गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

नवगीत का स्त्री पक्ष- रंजना गुप्ता के नवगीत संग्रह सलीबें को पढ़ते हुए


इन दिनों हिंदी कविता की गतिविधियों का केंद्र स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से हट कर पुन: व्यक्ति की समाज में एक स्वतंत्र इकाई के रूप में अपनी गरिमा और महत्ता के अन्वेषण प्रयासों की ओर खिसकती जा रही है ।सूचना क्रांति ने सम्वेदना के भौगोलिक प्रत्यय को निष्प्रभावी बना दिया है ।हालाँकि निष्प्रभावी बनाने की यह घोषणा भी भूगोल की परिधि में ही होती है। इस प्रकार वैश्विकता और स्थानिकता का अपरिभाषेय संश्लेषण मानव सम्वेदना को तरह तरह से परिभाषित कर रहा है ।एक समूह के रूप में व्यक्ति समूह के लिए नहीं अपनी पहचान के लिए एकत्रित हो रहा है।

जीवन की इतनी जटिल स्थितियों में अभिव्यक्ति का सरल होना असम्भव है ।कहीं संवेदनाएँ अभिव्यक्ति पाते पाते मर जाती हैं तो कहीं संवेदनाओं के मारक प्रहारों से अभिव्यक्तियाँ दम तोड़ देती हैं यह स्थिति ऐसी होती है कि हर व्यक्ति अपनी सलीब अपनी पीठ पर लादे घूमता लगता है ।हर क्षण नए नए समझौते जीवन की अनिवार्यता बनते जा रहे हैं यंत्र न होते हुए भी आदमी के यंत्र होते जाने की यह आँखों देखी ही आज की हिंदी कविता का क्रीड़ा क्षेत्र है ।नवगीत एक कविता रूप होने के कारण इन सारे वांछित अवांछित दबाओं से गुज़रते हुए अपनी यात्रा कर रहा है । एक अवसाद का परिदृश्य पर अदृश्य आवरण चढ़ा हुआ है । इसी को डा० रंजना गुप्ता का नवगीत संग्रह’ सलीबें’ प्रमाणित करता है ।

उन्नीस सौ अठ्ठावन में इन्हीं पूर्वाभासों के कारण एक नये गीत प्रारूपों की आवश्यकता महसूस की गयी और पाँच फ़रवरी उन्नीस सौ अठ्ठावन को ‘गीतांगिनी’ के के प्रकाशन के साथ ही नवगीत नामक नई गीत विधा की प्रस्तावना लिखी गयी ।यद्दपि नवगीत के उद्भव और विकास को लेकर हमारे पास अब कई धारणायें हैं किंतु ये सच है कि नवगीत ने जीवन की सूक्ष्म मानसिक क्रियाओं को काव्य विषय बनाया और ऐसा करने के लिए उसने स्थूल शारीरिक क्रियाओं को अपना उपकरण बनाया ।यही कारण है कि नवगीत में वे सारी बातें भी स्थान पा सकीं जो गीत से बहिष्कृत थीं ।इसलिए यह मानना उचित होगा कि नवगीत एक स्वतंत्र काव्य विधा है जो नव और गीत का एक जटिल काव्य यौगिक है जिसमें नव और गीत अपने आधार गुणों को खो चुके हैं । नवगीत में नव को विशेषण मान कर गीत का नया रूप नहीं माना जा सकता गीत में इतिवृतात्मकता होती है और नवगीत में बिम्बधर्मी संकेत।

