बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

पूर्णिमा वर्मन की नन्ही बाल कहानियाँ और शिक्षण में उनका उपयोग



प्रवासी भारतीय बाल साहित्यकारों में पूर्णिमा वर्मन का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। पूर्णिमा जी संयुक्त अरब अमीरात के शारजाह नामक नगर में निवास करती हैं। वर्ष १९९५ वेब पर नियमित रूप से उपस्थित वे 'अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ नामक वेब पत्रिकाएँ निकाल रही हैं, जो अंतरजाल पर हिंदी में नियमित प्रकाशित होनेवाली पहली वेब पत्रिकाएँ हैं। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने न केवल भारतीय, बल्कि प्रवासी एवं विदेशी हिंदी साहित्यकारों को एक साझा मंच प्रदान किया है। हिंदी के प्रति उनकी अमूल्य सेवाओं के लिए उन्हें भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान समेत विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित किया जा चुका है। पूर्णिमा जी ने कहानी, कविता, नवगीत, साहित्यिक निबंध, स्तंभ लेखन, हास्य-व्यंग्य आदि विविध विधाओं में लेखन किया है। उन्होंने बच्चों के लिए भी सुंदर कहानियाँ-कविताएँ रची हैं। ख़ासतौर पर शिशुओं के लिए लिखी उनकी नन्ही कहानियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। 

शिशुओं के लिए रचनाएँ लिखना अत्यंत कठिन साधना है। शिशुओं का भाषा ज्ञान अत्यंत अल्प होता है। आस-पास के वातावरण एवं घटनाओं के कारण-कार्य संबंध के प्रति उनकी समझ सीमित होती है। अतः उनके मानसिक समझ के दायरे और भाषा की सीमा़ को आत्मसात किए बिना अच्छी शिशु कहानियाँ लिखा जाना संभव नहीं है। कहना न होगा कि पूर्णिमा जी की कहानियाँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। पूर्णिमा जी ने शिशुओं के लिए लगभग पाँच दर्जन रचनाएँ लिखी हैं। वेब पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ (http://www.abhivyakti-hindi.org) में प्रकाशित इन कहानियों में ‘भालू, तितली और फूल’(20.08.12), ‘मछलीघर’(03.09.12), ‘धमाचौकड़ी’(17.09.12), ‘चित्रकला’(01.10.12), ‘सुलेख’(15.10.12), ‘पुस्तकालय’(29.10.12), ‘दीपावली’(12.11.12), ‘फूलों से बातें’(26.11.12), ‘फिसलपट्टी’(03.12.12), ‘आसमान की सैर’(10.12.12), ‘संगीत की धुन’(17.12.12), ‘सर्कस’(10.12.13), ‘जादू वाली शाम’(31.12.12), ‘बागबानी’(07.01.13), ‘बर्फ का पुतला’(14.01.13), ‘शुभ रात्रि’(21.01.13), ‘खेल का मैदान’(28.01.13), ‘टेलिविजन’(04.02.13), ‘तितलियाँ’(11.02.13), ‘हवाई जहाज’(--.02.13), ‘पत्र’(25.02.13), ‘लैपटॉप’(04.03.13), ‘उड़ने वाली भेड़’(11.03.13), ‘कागज के हवाई जहाज’(18.03.13), ‘होली’(25.03.13), ‘चरखीवाले झूले’(01.04.13), ‘तरणताल’(08.04.13), ‘वाटर-पार्क’(15.04.13), ‘राम नवमी’(22.04.13), ‘गाँव की सैर’(29.04.13), ‘खाने का समय’(06.05.13), ‘चित्रकारी’(13.05.13), ‘सपना’(20.05.13) आदि के नाम लिए जा सकते हैं।

