलन की अपेक्षाएँ जिला रखी हैं. ऐसे वायव्य तोष से अनमनायी नायिका की भावनाओं को क्या ही सुन्दरता से शब्दबद्ध करते हैं, ओमप्रकाश यती - झूले की डोरी को / इठलाती गोरी को / साजन के आने की आस जब नहीं रही / सावन की रिम-झिम के गीत कहीं खो गये / .. / छूटा जब अपना तो / टूटा जब सपना तो / बाहों के घेरे में सिर्फ़ हवा रह गयी / साँसों की धड़कन के गीत कहीं खो गये ! <span style="text-align: left;">संयोग के क्षणों के बाद पुनः घनीभूत होने लगे छूँछेपन को ओमप्रकाश यती के सार्थक शब्द मिले हैं.</span></div>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" /></a><br />
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संसार अंतःकर्ण के अवयवों के सापेक्ष हुआ मानवीय प्रकटीकरण है. विशेषकर, वृत्तियाँ किसी स्वरूप के रुपायित होने का कारण होती हैं. परन्तु यह भी सत्य है, कि संसार के भौतिक स्वरूप में ही हरतरह की प्रवृतियाँ आधार पाती हैं. सकारात्मक भी, नकारात्मक भी. इन्हीं के सम्मिलित प्रभाव से जगत चलता है. प्रकृति की संज्ञाओं का अंतर्निहित भाव चाहे जो हो, सापेक्ष दृश्य को ही मानव अपनी इन्द्रियों द्वारा भान करता है. धरा जिस रंग में दिखती है, वही भावुक हृदय का अनुमोदन हुआ करता है. इस परिप्रेक्ष्य में अनिल कुमार वर्मा वर्षा ऋतु में धरा के शृंगारिक स्वरूप का सुन्दर वर्णन करते हैं - ओढ़े चुनर धानी / सतरंगी गोट जडी / चौथी की दुल्हन सी / धरती है सजी खड़ी / ढूँढ रही कोई वह / पहली मुस्कान / अंतस में गूँज रही / पपिहे की तान. </div>
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प्रकृति के इस सापेक्ष स्वरूप पर कल्पना रामानी अपने भावों को शब्दबद्ध करती जाती हैं. और जैसे-जैसे रूप निखरता जाता है, वो उसका अनुभव करना चाहती हैं - बरखा रानी ! नाम तुम्हारे / निस दिन मैंने छन्द रचे / रंग-रंग के भाव भरे / सुख-दुख केआखर चंद रचे / .. / पाला बदल-बदल कर मौसम / रहा लुढ़कता इधर-उधर / कहीं घटा घनघोर कहीं पर / राह देखते रहे शहर / कहीं प्यास तो कहीं बाढ़के / सूखे-भीगे बन्द रचे </div>
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स्वातंत्र्योत्तर पद्य-विधाओं में नवगीत मुख्य रूप से उभर कर आया है. आजके परिवेश की लयबद्ध प्रस्तुति नवगीत की प्रमुख विशेषता है. यथार्थ-प्रस्तुति जहाँ वायव्य भावनाओं को अन्यथा मान लेती है, वहीं पद्य निवेदन के क्रम में भी बिना लाग-लपेट प्रस्तुति की हामी है. आमजन की मनोदशाओं और भावनाओं को पढ़ने की कवायद के पूर्व नवगीतकार उसके पेट के ’स्टेटस’ की चिंता करता है. आमजन की आकाशीय आकांक्षाओं को शब्दबद्ध करने के पूर्व नवगीतकार उसकी जिजीविषा से प्रभावित होता है. नवगीतकारों ने वर्षा ऋतु की सकारात्मक और नकाक्रात्मक दोंनो तरह की सोच को स्वर दिया है. धरातल का जीवन कई अर्थों में विशिष्ट हुआ करता है. छोटी-छोटी खुशियाँ जहाँ आमजन को आह्लादित करती हैं, तो छोटे-छोटे दुख, छोटी-छोटी समस्याएँ इनके लिए अवसाद का कारण हुआ करती हैं. दैनिक जीवन के सुख-दुखों को गाता नवगीतकार बारिश को आह्लाद और कोप दोनों को विषय बनाता है. इन संदर्भों में इस आयोजन के गीतकार भारतेन्दु मिश्र को सुनना उचित होगा, जो शहर और कस्बों की नारकीय दशा से क्षुब्ध हैं - दिन ये बरसात के / कीचड़ के बदबू के / रपटीली रात के / ../ माटी की गन्ध / गयी डूब किसी नाले में / माचिस भी सील गयी / रखे-रखे आले में / आँधी के, पानी के दुर्दिन सौगात के. </div>
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इसी स्वर में रजनी मोरवाल भी बोलती हैं - आ गयी वर्षा सड़क / भरने लगी है / .. / झुग्गियाँ चुपचाप / प्लास्टिक को लपेटे / गठरियों-सी देह / कोने में समेटे / शहर की रफ़्तार से / डरने लगी है. शहर आबादियों के बोझ तले पिस रहा है. ऐसे में बरसात किसी भयावह फेनोमेना से कम नहीं. कृष्ण नन्दन मौर्य ने बरसातके दिनों में प्रशासकीय लापरवाही और उस कारण फैल गयी अव्यवस्था की भयावहता को क्या खूब शब्दबद्ध किया है - भीड़ फर्राटा / घिसटती जाम में / खास भी कुछ आ फँसे आम में / इक लहर बारिश क्या आयी / पालिका की पोल सारी कह गयी</div>
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शहर स्वप्नों के पूरे होने का यूटोपियन संसार मात्र नहीं है, बल्कि यहाँ स्वप्नों को लगातार धूसरित होता हुआ देखना एकचुभती हुई सच्चाई है. विद्यानन्दन राजीव ने इस विन्दु को विह्वल शब्द दिये हैं - टूटा छप्पर ओसारे का / छत में पड़ी दरार / फेंक गयी गठरी भर चिंता / बारिश की बौछार / .. / पहले-पहले काले बादल / लाये नहीं उमंग / काम-काज के बिना / बहुत पहले से मुट्ठी तंग / किस्मत का छाजन रिसता है / क्या इसका उपचार ! </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" /></a></div>
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यहीं, इसी क्रम में, योगेन्द्र वर्मा व्योम तो क्षोभ से भर उठते हैं - गली मुहल्लों की सड़को पर / भरा हुआ पानी / चोक नालियों के संग मिलकर / करता शैतानी / ऐसे में तो वाहन भी / इतराकर चलते हैं. <br />
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दिन में तो संसार चलायमान दिखता भी है. रात सही कहिये, परीक्षा लेती हुई आती है. इसी तथ्य को प्रदीप शुक्ल ने बाँधा है- रात भर ड्यूटी, पड़ा घर पर / सुबह का काम होगा / भारी बारिश से / सड़क पर / रास्ता जाम होगा / अपशकुन काली घटाएँ / शहर के माथे पे आकर / रम गयी हैं ! </div>
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देखा जाय तो आमजन के लिए वर्षा ही नहीं कोई ऋतु परिस्थितिजन्य अनुभूतियों का पिटारा खोलती है. इसी प्रवाह में सुमित्रा नन्दन पंत ने कहा था - मैं नहीं चाहता चिर सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख ! समत्व के इस भाव से समाद्रित महेन्द्र भटनागर को सुनें - छा गये सारे गगन पर / नव घने घन मिल मनोहर / दे रहे हैं त्रस्त भू को / आज तो शत-शत दुआएँ. आभार-भाव से आप्लावित हैं, सुरेन्द्र सुकुमार भी, जो मनुष्य द्वारा की गयी तमाम लापरवाहियों को गिनाते हुए नत-मस्तक हो जाते हैं - माना पर्यावरण बिगाड़ा / धरती खोदी जंगल काटा / और अधिक दौलत पाने को / हमने तेरा तन-मन बाँटा / हमको फिर भी क्षमा कर दिया / खुशियों से आँगन भर डाला / तुमको बहुत शुक्रिया बादल !</div>
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जब जीवन संसृत होता हुआ निरंतर बढ़ता जाता है, तो ही कोमल भावनाएँ आधार पाती हैं. शहरी व्यवहार का कितना सटीक दृश्य उभरा है रामशंकर वर्मा की पंक्तियों में - रेन कोटों छतरियों बरसातियों की / देह में निकले हैं पंख / पार्कों चिड़ियाघरों से हाइ-वे तक / बज उठे प्रणय के शत शंख / आधुनिकाएँ व्यस्त प्रेमालाप में / डाल बाहें बाँह में फिरती फुदकती / संग हैं महबूब ! </div>
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चेतना के इन्हीं क्षणों को मान देती हुई दिनेश प्रभात की पंक्तियाँ विशेष अर्थ साझा करती हैं - झीलों को कुछ चैन मिला है / भक्तों को उज्जैन मिला है / बूँद-बूँद से घर भर देगा / मेघों का ये दल / .. / प्यार भरा उनको खत लिखना / हरदम एक पिता-सा दिखना / फिर पानी ऊपर लौटेगा / आज नहीं तो कल ! दिनेश प्रभात के ही स्वर में अपने स्वर मिलाते हैं बनज कुमार बनज - मुस्कानें छा जातीं पर्वत के शिखरों से घाटी तक / मौन न रहते कंकर-पत्थर / गीत सुनाती माटी तक / मस्जिद को अजान मिल जाती / मन्दिर को वन्दन मिल जाता / राज तिलक होता फूलों का<br />
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<div style="text-align: justify;">
लेकिन जिस दशा ने ध्यानाकृष्ट किया है वह बेटियों की उपस्थिति ! सावन में बेटियाँ नैहर आती हैं. हर साल आने वाली बदलियों को मिला ज्योतिर्मयी पंत का सम्बोधन हृदय आर्द्र कर देता है - वर्ष बाद बेटी ज्यों आती / धरती माँ को गले लगाती / गीला हो जाता है आँचल / सौंधी माटी घर महकाती / हुलस-हुलस कर वृक्ष झूमते / जुले पड़ते जब / शाखों पर </div>
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वर्षा प्रभावी तब ही है जब यह दाघ का पूरक है. ग्रामीण अंचल हो, या, कस्बाई इलाका हो, या शहरी जीवन हो, जीवन को तरंगित आर्द्रता ही करती है. आर्द्रता की आवश्यकता पर यशोधरा राठौर प्रकाश डालती हैं. बादल भी मनुहार चाहता है - प्यासी धरती तुम्हें पुकारे / बादल आना जी / .. / धूल गर्द में लोट रही है / नन्हीं सी गौरैया / सूखी नदी, किनारे सूखे / तुम्हें पुकारे प्यासी नैया / फूल पत्तियों की आँखों में / बस हरियाना जी. </div>