रंजना गुप्ता के नवगीत संग्रह ‘सलीबें’से गुज़रते हुए यह महसूस हुआ कि उनके मन में अपनी अभिव्यक्ति को लेकर एक आतुरता तो है किंतु प्रकट करने की विधि को लेकर एक अनिश्चितता भी है ।इसका संकेत उनके नवगीत सम्बंधी दृष्टिकोण से जो कुछ कुछ अमूर्त और छाया वादी लगता है मिलता है-’ वस्तुतः नवगीत गीत की वह आधुनिक विधा है जो आत्म चेतना और लोक संवेदना के दर्द से सीधा संवाद करती है..जन जीवन के दैनिक संघर्ष और उससे जुड़ी सघन समस्याओं को उनकी वैचारिक बेचैनियों के साथ प्रतिबद्धता से तादात्म स्थापित कर संवेदना की क़लम से लिखी जा रही है ..एक सधा हुआ शिल्प विधान और दर्द से मुक्ति का यह संधान जब समय के पन्नों पर उतरता है तो एक मूर्तिकार की तपस्या ..एक कलाकार की साधना ..एक सुगठित नृत्य विधान का संतुलन ...एक कवि की आत्मा उसमें साकार हो उठती है...विश्व सुमंगल अवधारणा ..पर्यावरण संचेतना ..आमजन की पीड़ा ..प्राणी जगत की त्रासद स्थितियों ..आत्म संघर्ष और लोक संघर्ष की जिजीविषा सब कुछ समाहित कर लेने की अपार सिंधु सी क्षमता आज के नवगीत में पूरी शिद्दत से मौजूद है ।’
इस प्रकार रंजना गुप्ता अपने काव्य आग्रहों को प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देती हैं और उनके गीत इसको प्रमाणित भी करते है।

’सलीबें’ नामक नवगीत संग्रह में डा०रंजना गुप्ता के क़थ्य और भाषा का द्वन्द हर जगह दिखाई देता है ।उनका काव्यानुभव और उनका जीवनानुभव नवगीत को अपना मैत्री स्थल बनाते हैं वे अपने आत्म क़थ्य में लिखती भी हैं ‘लिखना’ कभी ‘लिखना’ नहीं रहा मेरे लिए ..व्यवसाय ..घर और जीवन के हर कदम पाँवों को उलझाती समस्याओं से संत्रास के बीच जो किसी भाँति बच पाया ..उस लेखन...उस रचनात्मकता के विलोड़न से उपजा नवनीत ही नवगीत बन गया है..’

‘भीगे मन के बैठ किनारे
कब रातों के हुए सबेरे
लिखता कौन ..?लिखाता कोई..
यूँ शब्दों ने डाले घेरे …’
(पेज नम्बर २६)

संग्रह का प्रारम्भ जिस नवगीत से होता है उसका शीर्षक का’नियति’ ।वर्तमान के खुरदरे जीवन व्यापारों से एक अकेली स्त्री का गरिमापूर्ण आत्मपरिचय इन पंक्तियों से बेहतर और क्या होगा ?

‘मैं नियति की
क्रूर लहरों पर सदा से
ही पली हूँ

जेठ का हर ताप
सहकर
बूँद बरखा की चखी है
टूट कर हर बार जुड़ती
वेदना मेरी सखी है

मैं समय की भट्टियों में
स्वर्ण सी पिघली
गली हूँ’

नियति की बात करते हुए भी नवगीतकार कहीं दीन हीन नहीं प्रतीत होता ।हालाँकि वह अपने जीवन संघर्षो का एक काव्य चित्र प्रस्तुत करता है ।जो मर्म स्पर्शी तो है किंतु गौरव बोध से लबरेज़ भी ।नवगीत कार को अपनी जिजीविषा पर पूरा भरोसा है और वह अपना मूल्य भी जानती है ।उपरोक्त पंक्तियाँ बरबस ही महीयसी महादेवी वर्मा की याद दिलाती हैं ।संग्रह में अनेक नवगीत स्त्री विमर्श के अनेक अनछुए पहलुओं को स्पर्श करते हैं ।एक गीत है जिसका शीर्षक है’ मछली’।यह नवगीत भी उपरोक्त ‘नियति’ नवगीत से प्रारम्भ हुई यात्रा का अगला पड़ाव है ।इस नवगीत में भी समाज में स्त्री के आत्म बोध को रेखांकित करते हुए उसे सतर्क रहने का सुझाव दिया जा सकता है। सारे प्रगति शील विचारों ,आंदोलनों ,और क़ानूनों के बाद भी स्त्री के साथ आदि काल से होता हुआ छल अभी तक निर्बाध चल रहा है ।इस नवगीत में स्त्री को मछली और दुनियादारी को सूखे ताल की प्रतीकात्मक संज्ञा देकर बड़े कोमल ढंग से स्त्री की सांप्रतिक आशंकाओं का काव्य वर्णन किया गया है।
‘मछली’ शीर्षक पूर्वोक्त नवगीत की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--

‘सूखे सर
सब सूखे ताल
कह री मछली
क्या है
हाल ?

