बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

पूर्णिमा वर्मन की नन्ही बाल कहानियाँ और शिक्षण में उनका उपयोग



प्रवासी भारतीय बाल साहित्यकारों में पूर्णिमा वर्मन का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। पूर्णिमा जी संयुक्त अरब अमीरात के शारजाह नामक नगर में निवास करती हैं। वर्ष १९९५ वेब पर नियमित रूप से उपस्थित वे 'अभिव्यक्ति’ और ‘अनुभूति’ नामक वेब पत्रिकाएँ निकाल रही हैं, जो अंतरजाल पर हिंदी में नियमित प्रकाशित होनेवाली पहली वेब पत्रिकाएँ हैं। इन पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने न केवल भारतीय, बल्कि प्रवासी एवं विदेशी हिंदी साहित्यकारों को एक साझा मंच प्रदान किया है। हिंदी के प्रति उनकी अमूल्य सेवाओं के लिए उन्हें भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान समेत विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित किया जा चुका है। पूर्णिमा जी ने कहानी, कविता, नवगीत, साहित्यिक निबंध, स्तंभ लेखन, हास्य-व्यंग्य आदि विविध विधाओं में लेखन किया है। उन्होंने बच्चों के लिए भी सुंदर कहानियाँ-कविताएँ रची हैं। ख़ासतौर पर शिशुओं के लिए लिखी उनकी नन्ही कहानियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। 

शिशुओं के लिए रचनाएँ लिखना अत्यंत कठिन साधना है। शिशुओं का भाषा ज्ञान अत्यंत अल्प होता है। आस-पास के वातावरण एवं घटनाओं के कारण-कार्य संबंध के प्रति उनकी समझ सीमित होती है। अतः उनके मानसिक समझ के दायरे और भाषा की सीमा़ को आत्मसात किए बिना अच्छी शिशु कहानियाँ लिखा जाना संभव नहीं है। कहना न होगा कि पूर्णिमा जी की कहानियाँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। पूर्णिमा जी ने शिशुओं के लिए लगभग पाँच दर्जन रचनाएँ लिखी हैं। वेब पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ (http://www.abhivyakti-hindi.org) में प्रकाशित इन कहानियों में ‘भालू, तितली और फूल’(20.08.12), ‘मछलीघर’(03.09.12), ‘धमाचौकड़ी’(17.09.12), ‘चित्रकला’(01.10.12), ‘सुलेख’(15.10.12), ‘पुस्तकालय’(29.10.12), ‘दीपावली’(12.11.12), ‘फूलों से बातें’(26.11.12), ‘फिसलपट्टी’(03.12.12), ‘आसमान की सैर’(10.12.12), ‘संगीत की धुन’(17.12.12), ‘सर्कस’(10.12.13), ‘जादू वाली शाम’(31.12.12), ‘बागबानी’(07.01.13), ‘बर्फ का पुतला’(14.01.13), ‘शुभ रात्रि’(21.01.13), ‘खेल का मैदान’(28.01.13), ‘टेलिविजन’(04.02.13), ‘तितलियाँ’(11.02.13), ‘हवाई जहाज’(--.02.13), ‘पत्र’(25.02.13), ‘लैपटॉप’(04.03.13), ‘उड़ने वाली भेड़’(11.03.13), ‘कागज के हवाई जहाज’(18.03.13), ‘होली’(25.03.13), ‘चरखीवाले झूले’(01.04.13), ‘तरणताल’(08.04.13), ‘वाटर-पार्क’(15.04.13), ‘राम नवमी’(22.04.13), ‘गाँव की सैर’(29.04.13), ‘खाने का समय’(06.05.13), ‘चित्रकारी’(13.05.13), ‘सपना’(20.05.13) आदि के नाम लिए जा सकते हैं।

उनकी एक कहानी है ‘भालू, तितली और फूल’। कहानी का आरंभ कुछ यों होता है-‘‘नेहा लड़की है, छोटी-सी। भालू खिलौना है, बड़ा-सा। भालू नेहा का दोस्त है। नेहा और भालू साथ-साथ रहते हैं।’’ (अभिव्यक्ति, 20 अगस्त 2012) कहानी का आरंभ बेहद सरल वाक्यों से होता है। शब्द ऐसे कि शिशु उन्हें आसानी से पढ़ और समझ ले। बच्चों को मनोरंजन उपलब्ध कराने के साथ ही लेखिका उन तथ्यों का समावेश करना नहीं भूलती, जो बच्चे की समझ को और साफ कर सकें और उसके अध्ययन में मददगार बन सकें। इन पंक्तियों के आरंभ में ही लेखिका बच्चों को ‘आकृति और स्थान’ का परिचय देने की कोशिश करती है, जो गणित-शिक्षण की पहली सीढ़ी है। संख्या ज्ञान देने से पूर्व बालक को अंदर-बाहर, छोटा-बड़ा, ऊपर-नीचे, पास-दूर इत्यादि की जानकारी दी जानी आवश्यक है। वस्तुतः ‘‘हमारे आस-पास की दुनिया, जिसे हम लगतार अनुभव करते हैं, वह बहुत ही अस्पष्ट और धुंधली-सी हो जाएगी, यदि हम उसे आकृतियों और स्थानिक संबंधों में स्वयं संगठित करते हुए न चलें। आकृतियों और स्थानिक संबंधों के कारण ही हम अलग-अलग वस्तुओं को देख पाते हैं और उनकी विभिन्न विशेषताओं को भी समझ पाते हैं। अनुभवों को इस तरह से समझने की क्षमता को ही स्थानिक समझ कहते हैं, जो बच्चे इन स्थानिक सबंधों की अच्छी समझ बना लेते हैं वे संख्याओं को, मापन को, आँकड़ों को और अमूर्त गणितीय समझ को बेहतर तरीके से सीख पाते हैं।’’ (गणित का जादू, भाग-1 राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद, पृष्ठ-136)

कहानी की आरंभिक पंक्तियों में ‘छोटा-बड़ा’ अर्थात आकृतियों की समझ को विकसित करने का प्रयास किया गया है। यह समझ आगे के पंक्तियों में और स्पष्ट होती है-‘‘आज शाम नेहा बगीचे में गई। भालू भी साथ में गया। वहाँ एक फूल था, बड़ा-सा। फूल गुलाबी रंग का था। नेहा ने फूल को देखा। उसे फूल सुंदर लगा। 

‘‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा। आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा। आसमान में तितली थी, छोटी-सी। उसके पंखों का रंग लाल था। नेहा को तितली अच्छी लगी। 

‘‘नीचे घास थी। घास का रंग हरा था। बल्लू और नेहा घास पर बैठे। घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी। 

‘‘बल्लू फूल से बातें करने लगा। लो, नेहा तो बैठे-बैठे सो गई।’’ (अभिव्यक्ति, 20 अगस्त 2012)

इस उद्धरण में फूल, आसमान और तितली को लेकर छोटे-बड़े अर्थात आकृतियों की समझ को और विस्तार दिया गया है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ हर स्थान पर ‘छोटे-बड़े’ का युग्म नहीं दर्शाया गया है। अतः यहाँ शिक्षक के लिए पर्याप्त स्पेस है कि वह बच्चों से सवाल कर सके कि ‘फूल बड़ा-सा था, तो उसके मुक़ाबले वहाँ छोटी चीज़ें क्या-क्या रही होंगी?’ निस्संदेह बच्चे उत्तर देने की कोशिश में आकृतियों की समझ को और विकसित करेंगे। इसी तरह आगे की पंक्तियों में ‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा’ कहने के बाद आसमान के रंग और सुंदरता की चर्चा की गई है। दो वाक्यों के बाद लेखिका फिर आकृतियों की ओर लौट आती है-‘आसमान में तितली थी, छोटी-सी।’ बीच के दो वाक्यों में बच्चे का ध्यान आसमान के रंग और उसकी सुंदरता पर चला जाता है। पर एक अंतराल के बाद जब फिर आकृति की बात की जाती है तो बच्चा फिर से ‘छोटे-बड़े’ के सवाल पर पर अपना ध्यान वापस लाता है। अब उसका सोचना ज़्यादा अर्थपूर्ण और समझ को बढ़ानेवाला होता है। यह कहानी कोरा शिक्षण न बनकर रह जाए इसलिए लेखिका कहानी को एक रोचक मोड़ देती है-‘बल्लू फूल से बातें करने लगा। लो, नेहा तो बैठे-बैठे सो गई।’ महकता फूल, उड़ती तितली, नीला आसमान और इन सबके बीच नेहा का सो जाना और भालू का जागते रह जाना कहानी को एक रोचक अंत देता है, जो बच्चों के चेहरे पर मुस्कान ला देनेवाला है।

