रविवार, 14 अक्तूबर 2018

समय है संभावना का - जगदीश पंकज / राजेन्द्र वर्मा

आज नवगीत अथवा किसी भी विधा में सामयिक यथार्थ से कटी हुई रचना का कोई महत्त्व नहीं। वायवीय और अमूर्तन से पृथक् यथार्थ के धरातल पर सर्जना और संवेदना की रक्षा का ध्येय ही वास्तविक रचनाधर्मिता है। इस दृष्टि से नवगीत का सरोकार स्पष्ट है और वह अपनी भूमिका सजगता से निभा रहा है। कहना न होगा, आज कितने ही नवगीतकार समय से मुठभेड़ करने में लगे हैं और उनके संग्रहों से हिन्दी काव्य समृद्ध हो रहा है, यद्यपि साहित्य की मुख्य धारा में अभी उसका आकलन शेष है । ऐसे में श्री जगदीश पंकज के नवीनतम संग्रह, समय है सम्भावना का, का आना सुखद है।

समीक्ष्य संग्रह में उनके 69 नवगीत हैं जिनमें सत्ता के छल-छद्म के विविध चित्र खींचे गये हैं। ये चित्र जिस तथ्य को सामने लाते हैं, वे हमारे जाने-पहचाने हैं, लेकिन उनके चित्रण का अन्दाज़ जुदा है। कहीं उनकी अभिव्यक्ति मारक है, तो कहीं आम आदमी को सान्त्वना देने वाली है। इन नवगीतों में तमाम विद्रूपताओं, विडम्बनाओं और हतप्रभ करने वाली स्थितियों पर विजय पाने की ललक बसती है। कवि की दृष्टि अनुभवसम्पन्न है। इससे पूर्व उसके दो नवगीत-संग्रह, सुनो मुझे भी और निषिद्धों की गली का नागरिक प्रकाशित और समादृत हो चुके हैं।...नवगीतकार का मानना है कि आज विरुद्धों के समन्वय का समय है। सृजन की संभावना के वर्तमान दौर में उसने युगीन यथार्थ को स्वर देने के साथ-साथ समय पर प्रतिक्रियास्वरूप अनुभूति के संवेदन को अभिलेखित किया है।... संग्रह से गुजरने पर उसके इस कथन की पुष्टि होती है। साथ-ही, यह सन्तोषप्रद लगता है कि जीवनमूल्यों के निरन्तर क्षरण होते जाने के बावजूद नवगीतकार निराशा के सागर में नहीं डूबता; वह अपने उस संकल्प को विविध रूपों में दुहराता है जो जीवन की उदात्तता को स्थापित करते हैं। इस प्रक्रिया में कवि रचनाधर्मिता को नये-नये आयाम देता है। हिन्दी कविता के जो आलोचक नवगीत कविता पर यह आरोप लगा उसे ख़ारिज कर देते हैं कि गीत वर्तमान यथार्थ की जटिलता खोलने में अक्षम है, उनके लिए यह संग्रह चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है।

सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता वाले हमारे समाज के सामने आज साझी विरासत और वैचारिक स्वतंत्रता पर जो संकट मंडरा रहा है, वह इससे पहले नहीं था, यद्यपि आम आदमी के सामने आर्थिक अभाव और उसके जीवन को दुश्वार करने वाली तमाम बातें मौज़ूद थीं। तब ग़रीब आदमी आपस में मिल-बैठकर कुछ रास्ते निकाला करते थे, जिन्हें निकालने का काम सत्ता-व्यवस्था का था, पर इस प्रक्रिया में धर्म-संस्कृति आड़े नहीं आती थी। आज सामाजिक सद्भाव को जैसे हाईजैक कर लिया गया हो और सहिष्णुता को आहत कर अस्मिता के टकराव की स्थितियाँ उत्पन्न कर दी गयी हैं। सहअस्तित्त्व की अवधारणा ही ख़तरे में है। आश्चर्य की बात यह है कि यह कारनामा सत्ताविरोधी शक्तियों द्वारा नहीं किया गया, बल्कि स्वयं सत्ता द्वारा किया जा रहा है। आर्थिक खाई बढाने के साथ-साथ दुनिया को बाज़ार में बदलने को आतुर पूँजी द्वारा पोषित सत्ता की यह रणनीति अभावग्रस्तता बढ़ा ही रही है, सामाजिक विघटन भी उत्पन्न कर रही है और परिणाम यह है कि लोग भारतीय होने के बजाय छद्म धार्मिक नागरिक हो रहे हैं।... नवगीतकार ने सत्ता के इस षड्यन्त्रकारी चरित्र को संग्रह के अनेक नवगीतों में विविधवर्णी बिम्बों में पूरी मार्मिकता से बार-बार उद्घाटित किया है—
हर पुरानी बाँसुरी में फूँक मारो/फिर सजाओ झूठ का नक्कारखाना/
किन्तु तूती की नहीं आवाज़ आये/इस तरह होता रहे/गाना बजाना । (अब सदन में अट्टहासों को सजाओ, पृ. 19)
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चुभ रहा है सत्य जिनकी हर नज़र को/वे उडाना चाहते हैं/आँधियों से/
या कोई निर्जीव सुविधा/फेंक मुझको/बाँध देना चाहते हैं संधियों से। (थपथपाये हैं हवा ने, पृ. 26)
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जल रहे जनतंत्र की/ज्वाला प्रबल हो/किस अराजक मोड़ पर ठहरी हुई है/
और आदमक़द हुए षड्यन्त्र बढ़कर/छल-प्रपंचों की पहुँच गहरी हुई है। (आ गया अन्धी सुरंगों से, पृ. 27)
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स्वप्नधर्मा रौशनी/फेंकी गयी यों/हर दिवस की आँख/चुँधियाने लगी है/
धनकुबेरों की सबल वित्तीय पूँजी/लाभधर्मा मन्त्र/दुहराने लगी है। (ओस बूँदों में चमकता, पृ. 32)
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आजकल सन्देह/हर विश्वास के आगे खड़ा है/
और दैनिक व्यस्तता का नाप/दिन से भी बड़ा है/
हर व्यथित उत्साह पर अवसाद की होती विजय है/
लग रहा सौजन्य भी संदिग्ध/यह कैसा समय है! (लग रहा सौजन्य भी संदिग्ध, पृ. 113)