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वहीं, पूर्णिमा वर्मन का विन्यास बिल्डिंगों में जीती इकाइयों की भावनाओं को शब्द देता है - खिड़की पर बूँदें अटकी हैं / सुधियाँ दूर तलक भटकी हैं / आँगन के पानी में तिरती नावें चलीं मगर अटकी हैं / पार उतरना कठिन नहीं है / दोहरायेंगी ये मन-मन .. </div>
मन-मन दुहराना अपने आप को संयत करने, स्वयं को आश्वस्त करने से है. <br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifg690pnsLirIH5LOF509XGijr2nCCbuKybnbNUCKkhyphenhyphenMFVR0W48ozuCAb5J7PmbYChrtjTVuSF0uep3ZST4DKM-KSe2muI84YQ49ioTnDq8a2aZV-xU3fGks8YfsWyTB2xALRPN05gPc/s1600/rain.gif" /></a><br />
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दैनिक जीवन में तारी हुई झुंझलाहट के वशीभूत अथवा वैचारिक निहितार्थ के वशीभूत, कुछ रचनाकार वर्षा और आसमान से झुंझलाये दीखे. धर्मेन्द्र सिंह सज्जन को सुनना रोचक होगा - मेघ श्वेत-श्याम कह रहे / आसमां अधेड़ हो गया / .. / कोशिशें हजार कीं मगर / रेत पर बरस न सका / जब चली जिधर चली हवा / मेघ साथ ले गयी सदा.. </div>
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तो, संध्या सिंह ने मेघों को भुलक्कड़ हरकारा मान लिया है - मौसम बिगड़ैल हुआ तो / बैठ गया तूफ़ानों पर / हरियाली के लिए मेघ थे / बरस गये चट्टानों पर .. अद्भुत ! </div>
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आयोजन की प्रस्तुतियों में वर्षा का ऐसा विविध स्वरूप उभर कर आया है कि पाठक-मन भर उठता है. किन्तु, सच यही है कि वर्षा ऋतु पारस्परिक अनुभूतियों के जीवंत हो जाने का नरम माध्यम है. दग्ध सम्बन्धों पर उम्मीदों के फाहे रखते मेघों के औदार्य को कोई वियोगी कैसे नकार सकता है ! ऋतु की प्रासंगिकता को इन्हीं संदर्भों में सस्वर करने का प्रयास किया है मैंने, यानि इन पंक्तियों के लेखक ने - बिन तुम्हारे क्या भला हूँ / मैं सदा से जानता हूँ / बारिशों में बूँद की है क्या महत्ता / मानता हूँ / भरे हुए वृक्षों-तालों के / तृप्त स्वरों में मुझको सुन / आकुल हुई नदी बन थामों / बाँह-कलाई / आ जाओ ! </div>
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इस सफल आयोजन ने गीत-नवगीत के कई पहलुओं को समक्ष किया है. प्रतिभागी कई रचनाकार हैं जिनके अमूल्य सहयोग को अनदेखा करना आयोजन के स्वरूप को ही अनदेखा करने के बराबर होगा. पवन प्रताप सिंह, बृजेश द्विवेदी अमन, मनोज जैन मधुर, महेन्द्र वर्मा, राम वल्लभ आचार्य, शशि पाधा, शशि पुरवार, सुरेन्द्र पाल वैद्य, हरिवल्लभ शर्मा, त्रिलोक सिंह ठकुरेला की रचनाओं ने सरस वातावरण बनाया है. इन कवियों की रचनाओं को हृदय से मान देते हुए इनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ. </div>
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एक सफल आयोजन के लिए अनुभूति की सम्पादिका पूर्णिमा वर्मन तथा उनकी समस्त टीम को सादर धन्यवाद ! </div>
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--सौरभ पाण्डेय,<br />
नैनी, इलाहाबाद<br />
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पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-22881557087209872012011-10-04T23:18:00.001+04:002011-10-04T23:22:38.259+04:00अभि-अनु ३ अक्तूबर २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBsHw0Q8kTshwmB4EVdnxVdBbxuien36koXWIQBDm_UV1u3VtzG7qVcnCaF4DQ0A2_SLPvJheLdDWUBdOvZX9DPdrUT1gvY4Ja3nWrgbHXz7Owp9fqfK7eNaHO-d5Ib6fLM0zMM21IFGE/s1600/vidrohi_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBsHw0Q8kTshwmB4EVdnxVdBbxuien36koXWIQBDm_UV1u3VtzG7qVcnCaF4DQ0A2_SLPvJheLdDWUBdOvZX9DPdrUT1gvY4Ja3nWrgbHXz7Owp9fqfK7eNaHO-d5Ib6fLM0zMM21IFGE/s320/vidrohi_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ३ अक्तूबर २०११ के अंक में पढ़ें रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी- विद्रोही, डॉ. अशोक गौतम का व्यंग्य- हाय रे मेरे भाग, मनोहर पुरी का आलेख- दसों पापों को हरने वाला दशहरा, शैलेन्द्र पांडेय के साथ पर्यटन- धनुषकोटि जहाँ राम ने सेतु बाँधा था, और मानोशी चैटर्जी के साथ- चंदनपुर की जगद्धात्री पूजा। इसके साथ ही इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में उत्सव के पकवान, इला प्रवीण की शिशुचर्या का ४०वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी से इस पक्ष का भविष्य फल, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर। <br />
<a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/10_03_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/10_03_11.html</span></a> </div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNuNItxXkEy3rH9vEtrh2M29za871rYYTqTV-HkRPAVz4U1y-vayroqu1AmUhvR1Ma3vYNc6bKpwmMJtYD-WDVDnbxuB2R3Xww8HFuihgvDHQEptr96e7naeAslW05HtVSAw1ltwCS1Nk/s1600/anu10_03_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNuNItxXkEy3rH9vEtrh2M29za871rYYTqTV-HkRPAVz4U1y-vayroqu1AmUhvR1Ma3vYNc6bKpwmMJtYD-WDVDnbxuB2R3Xww8HFuihgvDHQEptr96e7naeAslW05HtVSAw1ltwCS1Nk/s320/anu10_03_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
<div style="text-align: justify;">अनुभूति के ३ अक्तूबर २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में प्रभु दयाल, अंजुमन में गिरिराजशरण अग्रवाल, छंदमुक्त में सुशीलकुमार आज़ाद और मुक्तक में मीना अग्रवाल की रचनाएँ। </div><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/10_03_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/10_03_11.html</a> </span></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-67170622380894524502011-09-26T22:04:00.002+04:002011-10-04T23:14:48.160+04:00अभि-अनु २६ सितंबर २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0YzlJycv1ERlnSsQXg14zBmmHsTmG4iN800jezDXncGw6-4QYCr_M2X_zvhRf0BwQM-t4-lNudBxo0GIXntCS7bzlIqoBqL1dWPsHkT0MZPe8ujAGJTQVhPAWWP_BAH40Qi3S-aCHUl0/s1600/ek_jhooth_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0YzlJycv1ERlnSsQXg14zBmmHsTmG4iN800jezDXncGw6-4QYCr_M2X_zvhRf0BwQM-t4-lNudBxo0GIXntCS7bzlIqoBqL1dWPsHkT0MZPe8ujAGJTQVhPAWWP_BAH40Qi3S-aCHUl0/s320/ek_jhooth_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के २६ सितंबर २०११ के अंक में पढ़ें मथुरा कलौनी की कहानी- एक झूठ, संजीव सलिल की लघुकथा- गांधी और गांधीवाद, अनुपम मिश्र का आलेख- तैरने वाला समाज डूब रहा है, रिंपी खिल्लन सिंह का आलेख- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लोक चेतना और देशविदेश से साहित्यिक सांस्कृतिक समाचार। इसके अतिरिक्त इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में होली के पकवान, इला प्रवीण की शिशुचर्या का ३९वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी से इस पक्ष का भविष्य फल, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर। </div><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_26_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_26_11.html</a> </span><br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgdnFc-ebMCWfsqlYzSkIk8r2cbXty8HOrdy3341ZexeYYJMU6nGaL5lteIyuyX5naabAhA5dPxRibjPyWW5rM7Z7AKHdQImC_njSfDD_3fA8e9mHsIZqkXAalYn2MiZMWF7GIXsgm0ik/s1600/anu09_26_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgdnFc-ebMCWfsqlYzSkIk8r2cbXty8HOrdy3341ZexeYYJMU6nGaL5lteIyuyX5naabAhA5dPxRibjPyWW5rM7Z7AKHdQImC_njSfDD_3fA8e9mHsIZqkXAalYn2MiZMWF7GIXsgm0ik/s320/anu09_26_11.jpg" width="119" /></a></div>अनुभूति के २६ सितंबर २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में राम सेंगर, अंजुमन में सिया सचदेव, छंदमुक्त में शिखा वार्ष्णेय, दोहों में शशि पाधा और पुनर्पाठ में राष्ट्रपिता के समर्पित कविताओं का संकलन- तुम्हें नमन। <br />