जल निर्मम है
तू क्यों रोए
तुझे छोड़
वह सबका होय

तेरे सर पर
सौ जंजाल
कह री मछली
क्या है हाल ?’

यद्दपि आजकल स्त्री विमर्श में जिस तरह की भाषा का प्रयोग स्वयं स्त्री रचनाकारों द्वारा किया जा रहा है डा०रंजना गुप्ता की यह शिल्प मर्यादा हो सकता है अतिरेकवादी ओजस्वी और अराजक स्त्री विमर्श कारों को अधिक न रुचे, किंतु भारतीय काव्य भाषा की शालीनता का अनुरक्षण किए जाने की आवश्यकता इन दिनों प्रज्ञा सम्पन्न समीक्षकों द्वारा महसूस की जा रही है ,और डा० रंजना गुप्ता इस कसौटी पर सम्मानजनक अंक प्राप्त करने में समर्थ हैं ।

प्रसिद्ध मराठी स्त्री लेखन अध्येता विद्दुत भागवत ने उन्नीस सौ सड़सठ के बाद मराठी लेखिकाओं के लेखन को ‘प्रतिरोध का साहित्य’ कहा है और इस बात पर ज़ोर दिया है कि महिला रचना कारों ने अपनी रचनाओं में जिन चिंताओं और चुनौतियों का उल्लेख किया है उनका अध्ययन किया जाना चाहिए ।स्त्री लेखन में रचनाकारों ने स्त्रियोचित मानसिक और दैहिक आख्यान रचते हुए भी अपनी सामाजिक और धार्मिक जकड़नों से मुक्त होने की एक ही जैसी ललक नहीं दिखाई है ।स्त्री लेखन देह और मन का एक ऐसा तिलिस्म है जिसमें फँस कर स्त्री रचनाकार भी रह जाती है हिंदी में यह विमर्श उपन्यास और कहानियों में ज़्यादा मुखर हुआ है ,किंतु एक विशेष विचार प्रस्तुति के नियंत्रण में ।कविता विशेष रूप से नवगीत में यह अक्सर भावनात्मक अतृप्ति के रूप में सामने आता है। संग्रह के ‘जंगल’ शीर्षक से कुछ पंक्तियाँ उदधृत की जा रही हैं --

‘जंगल जंगल घूम घूम कर
बादल पानी माँग रहा है

ठिठक गई है छोटी चिड़िया
और हुआ आवाक् पपीहा
मौसम ने चिठ्ठी बाँची है
आने वाला कल गिद्धों का

बीघा बीस तीस तक रेती
हिरणी मन आकण्ठ भरा है’

डा० रंजना गुप्ता का जीवन अनुभव महानगर के जद्दो जहद में रहने वाले एक आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत सुरक्षित किंतु सक्रिय दिनचर्या का प्रति फलन है, समग्रता में जीवन उनकी दृष्टि में तो है, किंतु हर समय अनुभव में नहीं, और यह अस्वाभाविक भी नहीं ।जीवन को समग्रता में देखने की ललक होनी चाहिए ताकि रचना में अपने अतिरिक्त दूसरों को भी स्थान दिया जा सके ।दूसरों को स्थान देने का मतलब दूसरों के अनुभव को जानकार शब्दाँकित करना है, न कि दूसरों के अनुभव को अपने अनुभव की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास ।इन दिनों इस तरह के लेखन प्रयासों की बाढ़ आ गई है ।इससे बचना ही श्रेयस्कर होगा ।रचना कार को शोषित पीड़ित जनों का पक्षधर होना चाहिए ।