उनकी एक कहानी है ‘भालू, तितली और फूल’। कहानी का आरंभ कुछ यों होता है-‘‘नेहा लड़की है, छोटी-सी। भालू खिलौना है, बड़ा-सा। भालू नेहा का दोस्त है। नेहा और भालू साथ-साथ रहते हैं।’’ (अभिव्यक्ति, 20 अगस्त 2012) कहानी का आरंभ बेहद सरल वाक्यों से होता है। शब्द ऐसे कि शिशु उन्हें आसानी से पढ़ और समझ ले। बच्चों को मनोरंजन उपलब्ध कराने के साथ ही लेखिका उन तथ्यों का समावेश करना नहीं भूलती, जो बच्चे की समझ को और साफ कर सकें और उसके अध्ययन में मददगार बन सकें। इन पंक्तियों के आरंभ में ही लेखिका बच्चों को ‘आकृति और स्थान’ का परिचय देने की कोशिश करती है, जो गणित-शिक्षण की पहली सीढ़ी है। संख्या ज्ञान देने से पूर्व बालक को अंदर-बाहर, छोटा-बड़ा, ऊपर-नीचे, पास-दूर इत्यादि की जानकारी दी जानी आवश्यक है। वस्तुतः ‘‘हमारे आस-पास की दुनिया, जिसे हम लगतार अनुभव करते हैं, वह बहुत ही अस्पष्ट और धुंधली-सी हो जाएगी, यदि हम उसे आकृतियों और स्थानिक संबंधों में स्वयं संगठित करते हुए न चलें। आकृतियों और स्थानिक संबंधों के कारण ही हम अलग-अलग वस्तुओं को देख पाते हैं और उनकी विभिन्न विशेषताओं को भी समझ पाते हैं। अनुभवों को इस तरह से समझने की क्षमता को ही स्थानिक समझ कहते हैं, जो बच्चे इन स्थानिक सबंधों की अच्छी समझ बना लेते हैं वे संख्याओं को, मापन को, आँकड़ों को और अमूर्त गणितीय समझ को बेहतर तरीके से सीख पाते हैं।’’ (गणित का जादू, भाग-1 राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद, पृष्ठ-136)

कहानी की आरंभिक पंक्तियों में ‘छोटा-बड़ा’ अर्थात आकृतियों की समझ को विकसित करने का प्रयास किया गया है। यह समझ आगे के पंक्तियों में और स्पष्ट होती है-‘‘आज शाम नेहा बगीचे में गई। भालू भी साथ में गया। वहाँ एक फूल था, बड़ा-सा। फूल गुलाबी रंग का था। नेहा ने फूल को देखा। उसे फूल सुंदर लगा। 

‘‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा। आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा। आसमान में तितली थी, छोटी-सी। उसके पंखों का रंग लाल था। नेहा को तितली अच्छी लगी। 

‘‘नीचे घास थी। घास का रंग हरा था। बल्लू और नेहा घास पर बैठे। घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी। 

‘‘बल्लू फूल से बातें करने लगा। लो, नेहा तो बैठे-बैठे सो गई।’’ (अभिव्यक्ति, 20 अगस्त 2012)

इस उद्धरण में फूल, आसमान और तितली को लेकर छोटे-बड़े अर्थात आकृतियों की समझ को और विस्तार दिया गया है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ हर स्थान पर ‘छोटे-बड़े’ का युग्म नहीं दर्शाया गया है। अतः यहाँ शिक्षक के लिए पर्याप्त स्पेस है कि वह बच्चों से सवाल कर सके कि ‘फूल बड़ा-सा था, तो उसके मुक़ाबले वहाँ छोटी चीज़ें क्या-क्या रही होंगी?’ निस्संदेह बच्चे उत्तर देने की कोशिश में आकृतियों की समझ को और विकसित करेंगे। इसी तरह आगे की पंक्तियों में ‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा’ कहने के बाद आसमान के रंग और सुंदरता की चर्चा की गई है। दो वाक्यों के बाद लेखिका फिर आकृतियों की ओर लौट आती है-‘आसमान में तितली थी, छोटी-सी।’ बीच के दो वाक्यों में बच्चे का ध्यान आसमान के रंग और उसकी सुंदरता पर चला जाता है। पर एक अंतराल के बाद जब फिर आकृति की बात की जाती है तो बच्चा फिर से ‘छोटे-बड़े’ के सवाल पर पर अपना ध्यान वापस लाता है। अब उसका सोचना ज़्यादा अर्थपूर्ण और समझ को बढ़ानेवाला होता है। यह कहानी कोरा शिक्षण न बनकर रह जाए इसलिए लेखिका कहानी को एक रोचक मोड़ देती है-‘बल्लू फूल से बातें करने लगा। लो, नेहा तो बैठे-बैठे सो गई।’ महकता फूल, उड़ती तितली, नीला आसमान और इन सबके बीच नेहा का सो जाना और भालू का जागते रह जाना कहानी को एक रोचक अंत देता है, जो बच्चों के चेहरे पर मुस्कान ला देनेवाला है।

यहाँ एक बात और ध्यान देनेवाली है। लेखिका आरंभिक पंक्तियों में दो चरित्रों नेहा और भालू की बात करती है, पर अंत तक आते-आते भालू के स्थान बल्लू संज्ञा का प्रयोग करने लगती है। यहाँ शिक्षकों के लिए बच्चों से सवाल करने की अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है-‘यह बल्लू कौन है?’ सवाल तो और भी बहुत पूछे जा सकते हैं। मसलन-‘घास के मैदान में और क्या चीज़ें दिखती हैं? आसमान में और क्या-क्या दिखता है? बड़ा-सा फूल किस चीज़ का था? क्या तुम कभी खुले आसमान के नीचे किसी मैदान में बैठे हो? तुम्हें कैसा लगा? आदि-आदि।