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_26_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_26_11.html</a> </span></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-37050586536844091972011-09-19T18:40:00.001+04:002011-09-19T18:41:10.605+04:00अभि-अनु १९ सितंबर २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrgqNlc4tEOmYVAExUOCSTvKwLOlElje38kZYxnyfLyVYjxOvHJB3QANh55_NKUwd44pX9brupLonhMTfdCjozfWp8gc4QJJLNdY9hqzAax8Yk5VJ_2hZhRBLBUOfLtZOGJsS7Trfb4n4/s1600/internet_dating_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrgqNlc4tEOmYVAExUOCSTvKwLOlElje38kZYxnyfLyVYjxOvHJB3QANh55_NKUwd44pX9brupLonhMTfdCjozfWp8gc4QJJLNdY9hqzAax8Yk5VJ_2hZhRBLBUOfLtZOGJsS7Trfb4n4/s320/internet_dating_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="border-bottom: medium none; border-left: medium none; border-right: medium none; border-top: medium none; text-align: justify;">अभिव्यक्ति के १९ सितंबर २०११ के अंक में पढ़ें उषा राजे सक्सेना की कहानी- इंटरनेट डेटिंग, दीपक दुबे का व्यंग्य- फाइलों में अटका भोलाराम का जीव, महेश परिमल का ललित निबंध- रिश्ते कभी बोझ नहीं होते, जयप्रकाश मानस के कविता संग्रह-'अबोले के विरुद्ध' से परिचय और पुनर्पाठ में- प्रमिला कटरपंच से लोकपर्व साँझी का विषय में जानकारी। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में दीपावली के पकवान, इला प्रवीण की शिशुचर्या का ३८वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी से इस पक्ष का भविष्यफल, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।<br />
<a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_19_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_19_11.html</span></a> </div><br />
<div style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiz_nE5Zex9Eh0iAhsszfczOftoaIrVXr7ZrPNT1Z8HZM9SqjKs1QKMcpwvTOi3nUXEsBVtkAj1IIrxZprzd5T880Zhs3pvLP3N5YFk_Z_MGFzniRX2Rtw3K2dXWpKufctz6nEAs7h6iOY/s1600/anu09_19_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiz_nE5Zex9Eh0iAhsszfczOftoaIrVXr7ZrPNT1Z8HZM9SqjKs1QKMcpwvTOi3nUXEsBVtkAj1IIrxZprzd5T880Zhs3pvLP3N5YFk_Z_MGFzniRX2Rtw3K2dXWpKufctz6nEAs7h6iOY/s320/anu09_19_11.jpg" width="119" /></a><br />
अनुभूति के १९ सितंबर २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में प्रो.विद्यानंदन राजीव, अंजुमन में नीरज गोस्वामी, छंदमुक्त में विमलेश त्रिपाठी और हाइकु में ममता किरन। <br />
<a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_19_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_19_11.html</span></a> </div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-32012080434894339222011-09-12T04:25:00.000+04:002011-09-12T04:25:53.426+04:00अभि-अनु १२ सितंबर २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj05byBoMbeoyICy-7tX4TaX0ClbbXM_3IMQnPJCiipVl4B3H8Y1bY3BKkwlpTTiYRuYU8MA74Oho004ewhY5qc9stiECLTZav4c4_xdCpoW3KeulL0lwNY11bWZYXIOdB0Lgd4A28cTBs/s1600/dakhila.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="106" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj05byBoMbeoyICy-7tX4TaX0ClbbXM_3IMQnPJCiipVl4B3H8Y1bY3BKkwlpTTiYRuYU8MA74Oho004ewhY5qc9stiECLTZav4c4_xdCpoW3KeulL0lwNY11bWZYXIOdB0Lgd4A28cTBs/s320/dakhila.jpg" width="150" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के १२ सितंबर २०११ के हिंदी दिवस विशेषांक में पढ़ें रवीन्द्र कुमार का व्यंग्य- दाखिला अँग्रेजी स्कूल में, मधु संधु की लघुकथा- साक्षात्कार, विजय कुमार का दृष्टिकोण- विश्व बाजार और हिंदी, डॉ. राकेश शर्मा के शब्दों में- विश्व हिंदी सचिवालय का सफरनामा और डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय से जानें हिंदी का वैश्विक परिदृष्य। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोई में मूँगदाल हलवा, इला प्रवीण की शिशुचर्या का ३७वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी से सितंबर के दूसरे पक्ष का भविष्य फल, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_12_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_12_11.html</span></a> </div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhS87uS0hhW9BuqgQpE8Y5jEMl6O3E3dl9Bo6dNrwxwrm4QhoB0EOJQZ0G36agStcVEdbgk7fWMNL5bxnnq6Imu6Lkv2WSFF5PWLTjSrCFUMkIJnWcEdLdKNb_UoADFSH86hQveabip6GQ/s1600/anu09_12_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" nba="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhS87uS0hhW9BuqgQpE8Y5jEMl6O3E3dl9Bo6dNrwxwrm4QhoB0EOJQZ0G36agStcVEdbgk7fWMNL5bxnnq6Imu6Lkv2WSFF5PWLTjSrCFUMkIJnWcEdLdKNb_UoADFSH86hQveabip6GQ/s1600/anu09_12_11.jpg" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br />
अनुभूति के १२ सितंबर २०११ के विशेषांक में पढ़ें- हिंदी दिवस के अवसर पर विविध विधाओं में रची, अपनी भाषा के प्रति प्रेम और सम्मान से परिपूर्ण विभिन्न रचनाकारों की हृदयस्पर्शी रचनाएँ। <br />
<a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_12_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_12_11.html</span></a> </div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-85333303187110425242011-09-05T19:31:00.002+04:002011-09-19T18:43:06.559+04:00अभि-अनु ५ सितंबर २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSfU1i1wjfVL5S3-xyaanZF-2aCjhL95Hl4h70oYST45r9BneM-b6xNoxYd-sWYePC48zJ7JUcAhEZ-XOiigDKC0TPYbEr4eQ4bSTiSb0OkWfqK7q5PzP9Cps9qgQs8NK-PYoYx6xrPQk/s1600/chabikikhilone_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSfU1i1wjfVL5S3-xyaanZF-2aCjhL95Hl4h70oYST45r9BneM-b6xNoxYd-sWYePC48zJ7JUcAhEZ-XOiigDKC0TPYbEr4eQ4bSTiSb0OkWfqK7q5PzP9Cps9qgQs8NK-PYoYx6xrPQk/s320/chabikikhilone_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ५ सितंबर २०११ के अंक में पढ़ें मनमोहन सरल की कहानी- चाबी के खिलौने, अशोक गौतम का व्यंग्य- इस दर्द की दवा क्या है, डॉ. भक्तदर्शन श्रीवास्तव की विज्ञानवार्ता- कागज पर सौर ऊर्जा, दिविक रमेश का संस्मरण- कवि-चिन्तक शमशेर बहादुर सिंह और पुनर्पाठ में- पर्यटक के साथ इस्तांबूल की यात्रा। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में केसर काजू बर्फी, इला प्रवीण की शिशुचर्या का ३६वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी से इस पक्ष का भविष्यफल, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर। <br />
<a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_05_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_05_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7bChRdA7DoBWuXyGgKDlKkxsVo00NJsMFJf-YLm7VAmx1_3-pJKFSXTFBTNhDQXqstfDLjznnaTYS2lVPTBmSNwXT1892oYO0_kj1xK4JXAP7VlX-MdQqPvX08gIGCY3I9CPclih0R7A/s1600/anu09_05_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7bChRdA7DoBWuXyGgKDlKkxsVo00NJsMFJf-YLm7VAmx1_3-pJKFSXTFBTNhDQXqstfDLjznnaTYS2lVPTBmSNwXT1892oYO0_kj1xK4JXAP7VlX-MdQqPvX08gIGCY3I9CPclih0R7A/s320/anu09_05_11.jpg" width="119" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br />
<br />