किंतु ऐसा करने के लिए किसी छद्म का आश्रय नहीं लेना चाहिए रचना कार का यह नैतिक दायित्व है कि वह जीवन समाज व्यवस्था में पाई जाने वाली हर कुरूपता विद्रूपता और मानव द्रोही स्थितियों का इतने मर्म स्पर्शी ढंग से वर्णन करे कि पाठक के मन में पहले घृणा का ज्वार उठे और फिर यह ज्वार उसे आवश्यक और वांछित परिवर्तनों के लिए प्रेरित करे ।नवगीत में दूसरी विधाओं की तुलना में यह एक कठिन कार्य है और ज़्यादा कुशलता की माँग भी करता है ।नवगीत का कोई शास्त्रीय मानक अभी तय नहीं हुआ है पर यह एक जीवित और कार्यशील विधा है ।इसकी विधागत विशेषताओं का समेकन इसीलिए अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है ।इसीलिए किसी विशेष बाट बटखरे से न तो इसे तौला जा सकता है और न ही इसे किसी स्केल से नापा जा सकता है ।शायद यही कारण है कि डा०रंजना गुप्ता कभी कभी अपनी मुखरता छोड़ कर आत्मलाप में लगी दीखती हैं इस संग्रह के एक नवगीत’पलाश’ की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--

‘धुएँ घुटन से
भरे उजाले
पड़े हुए साँसों के लाले
देह कोठरी है
काजल की
बगुले जैसे मन भी काले
लम्हा लम्हा
जटिल ककहरा
एक एक अक्षर पर अटकूँ’

बाह्य स्थितियाँ जब असंतुष्टि और असहमति देतीं हैं और रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति को साफ़ साफ़ प्रस्तुत करने में किन्ही कारणों से संकोच महसूस कर रहा हो ,तो उसे इसी तरह एक एक अक्षर पर अटकना पड़ता है ।बहुत कुछ कहना है लेकिन कहने की अपनी मर्यादा है ऐसे में यह सापेक्षिक संकोच की स्थिति पैदा होती है ।जो कुछ महसूस होता है वह इसी स्थिति संकोच के चलते अस्पष्ट अमूर्त और असमंजस पूर्ण हो जाता है अपने प्रकटी करण में ।फिर घुमा फिरा के कहने की शैली का आश्रय लिया जाता है ताकि मर्यादा भी बनी रहे और जो कहने लायक़ है कहा भी जा सके ।’वर्ष’नवगीत की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य है --

‘जनम जनम हम
जिनको सहते
स्वजन उन्हें ही
कहते रहते
लोग पराए रहे पराए
पीर ह्रदय की
किससे कहते ?

सहमी सहमी सी
भयभीता
वन की हिरणी
बनी है सीता’

स्त्री विमर्श का यह जाना पहचाना किंतु अस्थायी अध्याय है ।बार बार स्त्रियाँ अपनी सामाजिक ,आर्थिक और वैयक्तिक चिंताओं से साहित्य को परिचित कराती रहीं किंतु साहित्य यहाँ अधिक प्रभाव शाली नहीं दीखता ।होता यह है कि स्त्री रचना कार अपनी नियति को अलग अलग कारणों से स्वीकार कर कभी अमृता प्रीतम बन जाती है तो कभी क़मला दास ।कुछ ज़्यादा स्पष्ट हुई तो मृदुला गर्ग या प्रभा खेतान बन जाती है ।जबकि ज़रूरत है कि स्त्री लेखिकाएँ तसलीमा नसरीन बनें ।और अपनी मुक्ति का युद्ध स्वयं लड़े ,शत्रु और समय की सारी साज़िशों का मुँह तोड़ जवाब देते हुए ।जैसी स्थितियाँ वर्तमान में हिंदी या यूँ कहें कि पूरे भारतीय साहित्य में बन रहीं हैं उनमें तो किसी भी तसलीमा नसरीन को निर्वासन और पलायन का हर क्षण आक्रमण झेलना ही पड़ेगा ।अधिकतर स्त्री लेखिकाएँ बेचारगी को अपना हथियार बनाती हैं ।डा०रंजना गुप्ता के इस संग्रह में एक गीत है ‘कंदील’।जिसमें स्त्री मन अपनी शक्ति हीनता के स्थान पर अपनी शक्तिमयता का परिचय दे रहा है --

‘गढ़ लेती हैं परिभाषाएँ
पढ़ लेती
मन की भाषायें
उन्मीलित दीप शिखा
जल जल
कीलित करती हर बाधाएँ

दीपो भव
‘अप्प’ भवो दीपो’
हर पल हर पल
निर्मल निर्मल’