यहाँ एक बात और ध्यान देनेवाली है। लेखिका आरंभिक पंक्तियों में दो चरित्रों नेहा और भालू की बात करती है, पर अंत तक आते-आते भालू के स्थान बल्लू संज्ञा का प्रयोग करने लगती है। यहाँ शिक्षकों के लिए बच्चों से सवाल करने की अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है-‘यह बल्लू कौन है?’ सवाल तो और भी बहुत पूछे जा सकते हैं। मसलन-‘घास के मैदान में और क्या चीज़ें दिखती हैं? आसमान में और क्या-क्या दिखता है? बड़ा-सा फूल किस चीज़ का था? क्या तुम कभी खुले आसमान के नीचे किसी मैदान में बैठे हो? तुम्हें कैसा लगा? आदि-आदि।

इस छोटी-सी कहानी को रचने में लेखिका ने पर्याप्त सावधानी बरती है। शब्दों का दुहराव और उन्हीं शब्दों से नए वाक्यों का निर्माण बच्चों को कहानी को पढ़ने में आसानी पैदा करता है। जैसे-‘वहाँ एक फूल था, बड़ा-सा। फूल गुलाबी रंग का था। नेहा ने फूल को देखा।’ या फिर-‘नीचे घास थी। घास का रंग हरा था। बल्लू और नेहा घास पर बैठे। घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी।’ इसी तरह-‘ऊपर आसमान था, बड़ा-सा। आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा।’ इन पंक्तियों में फूल, आसमान, घास शब्द के बार-बार दुहराव द्वारा नए वाक्य निर्मित किए गए हैं, जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होती है और वे एक वाक्य को दूसरे से जोड़कर अर्थ को अच्छी तरह समझ पाते हैं। हर स्थिति के चित्रण के बाद लेखिका द्वारा किसी गीत की टेक की भांति यह दुहराया जाना कि ‘अच्छा लगा’ कहानी की रसानुभति को बकरार रखती है- 

‘‘नेहा ने फूल को देखा। उसे फूल सुंदर लगा।’’ 

‘‘घास गर्म थी। नेहा को घास अच्छी लगी।’’ 

‘‘तितली के पंखों का रंग लाल था। नेहा को तितली अच्छी लगी।’’ 

‘‘आसमान का रंग नीला था। नेहा को आसमान सुंदर लगा।’’ 

कहानी में बच्चों को रंगों से परिचित कराने का भी प्रयास किया गया है। गुलाबी फूल, नीला आसमान, लाल पंखोंवाली तितली, हरी घास आदि के माध्यम से बच्चा आस-पास के वातावरण और रंगों के प्रति अपनी समझ विकसित करता है। शिक्षक शिक्षण के दौरान रंगों से संबंधित और भी प्रश्न कर सकता है। जैसे-‘‘तितली के पंखों में कौन-कौन से रंग होते हैं? आसमान लाल कब होता है? लाल रंग के अन्य फूलों के नाम बताओ इत्यादि।

इसी तरह पूर्णिमा जी की एक अन्य कहानी है ‘चित्रकला’ (अभिव्यक्ति, 01 अक्तूबर 2012)। इस कहानी में भी वह रंगों का परिचय देती हैं-‘‘चीनू ने एक लड़का और लड़की बनाए। गुलाबी रंग से। लड़की ने टोपी पहनी थी। टोपी में से किरणें निकल रही थीं। जैसे सूरज में से निकलती हैं। 

क्या इसकी टोपी में सूरज है?-मीनू ने पूछा।

नहीं, उसके सिर में दर्द है-चीनू ने कहा।

...........

मीनू ने नीले रंग की पेंसिल ली और एक अंतरिक्ष यात्री बनाया।

क्या यह उड़नतश्तरी से आया है? चीनू ने पूछा।

नहीं, यह मेरी नीली पेंसिल से आया है-मीनू ने कहा।’’ 

इन पंक्तियों में रंगों के परिचय के साथ-साथ बच्चों के मनोविज्ञान-चित्रण पर भी लेखिका ने सचेत दृष्टि रखी है। लड़की के सिर के दर्द को अंकित करने के लिए उसकी टोपी के चारों ओर सूरज की किरणें बना देना अत्यंत रोचक है। साथ ही यह भी कि वह लड़के-लड़की के चित्र को चीनू गुलाबी रंग से रंगती है। आगे की पंक्तियों में अपने बनाए चित्र पर मीनू की हाज़िर जवाबी बड़ी रोचक है। यहाँ लेखिका कहानी को आगे बढ़ाने की युक्ति में दुहराव से बचते हुए बाल मनोविज्ञान को भी बेहद ख़ूबसूरती से साधती है। कहानी में आगे चलकर चीनू-मीनू दीवार पर गोला, चैकोर, आयत, त्रिकोण आदि आकृतियाँ बनाते हैं। 

‘‘क्या तुमने गोल, चौकोर, सितारे और आयत भी सीखे हैं?’’ चीनू ने पूछा।

‘‘हाँ, चलो दीवार पर बनाते हैं।’’ मीनू ने कहा।

फिर दोनों ने दीवार पर रेलगाड़ी, सितारे, पान, बिल्ली, फूल और पेड़ बना दिए।

माँ ने बताया-‘‘अच्छे बच्चे दीवार पर नहीं लिखते। काग़ज़ पर लिखते हैं।’’ 

इन पंक्तियों में जहाँ विभिन्न आकृतियों के बारे में बालकों में जिज्ञासा जागृत करने का प्रयास किया किया गया है, वहीं यह सीख भी देने की कोशिश की गई है कि उन्हें दीवार आदि पर लिखने या चित्र बनाने का कार्य नहीं करना चाहिए। यहाँ शिक्षक चीनू-मीनू द्वारा बनाई गई रेलगाड़ी, सितारे, पान, बिल्ली, फूल और पेड़ आदि आकृतियों को वर्ग, गोले और आयत के माध्यम से बना सकते हैं और आकृति शिक्षण के संबंध में रोचक प्रयोग कर सकते हैं।

इसी तरह एक अन्य कहानी ‘चित्रकारी’ (अभिव्यक्ति 13 मई 2013) में वे रंगों की जानकारी और स्पष्ट रूप में देती हैं-‘‘माँ के पास एक लकड़ी का एक बोर्ड है। माँ उस पर चित्र बनाती हैं और चित्रों से बहुत-सी बातें समझाती हैं-‘देखो यह आसमान है। आसमान नीला होता है। और यह देखो, यह घास है। घास के कारण धरती हरी दिखती है।...ऊपर देखो आसमान में, जो सफेद टुकड़े हैं, वे बादल हैं। वो जो दूर पर रंगीन-सा दिख रहा है न? वह इंद्रधनुष है।’’ 

इन पंक्तियों में पूर्णिमा जी रंगों को उन कुछ वस्तुओं से जोड़ती हैं, जो बच्चा रोजमर्रा की ज़िंदगी में देखता है। नीले रंग को आसमान, हरे रंग को घास और सफेद को बादल से जोड़कर वह बच्चे की स्मृति में रंगों की छवि हमेशा के लिए टाँक देती हैं। बाद में वह इंद्रधनुष की बात ज़रूर करती हैं, पर उसके रंगों का ज़िक्र नहीं करतीं। यहाँ वह शिक्षकों को अवकाश देती हैं कि वे बच्चों से इंद्रधनुष और उसके रंगों पर बात कर सकें। अपनी अन्य कहानियों ‘होली’ (अभिव्यक्ति 25 मार्च 2013), ‘काग़ज़ के हवाई जहाज़’ (अभिव्यक्ति 18 मार्च 2013) में भी रंगों की चर्चा करती हैं।

इसी प्रकार ‘खाने का समय’ (अभिव्यक्ति 6 मई 2013) में समय के बारे में, ‘संगीत की धुन’ (अभिव्यक्ति 17 दिसंबर 2012) में विभिन्न वाद्ययंत्रों के बारे में, ‘खेल का मैदान’ (अभिव्यक्ति 28 जनवरी 2013) में विभिन्न खेलों के बारे में, ‘पत्र’ (अभिव्यक्ति 25 फरवरी 2013) में पत्र लेखन आदि के संबंध में जानकारी देती हैं।

शिक्षण की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी होने के बावजूद पूर्णिमा जी की ये कहानियाँ कहानी-कला की दृष्टि से कहीं भी शिथिल या कोरी पाठ्य-पुस्तकीय रचनाएँ नहीं हैं। इनमें बच्चों के मन को बाँध लेनेवाली कल्पना, मनोविज्ञान, भाषा की रोचकता-सरलता आदि ऐसे गुण हैं जो बच्चों को आनंद प्रदान करते हैं। कहानी ‘सपना’ (अभिव्यक्ति, 20 मई 2013) में उनकी कल्पना की उड़ान देखते ही बनती है-

‘‘मीतू ने एक मज़ेदार सपना देखा।

सपना था गाँव की सैर का। गाँव में एक बड़ा-सा खेत था। खेत में उगे थे गुब्बारे ही गुब्बारे। ढेर-सारी पत्तियाँ और पत्तियों के बीच गुब्बारे। पत्तियाँ पीली थीं और गुब्बारे नारंगी। वे पान के आकार के थे।’’ 

इन पंक्तियों में बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ उनकी कल्पना को भी नया आयाम मिलता है। खेत में फसल की जगह गुब्बारे उगना, गुब्बारों का प्रचलित आकार के स्थान पर पान के आकार का होना, पत्तियों का रंग हरे के स्थान पर पीला होना बच्चों को मानसिक अभ्यास की अच्छी सामग्री और कल्पना को विस्तार प्रदान करती है। साथ ही बच्चों को एक ऐसी सपनीली दुनिया में ले जाती है, जहाँ उन्हें आनंद की अनूठी अनुभूति होती है।

इस तरह से देखा जाए तो पूर्णिमा वर्मन की नन्हीं कहानियाँ बच्चों के लिए शिक्षण की अच्छी सामग्री तो उपलब्ध कराती ही हैं, साथ ही साथ उन्हें मज़ेदार कहानी का भी आनंद प्रदान करती हैं।

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-डा0 मोहम्मद अरशद ख़ान, एसोशिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जी. एफ. (पी.जी.) कालेज, शाहजहाँपुर, ईमेल: hamdarshad@gmail.com

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

नवगीत का स्त्री पक्ष- रंजना गुप्ता के नवगीत संग्रह सलीबें को पढ़ते हुए


इन दिनों हिंदी कविता की गतिविधियों का केंद्र स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से हट कर पुन: व्यक्ति की समाज में एक स्वतंत्र इकाई के रूप में अपनी गरिमा और महत्ता के अन्वेषण प्रयासों की ओर खिसकती जा रही है ।सूचना क्रांति ने सम्वेदना के भौगोलिक प्रत्यय को निष्प्रभावी बना दिया है ।हालाँकि निष्प्रभावी बनाने की यह घोषणा भी भूगोल की परिधि में ही होती है। इस प्रकार वैश्विकता और स्थानिकता का अपरिभाषेय संश्लेषण मानव सम्वेदना को तरह तरह से परिभाषित कर रहा है ।एक समूह के रूप में व्यक्ति समूह के लिए नहीं अपनी पहचान के लिए एकत्रित हो रहा है।

जीवन की इतनी जटिल स्थितियों में अभिव्यक्ति का सरल होना असम्भव है ।कहीं संवेदनाएँ अभिव्यक्ति पाते पाते मर जाती हैं तो कहीं संवेदनाओं के मारक प्रहारों से अभिव्यक्तियाँ दम तोड़ देती हैं यह स्थिति ऐसी होती है कि हर व्यक्ति अपनी सलीब अपनी पीठ पर लादे घूमता लगता है ।हर क्षण नए नए समझौते जीवन की अनिवार्यता बनते जा रहे हैं यंत्र न होते हुए भी आदमी के यंत्र होते जाने की यह आँखों देखी ही आज की हिंदी कविता का क्रीड़ा क्षेत्र है ।नवगीत एक कविता रूप होने के कारण इन सारे वांछित अवांछित दबाओं से गुज़रते हुए अपनी यात्रा कर रहा है । एक अवसाद का परिदृश्य पर अदृश्य आवरण चढ़ा हुआ है । इसी को डा० रंजना गुप्ता का नवगीत संग्रह’ सलीबें’ प्रमाणित करता है ।

उन्नीस सौ अठ्ठावन में इन्हीं पूर्वाभासों के कारण एक नये गीत प्रारूपों की आवश्यकता महसूस की गयी और पाँच फ़रवरी उन्नीस सौ अठ्ठावन को ‘गीतांगिनी’ के के प्रकाशन के साथ ही नवगीत नामक नई गीत विधा की प्रस्तावना लिखी गयी ।यद्दपि नवगीत के उद्भव और विकास को लेकर हमारे पास अब कई धारणायें हैं किंतु ये सच है कि नवगीत ने जीवन की सूक्ष्म मानसिक क्रियाओं को काव्य विषय बनाया और ऐसा करने के लिए उसने स्थूल शारीरिक क्रियाओं को अपना उपकरण बनाया ।यही कारण है कि नवगीत में वे सारी बातें भी स्थान पा सकीं जो गीत से बहिष्कृत थीं ।इसलिए यह मानना उचित होगा कि नवगीत एक स्वतंत्र काव्य विधा है जो नव और गीत का एक जटिल काव्य यौगिक है जिसमें नव और गीत अपने आधार गुणों को खो चुके हैं । नवगीत में नव को विशेषण मान कर गीत का नया रूप नहीं माना जा सकता गीत में इतिवृतात्मकता होती है और नवगीत में बिम्बधर्मी संकेत।

रंजना गुप्ता के नवगीत संग्रह ‘सलीबें’से गुज़रते हुए यह महसूस हुआ कि उनके मन में अपनी अभिव्यक्ति को लेकर एक आतुरता तो है किंतु प्रकट करने की विधि को लेकर एक अनिश्चितता भी है ।इसका संकेत उनके नवगीत सम्बंधी दृष्टिकोण से जो कुछ कुछ अमूर्त और छाया वादी लगता है मिलता है-’ वस्तुतः नवगीत गीत की वह आधुनिक विधा है जो आत्म चेतना और लोक संवेदना के दर्द से सीधा संवाद करती है..जन जीवन के दैनिक संघर्ष और उससे जुड़ी सघन समस्याओं को उनकी वैचारिक बेचैनियों के साथ प्रतिबद्धता से तादात्म स्थापित कर संवेदना की क़लम से लिखी जा रही है ..एक सधा हुआ शिल्प विधान और दर्द से मुक्ति का यह संधान जब समय के पन्नों पर उतरता है तो एक मूर्तिकार की तपस्या ..एक कलाकार की साधना ..एक सुगठित नृत्य विधान का संतुलन ...एक कवि की आत्मा उसमें साकार हो उठती है...विश्व सुमंगल अवधारणा ..पर्यावरण संचेतना ..आमजन की पीड़ा ..प्राणी जगत की त्रासद स्थितियों ..आत्म संघर्ष और लोक संघर्ष की जिजीविषा सब कुछ समाहित कर लेने की अपार सिंधु सी क्षमता आज के नवगीत में पूरी शिद्दत से मौजूद है ।’
इस प्रकार रंजना गुप्ता अपने काव्य आग्रहों को प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देती हैं और उनके गीत इसको प्रमाणित भी करते है।

’सलीबें’ नामक नवगीत संग्रह में डा०रंजना गुप्ता के क़थ्य और भाषा का द्वन्द हर जगह दिखाई देता है ।उनका काव्यानुभव और उनका जीवनानुभव नवगीत को अपना मैत्री स्थल बनाते हैं वे अपने आत्म क़थ्य में लिखती भी हैं ‘लिखना’ कभी ‘लिखना’ नहीं रहा मेरे लिए ..व्यवसाय ..घर और जीवन के हर कदम पाँवों को उलझाती समस्याओं से संत्रास के बीच जो किसी भाँति बच पाया ..उस लेखन...उस रचनात्मकता के विलोड़न से उपजा नवनीत ही नवगीत बन गया है..’

‘भीगे मन के बैठ किनारे
कब रातों के हुए सबेरे
लिखता कौन ..?लिखाता कोई..
यूँ शब्दों ने डाले घेरे …’
(पेज नम्बर २६)

संग्रह का प्रारम्भ जिस नवगीत से होता है उसका शीर्षक का’नियति’ ।वर्तमान के खुरदरे जीवन व्यापारों से एक अकेली स्त्री का गरिमापूर्ण आत्मपरिचय इन पंक्तियों से बेहतर और क्या होगा ?

‘मैं नियति की
क्रूर लहरों पर सदा से
ही पली हूँ

जेठ का हर ताप
सहकर
बूँद बरखा की चखी है
टूट कर हर बार जुड़ती
वेदना मेरी सखी है

मैं समय की भट्टियों में
स्वर्ण सी पिघली
गली हूँ’

नियति की बात करते हुए भी नवगीतकार कहीं दीन हीन नहीं प्रतीत होता ।हालाँकि वह अपने जीवन संघर्षो का एक काव्य चित्र प्रस्तुत करता है ।जो मर्म स्पर्शी तो है किंतु गौरव बोध से लबरेज़ भी ।नवगीत कार को अपनी जिजीविषा पर पूरा भरोसा है और वह अपना मूल्य भी जानती है ।उपरोक्त पंक्तियाँ बरबस ही महीयसी महादेवी वर्मा की याद दिलाती हैं ।संग्रह में अनेक नवगीत स्त्री विमर्श के अनेक अनछुए पहलुओं को स्पर्श करते हैं ।एक गीत है जिसका शीर्षक है’ मछली’।यह नवगीत भी उपरोक्त ‘नियति’ नवगीत से प्रारम्भ हुई यात्रा का अगला पड़ाव है ।इस नवगीत में भी समाज में स्त्री के आत्म बोध को रेखांकित करते हुए उसे सतर्क रहने का सुझाव दिया जा सकता है। सारे प्रगति शील विचारों ,आंदोलनों ,और क़ानूनों के बाद भी स्त्री के साथ आदि काल से होता हुआ छल अभी तक निर्बाध चल रहा है ।इस नवगीत में स्त्री को मछली और दुनियादारी को सूखे ताल की प्रतीकात्मक संज्ञा देकर बड़े कोमल ढंग से स्त्री की सांप्रतिक आशंकाओं का काव्य वर्णन किया गया है।
‘मछली’ शीर्षक पूर्वोक्त नवगीत की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--

‘सूखे सर
सब सूखे ताल
कह री मछली
क्या है
हाल ?

जल निर्मम है
तू क्यों रोए
तुझे छोड़
वह सबका होय

तेरे सर पर
सौ जंजाल
कह री मछली
क्या है हाल ?’

यद्दपि आजकल स्त्री विमर्श में जिस तरह की भाषा का प्रयोग स्वयं स्त्री रचनाकारों द्वारा किया जा रहा है डा०रंजना गुप्ता की यह शिल्प मर्यादा हो सकता है अतिरेकवादी ओजस्वी और अराजक स्त्री विमर्श कारों को अधिक न रुचे, किंतु भारतीय काव्य भाषा की शालीनता का अनुरक्षण किए जाने की आवश्यकता इन दिनों प्रज्ञा सम्पन्न समीक्षकों द्वारा महसूस की जा रही है ,और डा० रंजना गुप्ता इस कसौटी पर सम्मानजनक अंक प्राप्त करने में समर्थ हैं ।

प्रसिद्ध मराठी स्त्री लेखन अध्येता विद्दुत भागवत ने उन्नीस सौ सड़सठ के बाद मराठी लेखिकाओं के लेखन को ‘प्रतिरोध का साहित्य’ कहा है और इस बात पर ज़ोर दिया है कि महिला रचना कारों ने अपनी रचनाओं में जिन चिंताओं और चुनौतियों का उल्लेख किया है उनका अध्ययन किया जाना चाहिए ।स्त्री लेखन में रचनाकारों ने स्त्रियोचित मानसिक और दैहिक आख्यान रचते हुए भी अपनी सामाजिक और धार्मिक जकड़नों से मुक्त होने की एक ही जैसी ललक नहीं दिखाई है ।स्त्री लेखन देह और मन का एक ऐसा तिलिस्म है जिसमें फँस कर स्त्री रचनाकार भी रह जाती है हिंदी में यह विमर्श उपन्यास और कहानियों में ज़्यादा मुखर हुआ है ,किंतु एक विशेष विचार प्रस्तुति के नियंत्रण में ।कविता विशेष रूप से नवगीत में यह अक्सर भावनात्मक अतृप्ति के रूप में सामने आता है। संग्रह के ‘जंगल’ शीर्षक से कुछ पंक्तियाँ उदधृत की जा रही हैं --

‘जंगल जंगल घूम घूम कर
बादल पानी माँग रहा है

ठिठक गई है छोटी चिड़िया
और हुआ आवाक् पपीहा
मौसम ने चिठ्ठी बाँची है
आने वाला कल गिद्धों का

बीघा बीस तीस तक रेती
हिरणी मन आकण्ठ भरा है’

डा० रंजना गुप्ता का जीवन अनुभव महानगर के जद्दो जहद में रहने वाले एक आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत सुरक्षित किंतु सक्रिय दिनचर्या का प्रति फलन है, समग्रता में जीवन उनकी दृष्टि में तो है, किंतु हर समय अनुभव में नहीं, और यह अस्वाभाविक भी नहीं ।जीवन को समग्रता में देखने की ललक होनी चाहिए ताकि रचना में अपने अतिरिक्त दूसरों को भी स्थान दिया जा सके ।दूसरों को स्थान देने का मतलब दूसरों के अनुभव को जानकार शब्दाँकित करना है, न कि दूसरों के अनुभव को अपने अनुभव की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास ।इन दिनों इस तरह के लेखन प्रयासों की बाढ़ आ गई है ।इससे बचना ही श्रेयस्कर होगा ।रचना कार को शोषित पीड़ित जनों का पक्षधर होना चाहिए ।

किंतु ऐसा करने के लिए किसी छद्म का आश्रय नहीं लेना चाहिए रचना कार का यह नैतिक दायित्व है कि वह जीवन समाज व्यवस्था में पाई जाने वाली हर कुरूपता विद्रूपता और मानव द्रोही स्थितियों का इतने मर्म स्पर्शी ढंग से वर्णन करे कि पाठक के मन में पहले घृणा का ज्वार उठे और फिर यह ज्वार उसे आवश्यक और वांछित परिवर्तनों के लिए प्रेरित करे ।नवगीत में दूसरी विधाओं की तुलना में यह एक कठिन कार्य है और ज़्यादा कुशलता की माँग भी करता है ।नवगीत का कोई शास्त्रीय मानक अभी तय नहीं हुआ है पर यह एक जीवित और कार्यशील विधा है ।इसकी विधागत विशेषताओं का समेकन इसीलिए अभी तक सम्भव नहीं हो पाया है ।इसीलिए किसी विशेष बाट बटखरे से न तो इसे तौला जा सकता है और न ही इसे किसी स्केल से नापा जा सकता है ।शायद यही कारण है कि डा०रंजना गुप्ता कभी कभी अपनी मुखरता छोड़ कर आत्मलाप में लगी दीखती हैं इस संग्रह के एक नवगीत’पलाश’ की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--

‘धुएँ घुटन से
भरे उजाले
पड़े हुए साँसों के लाले
देह कोठरी है
काजल की
बगुले जैसे मन भी काले
लम्हा लम्हा
जटिल ककहरा
एक एक अक्षर पर अटकूँ’

बाह्य स्थितियाँ जब असंतुष्टि और असहमति देतीं हैं और रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति को साफ़ साफ़ प्रस्तुत करने में किन्ही कारणों से संकोच महसूस कर रहा हो ,तो उसे इसी तरह एक एक अक्षर पर अटकना पड़ता है ।बहुत कुछ कहना है लेकिन कहने की अपनी मर्यादा है ऐसे में यह सापेक्षिक संकोच की स्थिति पैदा होती है ।जो कुछ महसूस होता है वह इसी स्थिति संकोच के चलते अस्पष्ट अमूर्त और असमंजस पूर्ण हो जाता है अपने प्रकटी करण में ।फिर घुमा फिरा के कहने की शैली का आश्रय लिया जाता है ताकि मर्यादा भी बनी रहे और जो कहने लायक़ है कहा भी जा सके ।’वर्ष’नवगीत की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य है --

‘जनम जनम हम
जिनको सहते
स्वजन उन्हें ही
कहते रहते
लोग पराए रहे पराए
पीर ह्रदय की
किससे कहते ?

सहमी सहमी सी
भयभीता
वन की हिरणी
बनी है सीता’

स्त्री विमर्श का यह जाना पहचाना किंतु अस्थायी अध्याय है ।बार बार स्त्रियाँ अपनी सामाजिक ,आर्थिक और वैयक्तिक चिंताओं से साहित्य को परिचित कराती रहीं किंतु साहित्य यहाँ अधिक प्रभाव शाली नहीं दीखता ।होता यह है कि स्त्री रचना कार अपनी नियति को अलग अलग कारणों से स्वीकार कर कभी अमृता प्रीतम बन जाती है तो कभी क़मला दास ।कुछ ज़्यादा स्पष्ट हुई तो मृदुला गर्ग या प्रभा खेतान बन जाती है ।जबकि ज़रूरत है कि स्त्री लेखिकाएँ तसलीमा नसरीन बनें ।और अपनी मुक्ति का युद्ध स्वयं लड़े ,शत्रु और समय की सारी साज़िशों का मुँह तोड़ जवाब देते हुए ।जैसी स्थितियाँ वर्तमान में हिंदी या यूँ कहें कि पूरे भारतीय साहित्य में बन रहीं हैं उनमें तो किसी भी तसलीमा नसरीन को निर्वासन और पलायन का हर क्षण आक्रमण झेलना ही पड़ेगा ।अधिकतर स्त्री लेखिकाएँ बेचारगी को अपना हथियार बनाती हैं ।डा०रंजना गुप्ता के इस संग्रह में एक गीत है ‘कंदील’।जिसमें स्त्री मन अपनी शक्ति हीनता के स्थान पर अपनी शक्तिमयता का परिचय दे रहा है --

‘गढ़ लेती हैं परिभाषाएँ
पढ़ लेती
मन की भाषायें
उन्मीलित दीप शिखा
जल जल
कीलित करती हर बाधाएँ

दीपो भव
‘अप्प’ भवो दीपो’
हर पल हर पल
निर्मल निर्मल’

अपने आस पास की घटनाओं पर टिप्पणी करते डा०रंजना गुप्ता मिथकीय पदों की शरण में चली जाती हैं और दार्शनिक होने का प्रयास करती दीखती हैं ।अभिव्यक्ति का यह एक ऐसा क्षण होता है जब विचारों के आवेग में सब कुछ गडमड हो जाता है -शब्द संयोजन ,शिल्प अनुशासन ,यथार्थ की धुँधली प्रस्तुति सब एक साथ प्रस्तुत होने के लिए धक्का मुक्की करने लगते हैं ।संग्रह की एक रचना ‘आवर्तन’ इसका उचित उदाहरण है-अनुवीक्षण ,दर्शन,व्यवहार,विश्वास, लोकाचार और अंत में आस्था के प्रति प्रतिबद्ध समर्पण ।एक कुशल और कुछ अलग क़िस्म का नवगीत।पूरी रचना में कभी कभी एक तर्क से उपजी अनिश्चितता दिखाई पड़ती है ।जो कहना है वह कहना चाहिए कि नहीं का संकेत भले बहुत ही हल्का लेकिन मिलता है --

‘आँखों देखा मिथ्या करती नास्तिकता
लाचारी है लोक ह्रदय की अस्तिकता

पल पल दृश्य मान सत्य का वह गर्जन

जल समाधि में भी जीवित इतिहास रहा
न्याय पृष्ठ पर थर्राता परिहास रहा

धीमें धीमें गहन शोध का नव अर्चन

क्यों उदास है राम सिया का ‘रामचरित’
जन मन का सैलाब नमन कर रहा मुदित

भावों के ही राम भाव का ही अर्पण ‘

रंजना गुप्ता के नवगीतों में शालीनता इतनी गाढ़ी है कि कभी कभी संवाद भी आत्मालाप लगते हैं लेकिन उमड़ती घुमड़ती बेचैनियाँ बाहर आ ही जाती हैं , और उनका स्पर्श पाठकों को भी बेचैन कर देता है ।संग्रह के’ आँसू’ ‘पीड़ा’’सिलवटें’’रूप’और ‘मछेरे’शीर्षक के नवगीत रचना कार के मानस के प्रवेश द्वार हैं ।पूरे संग्रह में कहीं भी भद्र लोक की निर्धारित मर्यादा का उल्लंघन नहीं हुआ है । यह एक बड़ी बात है।इन दिनों मुखर और अनुशासन हीन वार्ता शैली का लेखन में प्रचलन है ।कहा जाता है कि जो सामान्य जीवन में है वही लेखन में भी होना चाहिए। सरसरी तौर पर ऐसा सही लग सकता है किंतु लेखन सिर्फ़ संवादों और घटनाओं का शब्द चित्र ही है तो तो वह वांछित सांस्कृतिक़ता का त्याग कर देता हैऔर अपने बृहत्तर सामाजिक सरोकारों से मुँह चुरा कर आत्मकेंद्रित होने के लिए अभिशप्त हो जाता है।लेखन सामान्य अर्थ में एक शब्द रचना है किंतु इस रचना को सृजन बनने के लिए सांस्कृतिक होना पड़ेगा। हमें याद रखना चाहिए कि हममें जो है वह सभ्यता है और हममें जो होना चाहिए वह संस्कृति है ।साहित्य विशेष रूप से कविता और वर्तमान में नवगीत ,सभ्यता के इसी सांस्कृतिक होने की इच्छा है ।मोटे तौर पर नवगीत इसी स्थान पर आकर अन्य काव्य विधाओं से अलग हो जाता है ।’आँधी’नवगीत से कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--

‘प्रतिमानों को गढ़ने वाले
रणभूमि में ध्वस्त पड़े हैं
नैतिकता के मानक सारे
छल प्रपंच के साथ खड़े हैं--

डूब गया दिन में ही सूरज
अभिमन्यु का समर अभी है ‘

संस्कृति एक तरह से सभ्यता का अतृप्ति पर्व भी है ।सदा महसूस होता है कि जो है उसके अलावा भी कुछ होना चाहिए था जो नहीं है ।’यह जो नहीं है’ की ओर यात्रा ही एक सांस्कृतिक उपकृम है।साहित्य और कलाओं की जननी ।यह बात दूसरी है कि कौन कैसे यह यात्रा करता है..? रंजना गुप्ता की यह नवगीत यात्रा भी उसी ‘जो नहीं है’की खोज है और अपने चरित्र में पूरी तरह सांस्कृतिक ।यह’जो नहीं है’ इसका एक पथ यदि भविष्य से सम्बंधित है तो दूसरा पाठ भूतकाल से भी सम्बंधित है। ‘दीप देहरी’ नवगीत में यह भूतकालिक ’जो नहीं है’ उपस्थित हुआ है--

‘ कुछ कमल विलग थे
जल से और
कुछ जल का भी मन टूट गया
बदरंग समय की स्याही थी
कुछ नाम पता भी छूट गया
उन खुले अधखुले नयनों से
अनजाने पावस झर आया ‘

समय की माँग है कि हर क़दम पूरी सावधानी के साथ फूँक फूँक कर रखा जाय नहीं तो कुछ भी अन्यथा घट सकता है ।चारो तरफ़ अविश्वास और अनिश्चय का जो फैलाव है उसमें कुछ भी असम्भव नहीं है ।बेलगाम दुर्घनाओं का समय है हमारा वर्तमान ।एक षड्यंत्र में सब लिप्त दिखते हैं ।’समय’शीर्षक नवगीत में रंजना गुप्ता ने समय के इस रूप को इस तरह से प्रस्तुत किया है---

‘त्रासदी है
वंचना के शस्त्र हैं
परख पैमाने सभी
के ध्वस्त हैं
झूठ का तम
घिर रहा घनघोर है’

अनुवीक्षण का सातत्य कभी कभी परिचित वस्तुओं के अपरिचित गुणों का उदघाटन करता है ।और जो समझा जा रहा था उसको न समझने का मन होने लगता है एक साथ कई तरह की प्रतीतियाँ होने लगती हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना बहुत कठिन होता है ।संग्रह का एक गीत ‘कर्ण’इसकी गवाही देता है--

‘छल भरे इस युद्ध में
वह जी रहा संत्रास अपना
बाँसुरी चुप है
नहीं कुछ बोलती
सुन रही है
शंख की उद्घोषणा
स्वर्ण रथ से सूर्य भी
उतरा थका सा
हार कर
पाण्डुवंशी न्याय का
ध्वज झुक गया है ‘

रंजना गुप्ता के नवगीत अपने आग्रहों में जितने आधुनिक हैं उतने उपकरण चयन में नहीं ।सम्वेदनात्मक आवेग और नये बिम्ब संधान से रचना में एक मौलिकता पैदा होती है और यदि प्रस्तुति के उपकरण अर्थात भाषिक मुद्राऐँ आधुनिक हों तो एक आकर्षक और संतृप्त करने वाली ताज़गी रचना में आती है ।यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि पुराने हथियार से नया युद्ध नहीं लड़ा जा सकता ।तेज़ी से डिजिटलाइज्ड होती दुनिया हमारी आत्मीयता को बड़ी तेज़ी से औपचारिकता में बदल रही है ।अब आभासी वास्तविक से ज़्यादा समर्थ और सक्रिय है जो कि दिख रहा होता है कभी कभी वह होता ही नहीं ।व्यक्ति बदल रहा है क्योंकि उसका मन बदल रहा है ।बदला व्यक्ति मन समाज की सामूहिकता को अजब आकार दे रहा है ।परिभाषित सम्बंध भी अपरिभाषेय होने लगे हैं ।ऐसे में शब्द की लय से ज़्यादा अर्थ की लय महत्वपूर्ण हो गई है ।इन सारी जटिलताओं का मतलब अपने सामाजिक दायित्वों से मुँह फेरना नहीं है भले स्थिति का निर्णयात्मक और निर्विवाद आकलन करना मुश्किल हो। समाज में रहते हुए हम तटस्थ और असंपृक़्त नहीं रह सकते ।सारी ऊहापोह को छोड़ कर जो समझ में आए वैसा हस्तक्षेप हमें सामाजिक क्रियाओं में करना चाहिए ।चाहे यह एक कटु टिप्पणी ही क्यों न हो ।यह एक असहज कर देने वाली स्थिति होती है ।’खिड़की’ शीर्षक नवगीत में इसी ऊहापोह और असहजता पर टिप्पणी की गई है --

‘छाँव पर छेनी चलाती हैं
हवाएँ
कस रहीं है तंज
शाख़ों पर दिशाएँ
उड़ सके नन्हें परों से
फिर गगन में
क़ैद से इन तितलियों को
छोड़ देते ‘

स्पष्ट है कि रचना कार तितलियों के क़ैद में होने से व्यथित है और अफ़सोस व्यक्त कर रहा है कि काश उन्हें छोड़ दिया जाता ।पूरे संग्रह में आम आदमी की जीवन चर्या से जुड़े अनेक विषयों जैसे-राजनीति ,सामाजिक संक्रमण,रोज़गार,ग़रीबी,असमानता पर नवगीत हैं। यह संग्रह आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता के द्वन्द की परिणिति होने का परिचय देता है।

सारे युग बोध के बाद भी रूमान सदा से एक काव्य मूल्य रहा है और रहेगा क्योंकि यदि रुमान न होता तो कोई कविता सम्भव ही नहीं थी ।जीवन के हर क्रिया बोध का निस्पंद सिर्फ़ और सिर्फ़ रुमान है ।कुछ लोग जीवन की साम्प्रतिक़ता को जिसे वे यथार्थ कहते हैं रुमान से अलग मानते हैं जबकि जीवन में जो कुछ भी हो रहा है उसका संचालन तत्व रुमान ही है ।डा० रंजना गुप्ता भी यथार्थ की तपती धूप में चल रही गर्म हवा में नमी की तरह अपने प्रेम राग का गायन करती हैं ।संग्रह के ‘स्त्री’ शीर्षक गीत में उनके मनोभाव कुछ इस तरह से व्यक्त हुए हैं--

‘तुम पुरुष नहीं हो सकते
मेरे स्त्री हुए बिना
……………………
गर्म रेत पर चली
स्त्री सदियों से
चुप चाप गुज़रती रही
अंधेरी गलियों से
तुम धूप नहीं हो सकते
मेरे छाया हुए बिना…’

इन पंक्तियों को प्रेम का स्त्री पक्ष कहा जा सकता है।किंतु इससे प्रेम के स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य होने की पुष्टि भी होती है ।संग्रह में अनेक गीत जैसे ‘बसंती राग’ ‘रतजगे’’बसंत’’फागुन’ और ‘प्यार तुम्हारा’ आदि इस बात को स्थापित करते हैं कि कितनी ही विषम और जटिल परिस्थिति क्यों न हो रुमान का पौधा कभी नहीं सूख सकता ।

संग्रह की भूमिका में प्रसिद्ध नवगीत कार मधुकर अस्थाना रंजना गुप्ता के नवगीतों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि ‘’ अनुभूतियों में संवेदनात्मक ताज़गी ,मौलिकता और बहुश्रुत प्रतीकों के माध्यम से कथ्य का संप्रेषण उन्हें प्रथम संग्रह से ही महत्व पूर्ण बनाने में सफल है ।रागात्मक अंत:चेतना से उपजी यथार्थ मार्मिकता करुणा का विस्तार करती है ।उनकी रचनाओं में वायलिन का दर्द भरा सुर है या प्रिय को टेरती वंशी की धुन है जिसे हम समझ तो नहीं पाते पर मन के भीतर एक टीस जगा देती है कुछ अनबूझी ,अनजानी सी।’’

कोमल कमनीय शब्दों वाले इस गीत संग्रह की अर्थ व्याप्ति कहीं कहीं इतनी खुरदरी है कि पाठक के मर्म को स्पर्श ही नही करती बल्कि उसे छील देती है ।बिना क्रुद्ध हुए शालीन और सौम्य मुद्राओं वाले इन नवगीतों के सृजन के लिए डा०रंजना गुप्ता की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।आशा है यह संग्रह सिर्फ़ नवगीत संग्रह के रूप में ही नहीं बल्कि नवगीत के प्रांजल ,शालीन स्त्री हस्तक्षेप के लिए भी उचित सत्कार प्राप्त करेगा ।

- गणेश गंभीर का आलेख

रविवार, 14 अक्तूबर 2018

समय है संभावना का - जगदीश पंकज / राजेन्द्र वर्मा

आज नवगीत अथवा किसी भी विधा में सामयिक यथार्थ से कटी हुई रचना का कोई महत्त्व नहीं। वायवीय और अमूर्तन से पृथक् यथार्थ के धरातल पर सर्जना और संवेदना की रक्षा का ध्येय ही वास्तविक रचनाधर्मिता है। इस दृष्टि से नवगीत का सरोकार स्पष्ट है और वह अपनी भूमिका सजगता से निभा रहा है। कहना न होगा, आज कितने ही नवगीतकार समय से मुठभेड़ करने में लगे हैं और उनके संग्रहों से हिन्दी काव्य समृद्ध हो रहा है, यद्यपि साहित्य की मुख्य धारा में अभी उसका आकलन शेष है । ऐसे में श्री जगदीश पंकज के नवीनतम संग्रह, समय है सम्भावना का, का आना सुखद है।

समीक्ष्य संग्रह में उनके 69 नवगीत हैं जिनमें सत्ता के छल-छद्म के विविध चित्र खींचे गये हैं। ये चित्र जिस तथ्य को सामने लाते हैं, वे हमारे जाने-पहचाने हैं, लेकिन उनके चित्रण का अन्दाज़ जुदा है। कहीं उनकी अभिव्यक्ति मारक है, तो कहीं आम आदमी को सान्त्वना देने वाली है। इन नवगीतों में तमाम विद्रूपताओं, विडम्बनाओं और हतप्रभ करने वाली स्थितियों पर विजय पाने की ललक बसती है। कवि की दृष्टि अनुभवसम्पन्न है। इससे पूर्व उसके दो नवगीत-संग्रह, सुनो मुझे भी और निषिद्धों की गली का नागरिक प्रकाशित और समादृत हो चुके हैं।...नवगीतकार का मानना है कि आज विरुद्धों के समन्वय का समय है। सृजन की संभावना के वर्तमान दौर में उसने युगीन यथार्थ को स्वर देने के साथ-साथ समय पर प्रतिक्रियास्वरूप अनुभूति के संवेदन को अभिलेखित किया है।... संग्रह से गुजरने पर उसके इस कथन की पुष्टि होती है। साथ-ही, यह सन्तोषप्रद लगता है कि जीवनमूल्यों के निरन्तर क्षरण होते जाने के बावजूद नवगीतकार निराशा के सागर में नहीं डूबता; वह अपने उस संकल्प को विविध रूपों में दुहराता है जो जीवन की उदात्तता को स्थापित करते हैं। इस प्रक्रिया में कवि रचनाधर्मिता को नये-नये आयाम देता है। हिन्दी कविता के जो आलोचक नवगीत कविता पर यह आरोप लगा उसे ख़ारिज कर देते हैं कि गीत वर्तमान यथार्थ की जटिलता खोलने में अक्षम है, उनके लिए यह संग्रह चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है।

सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता वाले हमारे समाज के सामने आज साझी विरासत और वैचारिक स्वतंत्रता पर जो संकट मंडरा रहा है, वह इससे पहले नहीं था, यद्यपि आम आदमी के सामने आर्थिक अभाव और उसके जीवन को दुश्वार करने वाली तमाम बातें मौज़ूद थीं। तब ग़रीब आदमी आपस में मिल-बैठकर कुछ रास्ते निकाला करते थे, जिन्हें निकालने का काम सत्ता-व्यवस्था का था, पर इस प्रक्रिया में धर्म-संस्कृति आड़े नहीं आती थी। आज सामाजिक सद्भाव को जैसे हाईजैक कर लिया गया हो और सहिष्णुता को आहत कर अस्मिता के टकराव की स्थितियाँ उत्पन्न कर दी गयी हैं। सहअस्तित्त्व की अवधारणा ही ख़तरे में है। आश्चर्य की बात यह है कि यह कारनामा सत्ताविरोधी शक्तियों द्वारा नहीं किया गया, बल्कि स्वयं सत्ता द्वारा किया जा रहा है। आर्थिक खाई बढाने के साथ-साथ दुनिया को बाज़ार में बदलने को आतुर पूँजी द्वारा पोषित सत्ता की यह रणनीति अभावग्रस्तता बढ़ा ही रही है, सामाजिक विघटन भी उत्पन्न कर रही है और परिणाम यह है कि लोग भारतीय होने के बजाय छद्म धार्मिक नागरिक हो रहे हैं।... नवगीतकार ने सत्ता के इस षड्यन्त्रकारी चरित्र को संग्रह के अनेक नवगीतों में विविधवर्णी बिम्बों में पूरी मार्मिकता से बार-बार उद्घाटित किया है—
हर पुरानी बाँसुरी में फूँक मारो/फिर सजाओ झूठ का नक्कारखाना/
किन्तु तूती की नहीं आवाज़ आये/इस तरह होता रहे/गाना बजाना । (अब सदन में अट्टहासों को सजाओ, पृ. 19)
xx xx
चुभ रहा है सत्य जिनकी हर नज़र को/वे उडाना चाहते हैं/आँधियों से/
या कोई निर्जीव सुविधा/फेंक मुझको/बाँध देना चाहते हैं संधियों से। (थपथपाये हैं हवा ने, पृ. 26)
xx xx
जल रहे जनतंत्र की/ज्वाला प्रबल हो/किस अराजक मोड़ पर ठहरी हुई है/
और आदमक़द हुए षड्यन्त्र बढ़कर/छल-प्रपंचों की पहुँच गहरी हुई है। (आ गया अन्धी सुरंगों से, पृ. 27)
xx xx
स्वप्नधर्मा रौशनी/फेंकी गयी यों/हर दिवस की आँख/चुँधियाने लगी है/
धनकुबेरों की सबल वित्तीय पूँजी/लाभधर्मा मन्त्र/दुहराने लगी है। (ओस बूँदों में चमकता, पृ. 32)
xx xx
आजकल सन्देह/हर विश्वास के आगे खड़ा है/
और दैनिक व्यस्तता का नाप/दिन से भी बड़ा है/
हर व्यथित उत्साह पर अवसाद की होती विजय है/
लग रहा सौजन्य भी संदिग्ध/यह कैसा समय है! (लग रहा सौजन्य भी संदिग्ध, पृ. 113)

किसान, मजदूर, सफाईकर्मी आदि आम आदमी जनतन्त्र के नायक हैं, लेकिन आज उन्हें हाशिये पर भी स्थान नहीं मिल रहा। सत्ता के ठेकेदारों ने केवल वोटों की ख़ातिर सदियों से उनका दोहन किया है। नवगीतकार ने आने कवि-धर्म को पहचाना है और इस दोहन के विरुद्ध खड़े होकर उसके दुख-दर्द को बड़ी ही मार्मिकता के साथ वह वाणी दी है जो पाठक को तिलमिला देती है—
दोपहर की/चिलचिलाती धूप में जो/खेत-क्यारी में/निराई कर रहा है/
खोदता है घास-चारा/मेड़ पर से/बाँध गट्ठर ठोस/सिर पर धर रहा है/
है वही नायक/समर्पित चेतना का/मैं उसी को गा रहा/उद्घोष में भी ।
जो रुके सीवर/लगा है खोलने में/तुम जहाँ पर/गन्ध से ही काँपते हो/
दूरियों को नापकर/चढ़ता शिखर पर/तुम जहाँ दो पाँव/चलकर हाँफते हो/
मैं उसी की/मौन भाषा बोलता हूँ/प्राणपण से/दनदनाते रोष में भी । (ताप मैं भरता रहूँ आक्रोश में भी, पृ. 23)
अथवा,
गुलमुहर के गीत ही गाते रहे/दूब को हर बार ठुकराते रहे।
वे सजाने में लगे/फुलवारियाँ/हम बचाने में लगे किलकारियाँ/
आदमियत को बचाने के लिए/डाँट हम हर ओर से खाते रहे।
बस महावर और मेंहदी ही लिखे/पाँव के छाले नही/जिनको दिखे/
रोपती जो धान गीले खेत में/वह मजूरिन देख ललचाते रहे। (गुलमुहर के गीत ही गाते रहे, पृ. 31)
या फिर,
जहाँ खड़े थे, तुमने आकर/पीछे और धकेल दिया है/
तुमको अभिनन्दित करने के/क्या हमने अपराध किया है?
चाटुकार ही पास तुम्हारे/खड़े हुए सहयोगी बनकर। (झुकी कमर टूटे कन्धों से, पृ. 77)

लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है, लेकिन आज सत्ता की अराजकता का सबसे बड़ा कारण यही है कि प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने वाला कोई नहीं है : न कोई व्यक्ति, न पार्टी और न ही मीडिया। जो थे, उन्हें विविध प्रलोभनों से सत्ता अपनी ओर मिला रही है। विपक्षविहीन लोकतन्त्र और धृतराष्ट्र के शासन में कुछ अन्तर नहीं। सत्ता अपनी निरंकुशता को लोकतन्त्र की परिधि में लाने को नित नयी रणनीति अपना रही है। नवगीतकार ऐसे में यथास्थिति के विरुद्ध प्रतिपक्ष की भूमिका में उतरता है—
कल तलक था धुर विरोधीपन/अब समर्थन में गरजते हैं।
जब असंगत मेह की बूँदें/हैं बरसतीं/ले विषैला जल/
अम्लता की पोटली खोले/आँगनों में फेंकती हलचल/
अब नज़र मिलती नहीं उनकी/मंच पर ही रोज़ सजते हैं। (कल तलक था धुर विरोधीपन, पृ. 46)
अथवा,
बिका मीडिया फेंक रहा है/मालिक की मंशा परदे पर/
और साथ में बेच रहा है/बाबाओं के भी आडम्बर/
अगर नहीं सो रहे उठो अब/अपने मुँह पर छींटे मारो। (जल्दी से आलस्य उतारो, पृ. 86)
या फिर,
घोषणा है, बन्द कर दो/सब झरोखे-द्वार-खिड़की/
रौशनी की किरण तक भी/आ न पाये इस भवन में । (घोषणा है बन्द कर दो, पृ. 52)

जैसा कि संग्रह का शीर्षक है, नवगीतकार अनेक गीतों में यथार्थ के आकलन के साथ-साथ उदात्तता की कामना करता है। वह अरण्यरोदन-भर नहीं करता, विकल्प तलाशता है और आत्मशोधन से आत्मविश्वास को और प्रबल करता है। वह कबीर और रैदास के अवदान को रेखांकित कर उनकी परंपरा को आगे बढाने की बात करता है और आधुनिक सन्तों, जिन्हें सीकरी से ही काम है, की जमकर ख़बर लेता है। वह बुद्ध के दर्शन में रमने का भी आह्वान करता है, तो अध्यात्म-दर्शन को सकारात्मकता से जोड़ते हुए ठगी और पाखण्ड का विरोध दर्ज़ करता है।... रचना के पड़ावों पर उसने अनेक बार संतुलित सोच और समन्वय की संभावनाओं की तलाश की है और यह कामना की है कि कुछ ऐसा किया जाए कि भीड़ का हिस्सा बन चुके रोबो जैसे हम प्रेम और संवेदना से भरे जीवन को मानवीय गरिमा के साथ जी सके—
प्रेम की, सौहार्द की/सच्चाइयों को शब्द देकर/जागती जीती रहें/सब कारुणिक संवेदनाएँ/
प्राणमय विस्तार हो/हर रोम में अनुभूतियों का/शान्त मन सद्भावना/संचेतना के गीत गाएँ/
आइए, अभियन्त्रणाओं का समय है/हर्षमय संगीत हो/उत्कर्ष पर अब। (समय है सम्भावना का, पृ. 50)
अथवा,
अनसुनी ही लौट आयी/चीख मेरी, पास मेरे/भीड़ में से भी गुज़रकर/हादसों के इस शहर में ।
xx xx xx
हो सके तो अब उठें/समवेत स्वर ले जूझने को/मानवी विश्वास की गरिमा/न डूबे अब ज़हर में।
(अनसुनी ही लौट आयी, पृ. 82)
अथवा,
कुछ उठे यह धरा/कुछ झुके यह गगन/
मन मगन रागिनी गुनगुनाता रहे/भोर से भोर तक गीत गाता रहे। (कुछ उठे यह धरा, पृ. 67) और,
चलो हम भीड़ में खोजे/कहीं थोडा अकेलापन/
मिलन के मुक्त पल लेकर/मयूरा मन करे नर्तन/
किसी मादक छूअन की/गन्ध-सी महके हवाओं में/
दिशाओं में क्षितिज तक/प्राण का होता रहे कम्पन। (नदी के द्वीप पर ठहरा, पृ. 68)

अभिव्यक्ति की आकर्षक शैली, बोलचाल और तत्सम शब्दों से सज्जित भावानुरूप भाषा और विभिन्न छन्दों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा करते हुए अपने लक्ष्य में पूर्णतया सफल हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर रचनाकार ने शिल्प और वस्तु में सामंजस्य बिठाकर यथार्थ को अधिकांशतः प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। रचनाकार ने नवगीतों की भाषा में अपेक्षित लय के लिए गद्य कविता की लय-प्रविधि को अपनाते हुए पंक्तियों में यथावश्यक यति देकर अभिव्यक्ति को पैना किया है, जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि आजकल ऐसे नवगीतों की भरमार है जो सपाटबयानी का शिकार हैं और वे पाठक के मर्म को छू भी नहीं पाते, उन पर घटित होने की बात ही क्या! ऐसे में समीक्ष्य संग्रह अपनी पैनी अभिव्यक्ति और विकल्प की तलाश करती उद्भावना से विश्वास जगाता है कि लोकचेतना से लैस नवगीत अपनी भूमिका में किसी सजग प्रहरी की भाँति डटा हुआ है।... आज के युग के सत्य-तथ्य में हस्तक्षेप करते इस नवगीत संग्रह का हिन्दी संसार द्वारा अवश्य ही स्वागत होगा ।