अनुभूति के ५ सितंबर २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में सत्यनारायण, अंजुमन में अनिल गुप्ता, छंदमुक्त में श्रीकांत सक्सेना और क्षणिकाओं में मंजु मिश्रा। </div><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_05_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/09_05_11.html</a> </span></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-42596800965937335092011-08-29T21:05:00.001+04:002011-08-29T21:10:43.571+04:00अभि-अनु २९ अगस्त २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaKahPeIOaP5vgQ1F1P6bFymTrwtkqdDL3xKjv4EQzKwo-lxsxSgN1tZlw-hoAOZT5dJKWbUUimgEXqR46CUyeA2qxxNGqWaId3BCZKNgWo38qWh-di1O6_EqFhhsVU9-NbvL4n89VQ84/s1600/gilas_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaKahPeIOaP5vgQ1F1P6bFymTrwtkqdDL3xKjv4EQzKwo-lxsxSgN1tZlw-hoAOZT5dJKWbUUimgEXqR46CUyeA2qxxNGqWaId3BCZKNgWo38qWh-di1O6_EqFhhsVU9-NbvL4n89VQ84/s320/gilas_s.jpg" width="100" /></a></div><div closure_uid_r15f3j="131" style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के २९ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें शीला इंद्र की कहानी- गिलास, रतनचंद जैन का प्रेरक प्रसंग- प्रगति और अभिमान, ऋषभ देव शर्मा की कलम से सच्चिदानंद चतुर्वेदी का उपन्यास `अधबुनी रस्सी', डा .सुरेशचन्द्र शुक्ल "शरद आलोक" का संस्मरण भारतीय संस्कृति के आख्याता हजारी प्रसाद द्विवेदी और समाचारों में देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में हरा भरा कवाब, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का ३५वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><div closure_uid_r15f3j="173"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_r15f3j="174" href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_29_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_29_11.html</a> </span></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR4kLIJv8U52YndqtJ0QaJw5MaTjusZ0Vn9rrXSzspRDHnrrdG297C8G4hMU3hq8_sBChpY9fE5RNYtZ1H0U0C86Tb0fuiqhbelsgstZeqRBVE6F87nMxmFHHjtlOnzl7aTf6HU6op_ic/s1600/anu08_29_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR4kLIJv8U52YndqtJ0QaJw5MaTjusZ0Vn9rrXSzspRDHnrrdG297C8G4hMU3hq8_sBChpY9fE5RNYtZ1H0U0C86Tb0fuiqhbelsgstZeqRBVE6F87nMxmFHHjtlOnzl7aTf6HU6op_ic/s320/anu08_29_11.jpg" width="119" /></a></div><div closure_uid_r15f3j="141" style="text-align: justify;"><div closure_uid_uh5i0x="122">अनुभूति के २९ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में राम अधीर, गौरवग्राम में मदन वात्स्यायन, अंजुमन में आशीष श्रीवास्तव, छंदमुक्त में प्रियंकर पालीवाल और दोहों में सुभाष नीरव। </div><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_r15f3j="153" href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_29_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_29_11.html</a> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-37613511608347036462011-08-22T10:29:00.007+04:002011-08-29T21:10:21.915+04:00अभि-अनु २२ अगस्त २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiSgsqplgyWmnZvuOKbbbBwQWAGZUVtKX-CwoRnZYJkqBvlNIek-QF2aW5kco0phR8CEUdaffd9NXHniHzMXdPJw8o5_5Ul2wvDiFTsBUiCdofyo5sTeOqtWjbJ86vQuhl76t8R0jhP_E/s1600/jitha_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" qaa="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjiSgsqplgyWmnZvuOKbbbBwQWAGZUVtKX-CwoRnZYJkqBvlNIek-QF2aW5kco0phR8CEUdaffd9NXHniHzMXdPJw8o5_5Ul2wvDiFTsBUiCdofyo5sTeOqtWjbJ86vQuhl76t8R0jhP_E/s1600/jitha_s.jpg" /></a></div><div closure_uid_f0iebu="394" style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के २२ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें कादंबरी मेहरा की कहानी- जीटा जीत गया, मनोहर पुरी का व्यंग्य- हो के मजबूर मुझे उसने उठाया होगा, कुमार रवीन्द्र के साथ पर्यटन- यात्रा एक कलातीर्थ की, शेर सिंह का संस्मरण- धारा के विपरीत और प्रेम जनमेजय का आलेख- व्यंग्य का सही दृष्टिकोण- हरिशंकर परसाईं। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में पनीर टिक्का, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का ३४वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><div closure_uid_f0iebu="420"><span closure_uid_f0iebu="411" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_f0iebu="412" href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_22_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_22_11.html</a> </span></div><br />
<br />
<div closure_uid_f0iebu="253"><div class="separator" closure_uid_f0iebu="438" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7EnnJhs5RpOAkeaHKpxJlXSe5RiLetdPrbAn2hXKqSr0gheUgRT5JQmzMJKE3KRSDFphF8oJfqGtdkd0G4HVKUKuGz7pWIOD6PPe85M5HVU8aF2o9-Xnxt2jrtFQ-Vr1U-cXLMV_2Zbw/s1600/anu08_22_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" qaa="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7EnnJhs5RpOAkeaHKpxJlXSe5RiLetdPrbAn2hXKqSr0gheUgRT5JQmzMJKE3KRSDFphF8oJfqGtdkd0G4HVKUKuGz7pWIOD6PPe85M5HVU8aF2o9-Xnxt2jrtFQ-Vr1U-cXLMV_2Zbw/s1600/anu08_22_11.jpg" /></a></div><div closure_uid_f0iebu="697" style="text-align: justify;"><div closure_uid_rejcix="100">अनुभूति के २२ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में- दिवाकर वर्मा, अंजुमन में- दिगंबर नसवा, छंदमुक्त में दिविक रमेश, मुक्तक में कुँअर प्रीतम और पुनर्पाठ में अजंता शर्मा </div></div><div closure_uid_f0iebu="697" style="text-align: justify;"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_f0iebu="442" href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_22_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_22_11.html</a> </span></div></div><br />
<div closure_uid_f0iebu="272"><div closure_uid_63hdkg="120"><div closure_uid_uyrxa0="91">इसके साथ ही वेब पर पहली बार पाठकों के लिये विशेष उपहार - </div></div><div closure_uid_63hdkg="120"><br />
</div></div><div closure_uid_f0iebu="272" style="text-align: left;"><div closure_uid_63hdkg="101"><a closure_uid_7fe8xe="107" closure_uid_f0iebu="635" href="http://www.abhivyakti-hindi.org/tukkosh/tukkosh.php?"><span style="font-size: x-large;">अभिव्यक्ति तुक कोश</span></a></div></div><div></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-62658233132842275692011-08-15T19:38:00.003+04:002011-08-22T10:32:54.488+04:00अभि-अनु १५ अगस्त २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibNcHn-HqFV1u9U_kIzEkf8DsdX9emP-cl0sB-2LPlCw5HfMPtKG_n2cgcPylDs06lUnB8UzALPIkUnCa7oGCN8MCApSI5IXgn9iKPBcpoFb2AEVfHHGttdimLl-o4Ct1gIG9paDLrb7w/s1600/unsemilna_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibNcHn-HqFV1u9U_kIzEkf8DsdX9emP-cl0sB-2LPlCw5HfMPtKG_n2cgcPylDs06lUnB8UzALPIkUnCa7oGCN8MCApSI5IXgn9iKPBcpoFb2AEVfHHGttdimLl-o4Ct1gIG9paDLrb7w/s200/unsemilna_s.jpg" width="100" /></a></div><div closure_uid_ay3hy0="123" style="text-align: justify;"><div closure_uid_xo3ql6="112">अभिव्यक्ति के १५ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें नीलम राकेश की कहानी- उनसे मिलना, आचार्य संजीव सलिल की लघुकथा- निपूती भली थी, कैलाश बुधवार की चेतावनी- क्या हम नव-साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक देंगे? अजय ब्रह्मात्मज की कलम से- हिंदी फ़िल्मों में राष्ट्रीय भावना और सुनील मिश्र का आलेख- महेन्द्र कपूर : देशराग के अनूठे गायक। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में सोया टिक्की, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का ३३वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div></div><div closure_uid_ay3hy0="133"><a closure_uid_ay3hy0="134" href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_15_11.html"><span closure_uid_ay3hy0="150" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_15_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhfNnwSSEcj6e6PWhpgp3suZN0ul0B0Wk4SwJDh58YXaWuyR4E2Zz2fbDvq-Dqk6lJjP6QXPcgeIi7s9BuJmEX6hiw36ztlmg34sM6KkvrgVf6vpi8tLMSwhADYPuDyjVsc-CdYp7Df2o/s1600/anu08_15_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhfNnwSSEcj6e6PWhpgp3suZN0ul0B0Wk4SwJDh58YXaWuyR4E2Zz2fbDvq-Dqk6lJjP6QXPcgeIi7s9BuJmEX6hiw36ztlmg34sM6KkvrgVf6vpi8tLMSwhADYPuDyjVsc-CdYp7Df2o/s200/anu08_15_11.jpg" width="119" /></a></div><div closure_uid_ay3hy0="179" style="text-align: justify;"><div closure_uid_og1a5g="120">अनुभूति के १५ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें- देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत प्रतिष्ठित रचनाकारों की बहत्तर काव्य रचनाओं का संकलन- मेरा भारत। </div></div><div closure_uid_ay3hy0="178"><br />