अपने आस पास की घटनाओं पर टिप्पणी करते डा०रंजना गुप्ता मिथकीय पदों की शरण में चली जाती हैं और दार्शनिक होने का प्रयास करती दीखती हैं ।अभिव्यक्ति का यह एक ऐसा क्षण होता है जब विचारों के आवेग में सब कुछ गडमड हो जाता है -शब्द संयोजन ,शिल्प अनुशासन ,यथार्थ की धुँधली प्रस्तुति सब एक साथ प्रस्तुत होने के लिए धक्का मुक्की करने लगते हैं ।संग्रह की एक रचना ‘आवर्तन’ इसका उचित उदाहरण है-अनुवीक्षण ,दर्शन,व्यवहार,विश्वास, लोकाचार और अंत में आस्था के प्रति प्रतिबद्ध समर्पण ।एक कुशल और कुछ अलग क़िस्म का नवगीत।पूरी रचना में कभी कभी एक तर्क से उपजी अनिश्चितता दिखाई पड़ती है ।जो कहना है वह कहना चाहिए कि नहीं का संकेत भले बहुत ही हल्का लेकिन मिलता है --

‘आँखों देखा मिथ्या करती नास्तिकता
लाचारी है लोक ह्रदय की अस्तिकता

पल पल दृश्य मान सत्य का वह गर्जन

जल समाधि में भी जीवित इतिहास रहा
न्याय पृष्ठ पर थर्राता परिहास रहा

धीमें धीमें गहन शोध का नव अर्चन

क्यों उदास है राम सिया का ‘रामचरित’
जन मन का सैलाब नमन कर रहा मुदित

भावों के ही राम भाव का ही अर्पण ‘

रंजना गुप्ता के नवगीतों में शालीनता इतनी गाढ़ी है कि कभी कभी संवाद भी आत्मालाप लगते हैं लेकिन उमड़ती घुमड़ती बेचैनियाँ बाहर आ ही जाती हैं , और उनका स्पर्श पाठकों को भी बेचैन कर देता है ।संग्रह के’ आँसू’ ‘पीड़ा’’सिलवटें’’रूप’और ‘मछेरे’शीर्षक के नवगीत रचना कार के मानस के प्रवेश द्वार हैं ।पूरे संग्रह में कहीं भी भद्र लोक की निर्धारित मर्यादा का उल्लंघन नहीं हुआ है । यह एक बड़ी बात है।इन दिनों मुखर और अनुशासन हीन वार्ता शैली का लेखन में प्रचलन है ।कहा जाता है कि जो सामान्य जीवन में है वही लेखन में भी होना चाहिए। सरसरी तौर पर ऐसा सही लग सकता है किंतु लेखन सिर्फ़ संवादों और घटनाओं का शब्द चित्र ही है तो तो वह वांछित सांस्कृतिक़ता का त्याग कर देता हैऔर अपने बृहत्तर सामाजिक सरोकारों से मुँह चुरा कर आत्मकेंद्रित होने के लिए अभिशप्त हो जाता है।लेखन सामान्य अर्थ में एक शब्द रचना है किंतु इस रचना को सृजन बनने के लिए सांस्कृतिक होना पड़ेगा। हमें याद रखना चाहिए कि हममें जो है वह सभ्यता है और हममें जो होना चाहिए वह संस्कृति है ।साहित्य विशेष रूप से कविता और वर्तमान में नवगीत ,सभ्यता के इसी सांस्कृतिक होने की इच्छा है ।मोटे तौर पर नवगीत इसी स्थान पर आकर अन्य काव्य विधाओं से अलग हो जाता है ।’आँधी’नवगीत से कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--

‘प्रतिमानों को गढ़ने वाले
रणभूमि में ध्वस्त पड़े हैं
नैतिकता के मानक सारे
छल प्रपंच के साथ खड़े हैं--