किसान, मजदूर, सफाईकर्मी आदि आम आदमी जनतन्त्र के नायक हैं, लेकिन आज उन्हें हाशिये पर भी स्थान नहीं मिल रहा। सत्ता के ठेकेदारों ने केवल वोटों की ख़ातिर सदियों से उनका दोहन किया है। नवगीतकार ने आने कवि-धर्म को पहचाना है और इस दोहन के विरुद्ध खड़े होकर उसके दुख-दर्द को बड़ी ही मार्मिकता के साथ वह वाणी दी है जो पाठक को तिलमिला देती है—
दोपहर की/चिलचिलाती धूप में जो/खेत-क्यारी में/निराई कर रहा है/
खोदता है घास-चारा/मेड़ पर से/बाँध गट्ठर ठोस/सिर पर धर रहा है/
है वही नायक/समर्पित चेतना का/मैं उसी को गा रहा/उद्घोष में भी ।
जो रुके सीवर/लगा है खोलने में/तुम जहाँ पर/गन्ध से ही काँपते हो/
दूरियों को नापकर/चढ़ता शिखर पर/तुम जहाँ दो पाँव/चलकर हाँफते हो/
मैं उसी की/मौन भाषा बोलता हूँ/प्राणपण से/दनदनाते रोष में भी । (ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी, पृ. 23)
अथवा,
गुलमुहर के गीत ही गाते रहे/दूब को हर बार ठुकराते रहे।
वे सजाने में लगे/फुलवारियाँ/हम बचाने में लगे किलकारियाँ/
आदमियत को बचाने के लिए/डाँट हम हर ओर से खाते रहे।
बस महावर और मेंहदी ही लिखे/पाँव के छाले नही/जिनको दिखे/
रोपती जो धान गीले खेत में/वह मजूरिन देख ललचाते रहे। (गुलमुहर के गीत ही गाते रहे, पृ. 31)
या फिर,
जहाँ खड़े थे, तुमने आकर/पीछे और धकेल दिया है/
तुमको अभिनन्दित करने के/क्या हमने अपराध किया है?
चाटुकार ही पास तुम्हारे/खड़े हुए सहयोगी बनकर। (झुकी कमर टूटे कन्धों से, पृ. 77)

लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है, लेकिन आज सत्ता की अराजकता का सबसे बड़ा कारण यही है कि प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने वाला कोई नहीं है : न कोई व्यक्ति, न पार्टी और न ही मीडिया। जो थे, उन्हें विविध प्रलोभनों से सत्ता अपनी ओर मिला रही है। विपक्षविहीन लोकतन्त्र और धृतराष्ट्र के शासन में कुछ अन्तर नहीं। सत्ता अपनी निरंकुशता को लोकतन्त्र की परिधि में लाने को नित नयी रणनीति अपना रही है। नवगीतकार ऐसे में यथास्थिति के विरुद्ध प्रतिपक्ष की भूमिका में उतरता है—
कल तलक था धुर विरोधीपन/अब समर्थन में गरजते हैं।
जब असंगत मेह की बूँदें/हैं बरसतीं/ले विषैला जल/
अम्लता की पोटली खोले/आँगनों में फेंकती हलचल/
अब नज़र मिलती नहीं उनकी/मंच पर ही रोज़ सजते हैं। (कल तलक था धुर विरोधीपन, पृ. 46)
अथवा,
बिका मीडिया फेंक रहा है/मालिक की मंशा परदे पर/
और साथ में बेच रहा है/बाबाओं के भी आडम्बर/
अगर नहीं सो रहे उठो अब/अपने मुँह पर छींटे मारो। (जल्दी से आलस्य उतारो, पृ. 86)
या फिर,
घोषणा है, बन्द कर दो/सब झरोखे-द्वार-खिड़की/
रौशनी की किरण तक भी/आ न पाये इस भवन में । (घोषणा है बन्द कर दो, पृ. 52)

जैसा कि संग्रह का शीर्षक है, नवगीतकार अनेक गीतों में यथार्थ के आकलन के साथ-साथ उदात्तता की कामना करता है। वह अरण्यरोदन-भर नहीं करता, विकल्प तलाशता है और आत्मशोधन से आत्मविश्वास को और प्रबल करता है। वह कबीर और रैदास के अवदान को रेखांकित कर उनकी परंपरा को आगे बढाने की बात करता है और आधुनिक सन्तों, जिन्हें सीकरी से ही काम है, की जमकर ख़बर लेता है। वह बुद्ध के दर्शन में रमने का भी आह्वान करता है, तो अध्यात्म-दर्शन को सकारात्मकता से जोड़ते हुए ठगी और पाखण्ड का विरोध दर्ज़ करता है।... रचना के पड़ावों पर उसने अनेक बार संतुलित सोच और समन्वय की संभावनाओं की तलाश की है और यह कामना की है कि कुछ ऐसा किया जाए कि भीड़ का हिस्सा बन चुके रोबो जैसे हम प्रेम और संवेदना से भरे जीवन को मानवीय गरिमा के साथ जी सके—
प्रेम की, सौहार्द की/सच्चाइयों को शब्द देकर/जागती जीती रहें/सब कारुणिक संवेदनाएँ/
प्राणमय विस्तार हो/हर रोम में अनुभूतियों का/शान्त मन सद्भावना/संचेतना के गीत गाएँ/
आइए, अभियन्त्रणाओं का समय है/हर्षमय संगीत हो/उत्कर्ष पर अब। (समय है सम्भावना का, पृ. 50)
अथवा,
अनसुनी ही लौट आयी/चीख मेरी, पास मेरे/भीड़ में से भी गुज़रकर/हादसों के इस शहर में ।
xx xx xx
हो सके तो अब उठें/समवेत स्वर ले जूझने को/मानवी विश्वास की गरिमा/न डूबे अब ज़हर में।
(अनसुनी ही लौट आयी, पृ. 82)
अथवा,
कुछ उठे यह धरा/कुछ झुके यह गगन/
मन मगन रागिनी गुनगुनाता रहे/भोर से भोर तक गीत गाता रहे। (कुछ उठे यह धरा, पृ. 67) और,
चलो हम भीड़ में खोजे/कहीं थोडा अकेलापन/
मिलन के मुक्त पल लेकर/मयूरा मन करे नर्तन/
किसी मादक छूअन की/गन्ध-सी महके हवाओं में/
दिशाओं में क्षितिज तक/प्राण का होता रहे कम्पन। (नदी के द्वीप पर ठहरा, पृ. 68)

अभिव्यक्ति की आकर्षक शैली, बोलचाल और तत्सम शब्दों से सज्जित भावानुरूप भाषा और विभिन्न छन्दों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा करते हुए अपने लक्ष्य में पूर्णतया सफल हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर रचनाकार ने शिल्प और वस्तु में सामंजस्य बिठाकर यथार्थ को अधिकांशतः प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। रचनाकार ने नवगीतों की भाषा में अपेक्षित लय के लिए गद्य कविता की लय-प्रविधि को अपनाते हुए पंक्तियों में यथावश्यक यति देकर अभिव्यक्ति को पैना किया है, जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि आजकल ऐसे नवगीतों की भरमार है जो सपाटबयानी का शिकार हैं और वे पाठक के मर्म को छू भी नहीं पाते, उन पर घटित होने की बात ही क्या! ऐसे में समीक्ष्य संग्रह अपनी पैनी अभिव्यक्ति और विकल्प की तलाश करती उद्भावना से विश्वास जगाता है कि लोकचेतना से लैस नवगीत अपनी भूमिका में किसी सजग प्रहरी की भाँति डटा हुआ है।... आज के युग के सत्य-तथ्य में हस्तक्षेप करते इस नवगीत संग्रह का हिन्दी संसार द्वारा अवश्य ही स्वागत होगा ।

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