</div><div closure_uid_ay3hy0="174"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_15_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_15_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-74913748655397755512011-08-11T15:37:00.001+04:002011-08-11T15:38:04.117+04:00अभि-अनु ८ अगस्त २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIT-QqgAqnvgB7kTBx1GEHeWXNlhWtYshDfOn_s2kvUvOrwWpmbB7DzL6X4GPH0hQZAGhuh1AQNqJYSFWlNi__KWE0FaphCNfn2-Qdfeoa50iNPwvcLmCcKC2VK6m3kzisLttvV8Rn-XU/s1600/stree_subodhini_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIT-QqgAqnvgB7kTBx1GEHeWXNlhWtYshDfOn_s2kvUvOrwWpmbB7DzL6X4GPH0hQZAGhuh1AQNqJYSFWlNi__KWE0FaphCNfn2-Qdfeoa50iNPwvcLmCcKC2VK6m3kzisLttvV8Rn-XU/s200/stree_subodhini_s.jpg" width="100" /></a></div><div closure_uid_8nyizq="110" style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ८ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें मन्नू भंडारी की कहानी- स्त्री सुबोधिनी, मनजीत शर्मा मीरा का व्यंग्य महँगाई मार गई, डॉ. अनिल कुमार का आलेख- नवगीत- परिप्रेक्ष्य और प्रासंगिकता, अभिलाष अवस्थी की दृष्टि से सूर्यबाला का कहानी संग्रह- गौरा गुनवंती और रति सक्सेना का नगरनामा- सागरी झीलों का शहर त्रिवेन्द्रम। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में चटपटी चीज़ टिकिया, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का ३२वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून नए तेवर के साथ।</div><div closure_uid_1fbty6="181"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_08_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_08_11.html</a> </span></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7gCNS6IlKRxCMTLMpnGwhyphenhyphenjbQLFXtMYzn_JdlaVDdZlbC8BzqXld7u5fCWNng6yQy9ZvdRjq7NUpE7gc5WeoCFsk3_btA-qNKb0oySqvR1fYCfyV3XPhK5mtkcokydL2F9XjS4vHp8N4/s1600/anu08_08_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7gCNS6IlKRxCMTLMpnGwhyphenhyphenjbQLFXtMYzn_JdlaVDdZlbC8BzqXld7u5fCWNng6yQy9ZvdRjq7NUpE7gc5WeoCFsk3_btA-qNKb0oySqvR1fYCfyV3XPhK5mtkcokydL2F9XjS4vHp8N4/s200/anu08_08_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
<div closure_uid_8nyizq="129" style="text-align: justify;">अनुभूति के ८ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में - दिनेश सिंह, अंजुमन में- हरि अनजान, छंदमुक्त में- विक्रम पुरोहित, कुंडलियों में- त्रिलोकसिंह ठकुरेला और पुनर्पाठ में- वीना विज की रचनाएँ। </div><div closure_uid_1fbty6="182"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_08_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_08_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-18273375785131357842011-08-10T21:44:00.003+04:002011-08-11T15:22:26.472+04:00अभि-अनु १ अगस्त २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBQexrCmsoorRXR3fPfJ_KUGL461Y7YtmMhKiiVfmT5CIEyPqjzPUcV9CEqw59j6UZSdDllcoJ6lHZyth9JA7XHoxeyziEXOFj09_UsKfWOio0-iMj9deJHrmEc5atb2kor2HFGpSpGhI/s1600/mahua_ghatwarin_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBQexrCmsoorRXR3fPfJ_KUGL461Y7YtmMhKiiVfmT5CIEyPqjzPUcV9CEqw59j6UZSdDllcoJ6lHZyth9JA7XHoxeyziEXOFj09_UsKfWOio0-iMj9deJHrmEc5atb2kor2HFGpSpGhI/s200/mahua_ghatwarin_s.jpg" width="100" /></a></div><div closure_uid_gn9mlk="141" style="text-align: justify;"><div closure_uid_3rcpj6="120"><div closure_uid_wvneyd="110"><div closure_uid_yqwhi3="119">अभिव्यक्ति के १ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें पंकज सुबीर की कहानी- महुआ घटवारिन, स्नेह मधुर का व्यंग्य- मूँछ, नाक और मनोबल, प्रभात रंजन का आलेख- गोदान के प्रकाशन के ७५ साल, डॉ श्यामसुन्दर दीप्ति का दृष्टिकोण- पिता को वापस आना होगा और पर्यटक के साथ यात्रा में- नयनाभिराम नेपाल। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में आलू की टिक्की, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का ३१वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div></div></div></div><div closure_uid_gn9mlk="151"><div closure_uid_gn9mlk="205"><a closure_uid_gn9mlk="204" href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_01_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_01_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgy3JQ27VaHzvG6QB06n_Gz4ktw7VcVvAv4rvS-dDw6opHzx5D8PZyXRpabx1xu8lhLM5AnLbjp2Fmt-OmJfMnvHuxuYggDGb4d7nULzjKsUMgs8BIUPkYC1fG3yzP83rhAgDf9_hTKv0o/s1600/anu08_01_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgy3JQ27VaHzvG6QB06n_Gz4ktw7VcVvAv4rvS-dDw6opHzx5D8PZyXRpabx1xu8lhLM5AnLbjp2Fmt-OmJfMnvHuxuYggDGb4d7nULzjKsUMgs8BIUPkYC1fG3yzP83rhAgDf9_hTKv0o/s200/anu08_01_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
अनुभूति के १ अगस्त २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में - अमिताभ त्रिपाठी, अंजुमन में- सुबोध श्रीवास्तव, छंदमुक्त में- अश्विन गाँधी, दोहों में- सत्यवान वर्मा सौरभ और पुनर्पाठ में- वसु मालवीय की रचनाएँ। <br />
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<div closure_uid_gn9mlk="219"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_gn9mlk="226" href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_01_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/08_01_11.html</a> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-85836976174094982952011-08-09T09:29:00.001+04:002011-08-11T15:24:28.654+04:00अभि-अनु २५ जुलाई २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiak5kcU2hghZ74ynidezOLv6rP2M3GwlCS2nfu18OT0QH0fRS45hXUCWvuq27FFPaa9iBevc2mszCn6tMfwZMcjcanSSFGYXZm_HpfLArZ0-LwWRWNIESTnHzoX3e0KwJk1BjgfVxbDTI/s1600/kitne_akele_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiak5kcU2hghZ74ynidezOLv6rP2M3GwlCS2nfu18OT0QH0fRS45hXUCWvuq27FFPaa9iBevc2mszCn6tMfwZMcjcanSSFGYXZm_HpfLArZ0-LwWRWNIESTnHzoX3e0KwJk1BjgfVxbDTI/s400/kitne_akele_s.jpg" width="100" /></a></div><div closure_uid_xikra6="161" style="text-align: justify;"><div closure_uid_23nydx="120">अभिव्यक्ति के २५ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें ज्योतिष जोशी की कहानी- कितने अकेले, अश्विन गाँधी के साथ- दो पल में- साहूकार, रघु ठाकुर का आलेख- भारत में फैलता इंडिया, अष्टभुजा शुक्ल का ललित निबंध- सूरज डूब गया और गुरूदयाल प्रदीप से-विज्ञानवार्ता- नैनो टेक्नालाजी या जादुई चिराग इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में साबूदाना टिक्की, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का ३०वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div></div><div closure_uid_xikra6="183"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_xikra6="184" href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_25_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_25_11.html</a> </span></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM-MGe8KCVHD_p75J1ABVULreygBIfdAGpCHPsYYV-jOMtaRbT6L0CZCw0TBULc2Zi4NaBDfgP0MdHnK7I8F5vZwiO4OQ0JaVXh3GOAdzdyd7Up0yNh8LjNRl84FmLE-eGo9UJ2v7DCXY/s1600/anu07_25_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM-MGe8KCVHD_p75J1ABVULreygBIfdAGpCHPsYYV-jOMtaRbT6L0CZCw0TBULc2Zi4NaBDfgP0MdHnK7I8F5vZwiO4OQ0JaVXh3GOAdzdyd7Up0yNh8LjNRl84FmLE-eGo9UJ2v7DCXY/s200/anu07_25_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