डूब गया दिन में ही सूरज
अभिमन्यु का समर अभी है ‘

संस्कृति एक तरह से सभ्यता का अतृप्ति पर्व भी है ।सदा महसूस होता है कि जो है उसके अलावा भी कुछ होना चाहिए था जो नहीं है ।’यह जो नहीं है’ की ओर यात्रा ही एक सांस्कृतिक उपकृम है।साहित्य और कलाओं की जननी ।यह बात दूसरी है कि कौन कैसे यह यात्रा करता है..? रंजना गुप्ता की यह नवगीत यात्रा भी उसी ‘जो नहीं है’की खोज है और अपने चरित्र में पूरी तरह सांस्कृतिक ।यह’जो नहीं है’ इसका एक पथ यदि भविष्य से सम्बंधित है तो दूसरा पाठ भूतकाल से भी सम्बंधित है। ‘दीप देहरी’ नवगीत में यह भूतकालिक ’जो नहीं है’ उपस्थित हुआ है--

‘ कुछ कमल विलग थे
जल से और
कुछ जल का भी मन टूट गया
बदरंग समय की स्याही थी
कुछ नाम पता भी छूट गया
उन खुले अधखुले नयनों से
अनजाने पावस झर आया ‘

समय की माँग है कि हर क़दम पूरी सावधानी के साथ फूँक फूँक कर रखा जाय नहीं तो कुछ भी अन्यथा घट सकता है ।चारो तरफ़ अविश्वास और अनिश्चय का जो फैलाव है उसमें कुछ भी असम्भव नहीं है ।बेलगाम दुर्घनाओं का समय है हमारा वर्तमान ।एक षड्यंत्र में सब लिप्त दिखते हैं ।’समय’शीर्षक नवगीत में रंजना गुप्ता ने समय के इस रूप को इस तरह से प्रस्तुत किया है---

‘त्रासदी है
वंचना के शस्त्र हैं
परख पैमाने सभी
के ध्वस्त हैं
झूठ का तम
घिर रहा घनघोर है’

अनुवीक्षण का सातत्य कभी कभी परिचित वस्तुओं के अपरिचित गुणों का उदघाटन करता है ।और जो समझा जा रहा था उसको न समझने का मन होने लगता है एक साथ कई तरह की प्रतीतियाँ होने लगती हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना बहुत कठिन होता है ।संग्रह का एक गीत ‘कर्ण’इसकी गवाही देता है--

‘छल भरे इस युद्ध में
वह जी रहा संत्रास अपना
बाँसुरी चुप है
नहीं कुछ बोलती
सुन रही है
शंख की उद्घोषणा
स्वर्ण रथ से सूर्य भी
उतरा थका सा
हार कर
पाण्डुवंशी न्याय का
ध्वज झुक गया है ‘

रंजना गुप्ता के नवगीत अपने आग्रहों में जितने आधुनिक हैं उतने उपकरण चयन में नहीं ।सम्वेदनात्मक आवेग और नये बिम्ब संधान से रचना में एक मौलिकता पैदा होती है और यदि प्रस्तुति के उपकरण अर्थात भाषिक मुद्राऐँ आधुनिक हों तो एक आकर्षक और संतृप्त करने वाली ताज़गी रचना में आती है ।यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि पुराने हथियार से नया युद्ध नहीं लड़ा जा सकता ।तेज़ी से डिजिटलाइज्ड होती दुनिया हमारी आत्मीयता को बड़ी तेज़ी से औपचारिकता में बदल रही है ।अब आभासी वास्तविक से ज़्यादा समर्थ और सक्रिय है जो कि दिख रहा होता है कभी कभी वह होता ही नहीं ।व्यक्ति बदल रहा है क्योंकि उसका मन बदल रहा है ।बदला व्यक्ति मन समाज की सामूहिकता को अजब आकार दे रहा है ।परिभाषित सम्बंध भी अपरिभाषेय होने लगे हैं ।ऐसे में शब्द की लय से ज़्यादा अर्थ की लय महत्वपूर्ण हो गई है ।इन सारी जटिलताओं का मतलब अपने सामाजिक दायित्वों से मुँह फेरना नहीं है भले स्थिति का निर्णयात्मक और निर्विवाद आकलन करना मुश्किल हो। समाज में रहते हुए हम तटस्थ और असंपृक़्त नहीं रह सकते ।सारी ऊहापोह को छोड़ कर जो समझ में आए वैसा हस्तक्षेप हमें सामाजिक क्रियाओं में करना चाहिए ।चाहे यह एक कटु टिप्पणी ही क्यों न हो ।यह एक असहज कर देने वाली स्थिति होती है ।’खिड़की’ शीर्षक नवगीत में इसी ऊहापोह और असहजता पर टिप्पणी की गई है --