इस छोटी-सी कहानी को रचने में लेखिका ने पर्याप्त सावधानी बरती है। शब्दों का दुहराव और उन्हीं शब्दों से नए वाक्यों का निर्माण बच्चों को कहानी को पढ़ने में आसानी पैदा करता है। जैसे-‘वहाँ एक फूल था, बड़ा-सा। फूल गुलाबी रंग का था। नेहा ने फूल को देखा।’ या फिर-‘नीचे घास थी। घास का रंग हरा था। बल्लू और नेहा घास पर बैठे। घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी।’ इसी तरह-‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा। आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा।’ इन पंक्तियों में फूल, आसमान, घास शब्द के बार-बार दुहराव द्वारा नए वाक्य निर्मित किए गए हैं, जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होती है और वे एक वाक्य को दूसरे से जोड़कर अर्थ को अच्छी तरह समझ पाते हैं। हर स्थिति के चित्रण के बाद लेखिका द्वारा किसी गीत की टेक की भांति यह दुहराया जाना कि ‘अच्छा लगा’ कहानी की रसानुभति को बकरार रखती है- 

‘‘नेहा ने फूल को देखा। उसे फूल सुंदर लगा।’’ 

‘‘घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी।’’ 

‘‘तितली के पंखों का रंग लाल था। नेहा को तितली अच्छी लगी।’’ 

‘‘आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा।’’ 

कहानी में बच्चों को रंगों से परिचित कराने का भी प्रयास किया गया है। गुलाबी फूल, नीला आसमान, लाल पंखोंवाली तितली, हरी घास आदि के माध्यम से बच्चा आस-पास के वातावरण और रंगों के प्रति अपनी समझ विकसित करता है। शिक्षक शिक्षण के दौरान रंगों से संबंधित और भी प्रश्न कर सकता है। जैसे-‘‘तितली के पंखों में कौन-कौन से रंग होते हैं? आसमान लाल कब होता है? लाल रंग के अन्य फूलों के नाम बताओ इत्यादि।

इसी तरह पूर्णिमा जी की एक अन्य कहानी है ‘चित्रकला’ (अभिव्यक्ति, 01 अक्तूबर 2012)। इस कहानी में भी वह रंगों का परिचय देती हैं-‘‘चीनू ने एक लड़का और लड़की बनाए। गुलाबी रंग से। लड़की ने टोपी पहनी थी। टोपी में से किरणें निकल रही थीं। जैसे सूरज में से निकलती हैं। 

क्या इसकी टोपी में सूरज है?-मीनू ने पूछा।

नहीं, उसके सिर में दर्द है-चीनू ने कहा।

...........

मीनू ने नीले रंग की पेंसिल ली और एक अंतरिक्ष यात्री बनाया।

क्या यह उड़नतश्तरी से आया है? चीनू ने पूछा।

नहीं, यह मेरी नीली पेंसिल से आया है-मीनू ने कहा।’’ 

इन पंक्तियों में रंगों के परिचय के साथ-साथ बच्चों के मनोविज्ञान-चित्रण पर भी लेखिका ने सचेत दृष्टि रखी है। लड़की के सिर के दर्द को अंकित करने के लिए उसकी टोपी के चारों ओर सूरज की किरणें बना देना अत्यंत रोचक है। साथ ही यह भी कि वह लड़के-लड़की के चित्र को चीनू गुलाबी रंग से रंगती है। आगे की पंक्तियों में अपने बनाए चित्र पर मीनू की हाज़िर जवाबी बड़ी रोचक है। यहाँ लेखिका कहानी को आगे बढ़ाने की युक्ति में दुहराव से बचते हुए बाल मनोविज्ञान को भी बेहद ख़ूबसूरती से साधती है। कहानी में आगे चलकर चीनू-मीनू दीवार पर गोला, चैकोर, आयत, त्रिकोण आदि आकृतियाँ बनाते हैं। 

‘‘क्या तुमने गोल, चौकोर, सितारे और आयत भी सीखे हैं?’’ चीनू ने पूछा।

‘‘हाँ, चलो दीवार पर बनाते हैं।’’ मीनू ने कहा।

फिर दोनों ने दीवार पर रेलगाड़ी, सितारे, पान, बिल्ली, फूल और पेड़ बना दिए।

माँ ने बताया-‘‘अच्छे बच्चे दीवार पर नहीं लिखते। काग़ज़ पर लिखते हैं।’’ 

इन पंक्तियों में जहाँ विभिन्न आकृतियों के बारे में बालकों में जिज्ञासा जागृत करने का प्रयास किया किया गया है, वहीं यह सीख भी देने की कोशिश की गई है कि उन्हें दीवार आदि पर लिखने या चित्र बनाने का कार्य नहीं करना चाहिए। यहाँ शिक्षक चीनू-मीनू द्वारा बनाई गई रेलगाड़ी, सितारे, पान, बिल्ली, फूल और पेड़ आदि आकृतियों को वर्ग, गोले और आयत के माध्यम से बना सकते हैं और आकृति शिक्षण के संबंध में रोचक प्रयोग कर सकते हैं।

इसी तरह एक अन्य कहानी ‘चित्रकारी’ (अभिव्यक्ति 13 मई 2013) में वे रंगों की जानकारी और स्पष्ट रूप में देती हैं-‘‘माँ के पास एक लकड़ी का एक बोर्ड है। माँ उस पर चित्र बनाती हैं और चित्रों से बहुत-सी बातें समझाती हैं-‘देखो यह आसमान है। आसमान नीला होता है। और यह देखो, यह घास है। घास के कारण धरती हरी दिखती है।...ऊपर देखो आसमान में, जो सफेद टुकड़े हैं, वे बादल हैं। वो जो दूर पर रंगीन-सा दिख रहा है न? वह इंद्रधनुष है।’’ 

इन पंक्तियों में पूर्णिमा जी रंगों को उन कुछ वस्तुओं से जोड़ती हैं, जो बच्चा रोजमर्रा की ज़िंदगी में देखता है। नीले रंग को आसमान, हरे रंग को घास और सफेद को बादल से जोड़कर वह बच्चे की स्मृति में रंगों की छवि हमेशा के लिए टाँक देती हैं। बाद में वह इंद्रधनुष की बात ज़रूर करती हैं, पर उसके रंगों का ज़िक्र नहीं करतीं। यहाँ वह शिक्षकों को अवकाश देती हैं कि वे बच्चों से इंद्रधनुष और उसके रंगों पर बात कर सकें। अपनी अन्य कहानियों ‘होली’ (अभिव्यक्ति 25 मार्च 2013), ‘काग़ज़ के हवाई जहाज़’ (अभिव्यक्ति 18 मार्च 2013) में भी रंगों की चर्चा करती हैं।

इसी प्रकार ‘खाने का समय’ (अभिव्यक्ति 6 मई 2013) में समय के बारे में, ‘संगीत की धुन’ (अभिव्यक्ति 17 दिसंबर 2012) में विभिन्न वाद्ययंत्रों के बारे में, ‘खेल का मैदान’ (अभिव्यक्ति 28 जनवरी 2013) में विभिन्न खेलों के बारे में, ‘पत्र’ (अभिव्यक्ति 25 फरवरी 2013) में पत्र लेखन आदि के संबंध में जानकारी देती हैं।

शिक्षण की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी होने के बावजूद पूर्णिमा जी की ये कहानियाँ कहानी-कला की दृष्टि से कहीं भी शिथिल या कोरी पाठ्य-पुस्तकीय रचनाएँ नहीं हैं। इनमें बच्चों के मन को बाँध लेनेवाली कल्पना, मनोविज्ञान, भाषा की रोचकता-सरलता आदि ऐसे गुण हैं जो बच्चों को आनंद प्रदान करते हैं। कहानी ‘सपना’ (अभिव्यक्ति, 20 मई 2013) में उनकी कल्पना की उड़ान देखते ही बनती है-

‘‘मीतू ने एक मज़ेदार सपना देखा।

सपना था गाँव की सैर का। गाँव में एक बड़ा-सा खेत था। खेत में उगे थे गुब्बारे ही गुब्बारे। ढेर-सारी पत्तियाँ और पत्तियों के बीच गुब्बारे। पत्तियाँ पीली थीं और गुब्बारे नारंगी। वे पान के आकार के थे।’’ 

इन पंक्तियों में बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ उनकी कल्पना को भी नया आयाम मिलता है। खेत में फसल की जगह गुब्बारे उगना, गुब्बारों का प्रचलित आकार के स्थान पर पान के आकार का होना, पत्तियों का रंग हरे के स्थान पर पीला होना बच्चों को मानसिक अभ्यास की अच्छी सामग्री और कल्पना को विस्तार प्रदान करती है। साथ ही बच्चों को एक ऐसी सपनीली दुनिया में ले जाती है, जहाँ उन्हें आनंद की अनूठी अनुभूति होती है।

इस तरह से देखा जाए तो पूर्णिमा वर्मन की नन्हीं कहानियाँ बच्चों के लिए शिक्षण की अच्छी सामग्री तो उपलब्ध कराती ही हैं, साथ ही साथ उन्हें मज़ेदार कहानी का भी आनंद प्रदान करती हैं।

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-डा0 मोहम्मद अरशद ख़ान, एसोशिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जी. एफ. (पी.जी.) कालेज, शाहजहाँपुर, ईमेल: hamdarshad@gmail.com

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