अनुभूति के २५ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में - नवीन चतुर्वेदी, अंजुमन में- प्राण शर्मा, छंदमुक्त में- मीनाक्षी धन्वंतरि, हाइकु में- सुदर्शन प्रियदर्शिनी और पुनर्पाठ में- उमा आसोपा की रचनाएँ। <br />
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<div closure_uid_xikra6="181"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a closure_uid_xikra6="197" href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_25_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_25_11.html</a> </span> </div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-1280654641669195522011-08-08T11:40:00.002+04:002011-08-08T11:42:40.622+04:00अभि-अनु १८ जुलाई २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfxCpiDZCs6jVCKvAPc6x21hbk9BYeQIsz1F1fFpR_xfdQjKCWfHLn0LBA5imaUSvmcABYF4acUA-4zjbVtvrC4LUtVYBvvVuvfXIrzwNOWRDbNNtzBLZUKd_YTHJF-DEbRi3m0by5eSM/s1600/ek_streekk_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" naa="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfxCpiDZCs6jVCKvAPc6x21hbk9BYeQIsz1F1fFpR_xfdQjKCWfHLn0LBA5imaUSvmcABYF4acUA-4zjbVtvrC4LUtVYBvvVuvfXIrzwNOWRDbNNtzBLZUKd_YTHJF-DEbRi3m0by5eSM/s1600/ek_streekk_s.jpg" /></a></div><div closure_uid_jaufao="110" closure_uid_nob1j3="127" style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के १८ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें सूर्यबाला की कहानी- एक स्त्री के कारनामे, मनोहर पुरी का व्यंग्य- भ्रष्टाचार हटाने की जरूरत क्या है, अर्बुदा ओहरी से जानें- पता स्वास्थ्य का पत्ता गोभी, भारतेन्दु मिश्र का यात्रा संस्मरण- लौट के बुद्धू घर को आए और सेवाराम त्रिपाठी का आलेख- हिंदी गजल के नये पड़ाव इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में साबूदाना टिक्की, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का २९वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><div closure_uid_nob1j3="111"><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_18_11.html"><span closure_uid_nob1j3="205" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_18_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div><div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhdw5FRTSdFVjOanB7AoNwA5m4MlqciMqV7zrxsDW3Li9Lflf-3dVpFC0RgbwRDW5V_4-xgOg2-LASWdEAVSyMoEabec3xzqoOcDorLochLneq3Ga7eqC3vFry1dVDpGGaCxPh0GOE_zE/s1600/anu07_18_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" naa="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhdw5FRTSdFVjOanB7AoNwA5m4MlqciMqV7zrxsDW3Li9Lflf-3dVpFC0RgbwRDW5V_4-xgOg2-LASWdEAVSyMoEabec3xzqoOcDorLochLneq3Ga7eqC3vFry1dVDpGGaCxPh0GOE_zE/s1600/anu07_18_11.jpg" /></a></div><div closure_uid_nob1j3="173"><div closure_uid_tj69p7="120"><br />
</div><div closure_uid_jaufao="128" closure_uid_tj69p7="120" style="text-align: justify;">अनुभूति के १८ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में - विष्णु सक्सेना, अंजुमन में- नमन दत्त, विज्ञान कविताओं में- संतोष कुमार सिंह, मुक्तक में- श्यामल सुमन और पुनर्पाठ में- उदय प्रकाश की रचनाएँ। </div></div><div closure_uid_nob1j3="173"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_18_11.html"><span closure_uid_nob1j3="213" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_18_11.html</span></a> </div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-83785288966955609122011-07-11T08:43:00.000+04:002011-07-11T08:43:20.266+04:00अभि अनु ११ जुलाई २०११<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1ZFqikzvfPgj-3icMJsqgQD2tJcPpiS6U0g7S-czwTUpmtGv5Hn7SBWQ7lncU6ulPB0X3ML3u1PvXpHfeRWzMz9nOn_TbVTC2KUwbaVvPrnEiDQb8UjJVDJOHxa1rxN9Hwr8DL2GaBXg/s1600/pvs_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1ZFqikzvfPgj-3icMJsqgQD2tJcPpiS6U0g7S-czwTUpmtGv5Hn7SBWQ7lncU6ulPB0X3ML3u1PvXpHfeRWzMz9nOn_TbVTC2KUwbaVvPrnEiDQb8UjJVDJOHxa1rxN9Hwr8DL2GaBXg/s400/pvs_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ११ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें सुमति सक्सेना लाल की कहानी- फिर वही सवाल, आकुल का प्रेरक प्रसंग- कोई अन्याय नहीं किया, उषा राजे सक्सेना का आलेख- ब्रिटेन में हिंदी कहानी के तीस वर्ष, पवन कुमार की दृष्टि में- पंकज सुबीर का उपन्यास- ये वो सहर तो नहीं और दीपिका जोशी का आलेख हरिशयनी एकादशी। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में मटर से भरी आलू की टिक्की, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का २८वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_11_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_11_11.html</a> </span><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgA2Cb3MMjcJwZnL0NOiT7Fdy2VShzsnQNhWjdZ7u0yFdINwAs7FI5M4sLLKCLQJMrHb7wsE0OzD4kk1-NAE_E7LzB05s4q0kupwj2RqKmxP2ElQXGj4G1MGmVT_s-eOJNHI710M_JT-Nw/s1600/anu07_11_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgA2Cb3MMjcJwZnL0NOiT7Fdy2VShzsnQNhWjdZ7u0yFdINwAs7FI5M4sLLKCLQJMrHb7wsE0OzD4kk1-NAE_E7LzB05s4q0kupwj2RqKmxP2ElQXGj4G1MGmVT_s-eOJNHI710M_JT-Nw/s400/anu07_11_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
<div style="text-align: justify;">अनुभूति के ११ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में - गीता पंडित, अंजुमन में- मदनमोहन उपेन्द्र, दिशांतर में- मीरा ठाकुर, हास्य व्यंग्य में- सरोजिनी प्रीतम और पुनर्पाठ में- उदय खनाल उमेश की रचनाएँ। <br />
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_11_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_11_11.html</a> </span></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-89190212882933236262011-07-04T09:34:00.000+04:002011-07-04T09:34:56.135+04:00अभि-अनु ४ जुलाई २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzENS8RLPgeWazv7eS85kbQPExBMxBAQSa0mEJACGYUBzJuCgDiM4RmAehPl_KYEO5BfBWOvZ3Zov2L6wlsK6x7rE3eig-6iOuEnbLPHWUd8P5iA2LF6rXR0ZrGFol9n7Vw5fBCOmR4KE/s1600/pansokha_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzENS8RLPgeWazv7eS85kbQPExBMxBAQSa0mEJACGYUBzJuCgDiM4RmAehPl_KYEO5BfBWOvZ3Zov2L6wlsK6x7rE3eig-6iOuEnbLPHWUd8P5iA2LF6rXR0ZrGFol9n7Vw5fBCOmR4KE/s320/pansokha_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ४ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें जयनंदन की कहानी- पनसोखा, वीरेन्द्र जैन का व्यंग्य- पागलपन के पक्ष में, मनोज श्रीवास्तव का आलेख- प्रवासी हिंदी साहित्य में परंपरा, जड़ें और देशभक्ति, गुरमीत बेदी के साथ पर्यटन में- श्रद्धा और सौंदर्य का संगम मंडी और समाचारों में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में शामी कवाब, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का २७वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_04_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_04_11.html</span></a> <br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9ABdU8bJMalzydC5ZxUh0z0KZHGbrmUI_Wcuq6kCrx__skOAwh2tvwSzvZq0FvEVY15kmMSnRnZKRgouPoAEp1CI5LOZwvzAJf0JibeSgV47YRGwL99te-aTcLzD1OZBVGEQ-fdPgIFQ/s1600/anu07_04_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9ABdU8bJMalzydC5ZxUh0z0KZHGbrmUI_Wcuq6kCrx__skOAwh2tvwSzvZq0FvEVY15kmMSnRnZKRgouPoAEp1CI5LOZwvzAJf0JibeSgV47YRGwL99te-aTcLzD1OZBVGEQ-fdPgIFQ/s320/anu07_04_11.jpg" width="119" /></a></div><div style="text-align: justify;">अनुभूति के ४ जुलाई २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में गीतों में- सुरेश कुमार पंडा, अंजुमन में- बसंत ठाकुर, छंदमुक्त में- नीहारिका झा पाण्डेय, दोहों में- गोपालबाबू शर्मा और पुनर्पाठ में- तरुण भटनागर। <br />
<a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_04_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/07_04_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-77184637060318981482011-06-27T08:03:00.001+04:002011-06-27T08:03:53.022+04:00अभि-अनु २७ जून २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggQQ71g_0mPFzkF_J4Zz3EO_5gmXuzUi2KtbX7sQ8bFXXtdi8gedwSuDO-5t_h2TN_MfnJSwlDuNJH7almS1L1ispxOshutJJZhsqw0v4ooiIUKclWGARAuFREPx48WSAf2Lu8h7ECPd0/s1600/fark_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: left; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggQQ71g_0mPFzkF_J4Zz3EO_5gmXuzUi2KtbX7sQ8bFXXtdi8gedwSuDO-5t_h2TN_MfnJSwlDuNJH7almS1L1ispxOshutJJZhsqw0v4ooiIUKclWGARAuFREPx48WSAf2Lu8h7ECPd0/s320/fark_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के २७ जून २०११ के अंक में पढ़ें हिमांशु श्रीवास्तव की कहानी- फ़र्क, कृष्ण बजगई की लघुकथा- तर्जनी उँगली, गिरीश पंकज का आलेख- नागार्जुन का कथा साहित्य, कमलेश माथुर का निबंध- रूप रंग अमलतास और दयानंद पांडेय की कलम से- शब्दाचार्य अरविंद कुमार। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर के अंतर्गत लक्ष्मी शर्मा के कसूरी मेथी के पकौड़े, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का २६वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_27_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_27_11.html</span></a> <br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUqy_JdgboO7bAMEkrwAJSeJVh3UNHPSh-lXD7PrrhLmRdwhgroeiPkWP7x4ygli9zSbfYOS_LvlvjsqKSUdPLHyqeG7_zKmDwUg5J-wETeYNF4z0c6yuTvjr-HOZCo9ku3xQYSPpUCX8/s1600/anu06_27_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUqy_JdgboO7bAMEkrwAJSeJVh3UNHPSh-lXD7PrrhLmRdwhgroeiPkWP7x4ygli9zSbfYOS_LvlvjsqKSUdPLHyqeG7_zKmDwUg5J-wETeYNF4z0c6yuTvjr-HOZCo9ku3xQYSPpUCX8/s320/anu06_27_11.jpg" width="119" /></a></div><div style="text-align: justify;">अनुभूति के २७ जून २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में ओम प्रभाकर, अंजुमन में प्रभु दयाल, छंदमुक्त में धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन, हाइकु में अमिता कौंडल और पुनर्पाठ में धीरज गुप्ता 'तेज' की रचनाएँ। <a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_27_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_27_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-60974240481269657242011-06-20T09:14:00.003+04:002011-07-04T09:36:14.140+04:00अभि-अनु २० जून २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitwUbAqpFFi8qNIT7JrImikqhifKN20gRPxdnqMR-yYh3RR-rFHD_SYgYFMb6hNwkyL8apgNhT3cuC4I6wlE-xUO2qI6qrhAIR_OAfZRCBBZ9ckpctRHz3cfdscTzfb8omglg64OV8rfo/s1600/palash_ke_phool_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitwUbAqpFFi8qNIT7JrImikqhifKN20gRPxdnqMR-yYh3RR-rFHD_SYgYFMb6hNwkyL8apgNhT3cuC4I6wlE-xUO2qI6qrhAIR_OAfZRCBBZ9ckpctRHz3cfdscTzfb8omglg64OV8rfo/s320/palash_ke_phool_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के २० जून २०११ के पलाश के वृक्ष पर केन्द्रित विशष अंक में पढ़ें अमरकांत की कहानी- पलाश के फूल, रवीन्द्रनाथ त्यागी का व्यंग्य- पूरब खिले पलाश पिया, अर्बुदा ओहरी का आलेख- पेड़ पलाश का, पूर्णिमा वर्मन से जानकारी- डाकटिकटों और प्रथम दिवस आवरणों में पलाश और सुधा गोयल नवीन की पुराण कथा- अग्निदेव का शाप। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में शामी कवाब, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, घर परिवार में इला गौतम का अध्ययन शिशु का २५वाँ सप्ताह और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर। </div><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_20_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_20_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIUklewpO3DYrymkFUJDs2PZAd29HcCgZDC7O3Gc_R0JsDBYeq9dZVtwDilxFYaSuH0Xzt6swwXkNaXTC8nhd4S5H4rX3cuEiT2rboSyGrt4myfw21ryGZMWjyuI3VKARf-quzK2Mjj3k/s1600/anu06_20_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIUklewpO3DYrymkFUJDs2PZAd29HcCgZDC7O3Gc_R0JsDBYeq9dZVtwDilxFYaSuH0Xzt6swwXkNaXTC8nhd4S5H4rX3cuEiT2rboSyGrt4myfw21ryGZMWjyuI3VKARf-quzK2Mjj3k/s320/anu06_20_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
अनुभूति के २० जून २०११ के पलाश विशेषांक में पढ़ें- टेसू के फूल सी ढेर से रंगों में रची बसी, अनेक विधाओं में ढेर सी काव्य रचनाएँ। <br />
<a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_20_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_20_11.html</span></a> <br />
<div></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-48744874533927762282011-06-13T09:39:00.000+04:002011-06-13T09:39:56.385+04:00अभि-अनु १३ जून २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7B2fZyFEqKYMDgzC75cF_lReVeRiq86taWTKJCVIQnscUwHEB0HVIsiAUnaqcTczpKQNrnPGIhaoH1K0FiYenAUzSxIpDzPGnOdSHnjUbvEcb3-8yzC8wFcbbhHg1C-i0fKOoOyJeXxs/s1600/dhundhali_subah_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7B2fZyFEqKYMDgzC75cF_lReVeRiq86taWTKJCVIQnscUwHEB0HVIsiAUnaqcTczpKQNrnPGIhaoH1K0FiYenAUzSxIpDzPGnOdSHnjUbvEcb3-8yzC8wFcbbhHg1C-i0fKOoOyJeXxs/s1600/dhundhali_subah_s.jpg" t8="true" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के १३ जून २०११ के अंक में पढ़ें तेजेन्द्र शर्मा की कहानी- धुँधली सुबह, शरद जोशी का व्यंग्य- नेतृत्व की ताकत, कनीज भट्टी का आलेख- रंग बिरंगी जयपुरी रजाइयाँ, श्रीराम परिहार का ललित निबंध- शब्द वृक्ष और पुनर्पाठ में अंबरीष मिश्र के साथ बनें-हिमालय के हमसफ़र। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में रसोईघर में कमलककड़ी के कवाब, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, फुलवारी में बच्चों के जानकारी और कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><br />
<a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_13_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_13_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaeEQhqNHedihKeLTYNwN7vIS6ZZm_bz8VArANswAmHeEQGNxGI0VWsq7JZjvf26tXOH3M7gh8qg34nzTy3b7ea6FJ3iNcSmSNJSlHHkF6M4e2OzxNVt7DoDqd10kTqDtGhvBi1soIuq0/s1600/anu06_13_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaeEQhqNHedihKeLTYNwN7vIS6ZZm_bz8VArANswAmHeEQGNxGI0VWsq7JZjvf26tXOH3M7gh8qg34nzTy3b7ea6FJ3iNcSmSNJSlHHkF6M4e2OzxNVt7DoDqd10kTqDtGhvBi1soIuq0/s1600/anu06_13_11.jpg" t8="true" /></a></div><div style="text-align: justify;">अनुभूति के १३ जून २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में अमृत खरे, अंजुमन में रणवीर सिंह अनुपम, छंदमुक्त में श्रद्धा यादव, लंबी कविता में सुधा अरोड़ा और पुनर्पाठ मे त्रिलोकीनाथ टंडन की रचनाएँ। <br />
<a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_13_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_13_11.html</span></a> </div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-48020127396890784162011-06-06T10:14:00.004+04:002011-07-04T09:36:54.288+04:00अभि-अनु ६ जून २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJnLxD-DGqaFSEO9xe1dVGd5AEqyB8oDRXNruFfWriBJZtxgimhfooDjcKztp7QKUTA0G6dS-tZypyQlNriYxJCNZPDg-OBDjWfliNX1-cZhxQ7mda1yejuXH3gEXYqlGFPNCUtX6RuwI/s1600/shokvanchita_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJnLxD-DGqaFSEO9xe1dVGd5AEqyB8oDRXNruFfWriBJZtxgimhfooDjcKztp7QKUTA0G6dS-tZypyQlNriYxJCNZPDg-OBDjWfliNX1-cZhxQ7mda1yejuXH3gEXYqlGFPNCUtX6RuwI/s400/shokvanchita_s.jpg" width="100" /></a></div><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ६ जून २०११ के अंक में पढ़ें अशोक गुप्ता की कहानी- शोक वंचिता, नंदलाल भारती की लघुकथा- लैपटॉप, एम.एस. मूर्ति से रंगमंच पर- आंध्र प्रदेश की नाट्य शैलियाँ, विवेक मांटेरो से जानें- परमाणु ऊर्जा- आवश्यकता या राजनीति और पुनर्पाठ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह का आलेख- भोजपुरी में नीम आम और जामुन। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में नया व्यंजन, इला प्रवीण की शिशुचर्या का २३वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर। <br />
<a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_06_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_06_11.html</span></a> </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnUe7dtv1XvkQTMRBPfXEojTqQVn7YKu_NJbe9lVdghqh-9DXKs8loSPOMlAlXhTcPqbimOKOCGzD6rI63by2Q-NUY7xwFGIrhTx-mQNFbVCWS2W-8VHDWfwmfGQtoIvq9jl-4riodcUw/s1600/anu06_06_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="125" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnUe7dtv1XvkQTMRBPfXEojTqQVn7YKu_NJbe9lVdghqh-9DXKs8loSPOMlAlXhTcPqbimOKOCGzD6rI63by2Q-NUY7xwFGIrhTx-mQNFbVCWS2W-8VHDWfwmfGQtoIvq9jl-4riodcUw/s400/anu06_06_11.jpg" width="119" /></a></div><br />
<div style="text-align: justify;">अनुभूति के ६ जून २०११ के अंक में पढ़ें- भारतीय साहित्य और संसकृति सो जुड़े बरगद के वृक्ष पर केन्द्रित अनेक विधाओं में रची इक्कीस काव्य रचनाएँ। <br />
<a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_06_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/06_06_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-15158480790513998802011-05-30T08:58:00.002+04:002011-06-06T10:18:28.029+04:00अभि-अनु ३० मई २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW4yVZA3m7c2y97N3X3UjZk6QgDQn_nDxr6nFrzjlXMSl827PHiYq8U-uz0SaEKRnm7pe3pxEQy_8ARuYm5QPY-qxbDavxHv_caDGMEu23r-0um23wAf0mFKYSXDeQBzrk4a-GTvDxqTA/s1600/savitri_ka_vat_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgW4yVZA3m7c2y97N3X3UjZk6QgDQn_nDxr6nFrzjlXMSl827PHiYq8U-uz0SaEKRnm7pe3pxEQy_8ARuYm5QPY-qxbDavxHv_caDGMEu23r-0um23wAf0mFKYSXDeQBzrk4a-GTvDxqTA/s1600/savitri_ka_vat_s.jpg" t8="true" /></a></div><div style="text-align: justify;"><div style="text-align: justify;">अभिव्यक्ति के ३० मई २०११ के अंक में वट सावित्री के विशेष अवसर पर पढ़ें पुष्पा तिवारी की कहानी- सावित्री का वट, रवीन्द्र खरे की लघुकथा बरगद का दर्द, डॉ. राजकुमार मलिक का आलेख- समय का समरूप बरगद, पुनर्पाठ में कन्हैयालाल चतुर्वेदी का आलेख- क्रांतिकारी घटना का साक्षी वह बरगद तथा समाचारों में देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में नया व्यंजन, इला प्रवीण की शिशुचर्या का २२वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर।</div><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_30_11.html">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_30_11.html</a> </span></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAoZELZd9PYQKt1HO2Nsp6lfLe0RBp9KnaC0AjJbkkjWGs5W6wZ61iiu359jFaAm8k_zCaQvZoyq_5B0WItJB10NOqNaTHHh9UQ7ZnzLdgyESk6hEhupSOM8i4vsYSKhyAbLSHyQFBBng/s1600/anu05_30_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAoZELZd9PYQKt1HO2Nsp6lfLe0RBp9KnaC0AjJbkkjWGs5W6wZ61iiu359jFaAm8k_zCaQvZoyq_5B0WItJB10NOqNaTHHh9UQ7ZnzLdgyESk6hEhupSOM8i4vsYSKhyAbLSHyQFBBng/s1600/anu05_30_11.jpg" t8="true" /></a></div><br />
<div style="text-align: justify;">अनुभूति के ३० मई २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में नवगीत की पाठशाला से चुनी हुई रचनाएँ, छंदमुक्त में डॉ. हरदीप कौर संधु, क्षणिकाओं में वंदना मुकेश, और पुनर्पाठ में सुरेश यादव की रचनाएँ। <span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_30_11.html">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_30_11.html</a> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3529090784800367340.post-74806667188168791492011-05-20T22:00:00.001+04:002011-05-20T22:00:04.729+04:00अभि-अनु २३ मई २०११<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbqj6XHTImrAz5EL7Do7IkYZLFk9FGHqgwW8_18KypAKSg_0-5Zknfem4zIdTrSvpe5hc1GgpZIPgQg-6-VW4z-9UKPI_kbVQXM9wmdF-hDaAxOP6_0GN040uS8CdP_ahSTpa1eERU_FM/s1600/nauterahbais_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" j8="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbqj6XHTImrAz5EL7Do7IkYZLFk9FGHqgwW8_18KypAKSg_0-5Zknfem4zIdTrSvpe5hc1GgpZIPgQg-6-VW4z-9UKPI_kbVQXM9wmdF-hDaAxOP6_0GN040uS8CdP_ahSTpa1eERU_FM/s1600/nauterahbais_s.jpg" /></a></div><div style="text-align: justify;"> अभिव्यक्ति के २३ मई २०११ के अंक में पढ़ें दीपक शर्मा की कहानी- नौ तेरह बाईस, अनूप कुमार शुक्ल का व्यंग्य- फटाफट क्रिकेट और चियर बालाएँ, प्रवीण गार्गव का दृष्टिकोण- लिखे हुए शब्दों के प्रति श्रद्धा, डॉ. मनोज मिश्र का आलेख- दूर संवेदी रिसोर्ट उपग्रह - २ और पुनर्पाठ में महेन्द्र राजा जैन के विचार- क्या उपन्यास लेखन सिखाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त स्थायी स्तंभों में नया व्यंजन, इला प्रवीण की शिशुचर्या का २१वाँ सप्ताह, अलका मिश्रा का आयुर्वेदिक सुझाव, कंप्यूटर की कक्षा में नई जानकारी- साथ में- वर्ग पहेली, नवगीत की पाठशाला, तथा कीर्तीश का कार्टून के नए तेवर। <br />
<a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_23_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.abhivyakti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_23_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div><br />
<div style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyiQy7H_wJ8tQY_UwQJODekMGlKIBCTH_6t4I7G-TAEeHStbSMBX_6VJUjqj_ucGmaDvIWsKLOhVntMY_eLKDELbhJuzFV0a2kdhBZJhYTSvHykyrkJtBolBTnk__hVK6Jiwu3obVaygc/s1600/anu05_23_11.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" j8="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyiQy7H_wJ8tQY_UwQJODekMGlKIBCTH_6t4I7G-TAEeHStbSMBX_6VJUjqj_ucGmaDvIWsKLOhVntMY_eLKDELbhJuzFV0a2kdhBZJhYTSvHykyrkJtBolBTnk__hVK6Jiwu3obVaygc/s1600/anu05_23_11.jpg" /></a><br />
अनुभूति के २३ मई २०११ के अंक में पढ़ें- गीतों में निर्मल शुक्ल, छंदमुक्त में मधुलता अरोरा, विज्ञान कविताओं में रचना दीक्षित, जापानी कविता ताँका में सुधा गुप्ता और पुनर्पाठ में सुनील सिंह सजवान की रचनाएँ। <a href="http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_23_11.html"><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">http://www.anubhuti-hindi.org/1purane_ank/2011/05_23_11.html</span></a><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></div></div>पूर्णिमा वर्मनhttp://www.blogger.com/profile/06102801846090336855noreply@blogger.com1