‘छाँव पर छेनी चलाती हैं
हवाएँ
कस रहीं है तंज
शाख़ों पर दिशाएँ
उड़ सके नन्हें परों से
फिर गगन में
क़ैद से इन तितलियों को
छोड़ देते ‘

स्पष्ट है कि रचना कार तितलियों के क़ैद में होने से व्यथित है और अफ़सोस व्यक्त कर रहा है कि काश उन्हें छोड़ दिया जाता ।पूरे संग्रह में आम आदमी की जीवन चर्या से जुड़े अनेक विषयों जैसे-राजनीति ,सामाजिक संक्रमण,रोज़गार,ग़रीबी,असमानता पर नवगीत हैं। यह संग्रह आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के द्वन्द की परिणिति होने का परिचय देता है।

सारे युग बोध के बाद भी रूमान सदा से एक काव्य मूल्य रहा है और रहेगा क्योंकि यदि रुमान न होता तो कोई कविता सम्भव ही नहीं थी ।जीवन के हर क्रिया बोध का निस्पंद सिर्फ़ और सिर्फ़ रुमान है ।कुछ लोग जीवन की साम्प्रतिक़ता को जिसे वे यथार्थ कहते हैं रुमान से अलग मानते हैं जबकि जीवन में जो कुछ भी हो रहा है उसका संचालन तत्व रुमान ही है ।डा० रंजना गुप्ता भी यथार्थ की तपती धूप में चल रही गर्म हवा में नमी की तरह अपने प्रेम राग का गायन करती हैं ।संग्रह के ‘स्त्री’ शीर्षक गीत में उनके मनोभाव कुछ इस तरह से व्यक्त हुए हैं--

‘तुम पुरुष नहीं हो सकते
मेरे स्त्री हुए बिना
……………………
गर्म रेत पर चली
स्त्री सदियों से
चुप चाप गुज़रती रही
अंधेरी गलियों से
तुम धूप नहीं हो सकते
मेरे छाया हुए बिना…’

इन पंक्तियों को प्रेम का स्त्री पक्ष कहा जा सकता है।किंतु इससे प्रेम के स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य होने की पुष्टि भी होती है ।संग्रह में अनेक गीत जैसे ‘बसंती राग’ ‘रतजगे’’बसंत’’फागुन’ और ‘प्यार तुम्हारा’ आदि इस बात को स्थापित करते हैं कि कितनी ही विषम और जटिल परिस्थिति क्यों न हो रुमान का पौधा कभी नहीं सूख सकता ।

संग्रह की भूमिका में प्रसिद्ध नवगीत कार मधुकर अस्थाना रंजना गुप्ता के नवगीतों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि ‘’ अनुभूतियों में संवेदनात्मक ताज़गी ,मौलिकता और बहुश्रुत प्रतीकों के माध्यम से कथ्य का संप्रेषण उन्हें प्रथम संग्रह से ही महत्व पूर्ण बनाने में सफल है ।रागात्मक अंत:चेतना से उपजी यथार्थ मार्मिकता करुणा का विस्तार करती है ।उनकी रचनाओं में वायलिन का दर्द भरा सुर है या प्रिय को टेरती वंशी की धुन है जिसे हम समझ तो नहीं पाते पर मन के भीतर एक टीस जगा देती है कुछ अनबूझी ,अनजानी सी।’’

कोमल कमनीय शब्दों वाले इस गीत संग्रह की अर्थ व्याप्ति कहीं कहीं इतनी खुरदरी है कि पाठक के मर्म को स्पर्श ही नही करती बल्कि उसे छील देती है ।बिना क्रुद्ध हुए शालीन और सौम्य मुद्राओं वाले इन नवगीतों के सृजन के लिए डा०रंजना गुप्ता की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।आशा है यह संग्रह सिर्फ़ नवगीत संग्रह के रूप में ही नहीं बल्कि नवगीत के प्रांजल ,शालीन स्त्री हस्तक्षेप के लिए भी उचित सत्कार प्राप्त करेगा ।

- गणेश गंभीर का आलेख

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें